हमें खिचड़ी नहीं खानी तो नहीं खानी, बस

::  गौतम जयप्रकाश ::

(सौजन्‍य : श्रीनिवास)

 

“मोदी नहीं तो कौन?” भक्तों के तर्क का तरकश जब खाली हो जाता है (जो अक्सर पहले से ही खाली होता है) तो यही सवाल दागा जाता है। इसपर मुझे मदर इंडिया का दृश्य याद आता है जब संकटों से घिरी राधा के सामने सुखीलाला घिनौना प्रस्ताव रखता है और राधा के मना करने पर चैलेंज फेंकता है 'वो नहीं तो कौन?'

ऐसे सवालों के बदले सवाल पूछा जाना चाहिए “मोदी है तो और कोई क्यों नहीं?” ये 'कोई' कोई भी हो सकता है, जरुरी नहीं कि जो विकल्प खुद भाजपा और भक्त आपके सामने रखते हैं और साथ में सबकी दर्जनों खामियां गिनाते हैं, आपको उन्हीं पर विचार करना है। और आपको तो इस बात पर विचार करने की जरूरत भी नहीं है।याद रखिए, आप अमेरिकियों की तरह राष्ट्रपति का चुनाव नहीं कर रहे हैं, आप अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि को चुन रहे हैं जो संसद में जाकर या तो सरकार बनाने में सहयोग करेगा या विपक्ष में बैठकर आपकी आवाज़ सरकार को सुनाएगा।

आप कहेंगे एक नेता तो होना चाहिए। मैं इससे इनकार नहीं करता। अगर ऐसा हो तो अच्छा है। लेकिन अगर स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री बनने लायक नेता की छवि ना हो तो कुएं में डूब मरने की स्थिति भी नहीं बन जाती। इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। विश्व की अन्य संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में आज भी ऐसे होता दिख जाएगा जब चुनाव सम्पन्न होने के बाद ही विजेता दल के नेता की घोषणा होती है। 

सन सतहत्तर की स्मृति मुझे नहीं है लेकिन चूंकि मेरा परिवार उस आंधी के बीच से होकर गुजरा था तो अपने बड़े चाचा के व्यक्तिगत अनुभवों और उसके बाद के घटनाक्रम का स्वंय साक्षी रहकर इतना मैंने जाना कि तब की इंदिरा गांधी का कद आज के मोदी से बहुत बड़ा था। शायद तब भी इंदिरा भक्त यही सवाल पूछते होंगे “इंदिरा नहीं तो कौन?” मुझसे पिछली पीढ़ी के लोग इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि क्या जनता पार्टी ने चुनाव के पहले मोरारजी भाई को नेता चुन लिया गया था? 

हां, जनता सरकार नाकाम रही। लेकिन सतहत्तर के चुनाव ने इंदिरा गांधी को सबक जरूर सिखाया। अस्सी में जब वो जीतकर आईं तो पहले की तरह निरंकुश तेवर नहीं थे।

अगर वो याद न हो तो २००४ याद कर लीजिए। चुनाव को अटल बनाम सोनिया घोषित किया गया था। कुछ ‘गैरतमंद' भाजपा नेताओं ने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर सर मुंडवाने का अहद भी लिया था। मगर क्या हुआ? क्या विकल्प नहीं मिला? आलाकमान के आदेश पर ही सही, नेता तो चुनाव के बाद ही तय किया गया।

अगर नरसिम्हा राव, देवगौड़ा और गुजराल को जोड़ दिया जाए तो ऐसे 'विकल्पों' की सूची और लम्बी हो जाती है। मगर भक्त इन सबको अलग-अलग बहाने बनाकर ख़ारिज कर देंगे। ‘जनता पार्टी एक असफल प्रयोग था', ‘देवगौड़ा और गुजराल मजबूरी थे'; 'मनमोहन सिंह रबर स्टैंप' वगैरह वगैरह। उनकी मर्जी है कि आप विकल्पों की बात ही न करें। जैसे बचपन में मां कहती थी ना कि खिचड़ी बनी है, खाना है तो खाओ वरना भूखे रहो।

तो ऐसा है कि अगर मुझे खिचड़ी नहीं खानी तो नहीं खानी, मैं किसी और भोजन की तलाश में लगा रहूंगा जब तक मनमाफिक ना मिल जाए। आप भी लगे रहिए, खिचड़ी के अलावा भी कई और विकल्प हैं। और ऐसा कोई विकल्प जो होगा, चाहे भक्तों के मेन्यू में से हो या कोई आउट ऑफ सिलेबस, छप्पन इंच के झूठे दंभ को जरूर कम करेगा।

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