भूतो-न- भविष्यति मोदी

Approved by Srinivas on Tue, 05/07/2019 - 06:40

:: श्रीनिवास ::

देश का प्रधानमंत्री ही जब ऐसे हल्केपन पर उतर आएगा, तो उस दल की साधारण कार्यकर्त्ता से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं? आज बजरंग दल, भाजयुमो, कथित गो-रक्षक, हिन्दू युवा वाहिनी आदि संगठनों के कार्यकर्ताओं का चरित्र और अंदाज देखिया; और देखिये कि भाजपा शाहित राज्यों में कैसे इन सब को संरक्षण मिला हुआ है, कैसे इन तत्वों का महिमामंडन हो रहा है. क्या यह सब मोदी-शाह की मौन सहमति के बिना हो रहा है?

भारतीय राजनीति की अधिकतर बुराइयों की तरह इसके लम्पटीकरण का श्रेय भी कांग्रेस को ही जाता है. साठ के दशक के अंत में जब कांग्रेस पर इंदिरा गांधी का वर्चस्व कायम हो गया, तब उनके दूसरे पुत्र संजय गांधी (दिवंगत) की अगुवाई में कांग्रेस में लुम्पेन तत्वों (पता नहीं, हिन्दी में इसे क्या कहेंगे, शायद- सड़क छाप, छिछोरे, गुंडे) को कार्यकर्त्ता के रूप में शामिल किया गया. सत्तर के दशक में युवक कांग्रेस ने ऐसा उत्पात मचाया कि बस. फिर संजय गांधी के खुशामदियों या चमचों ने ‘संजय गांधी ब्रिगेड’ तक गठित कर दी, जिसे कांग्रेस के सांसदों और विधायकों की सरपरस्ती हासिल थी. इसी ब्रिगेड से जुड़े फुलेना राय नामक विधायक ने पांच जून, ’74 को पटना में हुई ऐतिहासिक रैली पर गोली भी चला दी थी.
बहरहाल, कांग्रेस का ‘सच्चा’ विकल्प बनती और उसकी लगभग हर बुराई को अपना चुकी भाजपा उसके इस ‘गुण’ को भी बखूबी अपनाती नजर आ रही है. वैसे भी संजय की पत्नी मेनका गांधी और उनके पुत्र का भाजपा में होना भी काफी कुछ बता जाता है. और राजनीति के सतहीकरण और लम्पटीकरण के इस अभियान का नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कर रहे हैं. इनकी भाषा देखिये, इनका अंदाज देखिये. देश का प्रधानमंत्री ही जब ऐसे हल्केपन पर उतर आएगा, तो उस दल की साधारण कार्यकर्त्ता से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं? आज बजरंग दल, भाजयुमो, कथित गो-रक्षक, हिन्दू युवा वाहिनी आदि संगठनों के कार्यकर्ताओं का चरित्र और अंदाज देखिया; और देखिये कि भाजपा शाहित राज्यों में कैसे इन सब को संरक्षण मिला हुआ है, कैसे इन तत्वों का महिमामंडन हो रहा है. क्या यह सब मोदी-शाह की मौन सहमति के बिना हो रहा है?

बीते पांच वर्षों के दौरान श्री मोदी लगातार चुनाव मोड में रहे; और संसद में बोल रहे हों या विदेश में, उनको देख-सुन कर हमेशा यही लगा, मनो वे किसी चुनावी रैली में बोल रहे हैं. और बोलते क्या थे? सबसे पहले मंगलाचरण की तरह ‘सत्तर साल’ की बर्बादी, पिछली सरकारों के निकम्मेपन की चर्चा; फिर नाटकीय अंदाज में अहम् ब्रह्मास्मि के अंदाज में अपनी कथित उपलब्धियों का बखान. यहाँ तक भी गनीमत थी, लेकिन धीरे-धीरे अति आत्मविश्वास में या आलोचनाओं के रिएक्शन में या विफलताओं के एहसास के कारण बौखलाहट में, अपने आलोचकों, विपक्ष के नेताओं के प्रति जिस छिछली (महज अमर्यादित कहना शायद पर्याप्त नहीं होता) भाषा का प्रयोग करने लगे; और उनके मुरीद जिस अंदाज में तालियाँ बजने लगे हैं कि हैरानी से अधिक चिंता होती है कि आखिर राजनीति की यह गिरावट कहाँ जाकर रुकेगी.
बेशक विपक्ष के कतिपय नेता भी बहुत पीछे नहीं हैं, लेकिन देश के प्रधानमंत्री से औरों की क्या तुलना हो सकती है. मौजूदा चुनाव के पांच चरण पूरे हो चुके हैं. इसमें मोदी ‘मैं..मैं और मैं’ के नाम पर (साथ में बालाकोट, सेना का शौर्य, घुस कर मारेंगे आदि अदि तो था ही) वोट मांगते रहे. पांच साल तक नेहरू-इंदिरा को किसी बहाने कोसते रहने के बाद अचानक उन्हें राजीव गांधी का ‘महा चोर’ होना याद आ गया! और अब वे राहुल गांधी को चुनौती दे रहे हैं कि ‘हिम्मत है तो बाकी दो चरण राजीव गांधी के नाम पर ही लड़ लो.’ हद है!

नरेंद्र मोदी के मुरीद, जिनके लिए ‘भक्त’ शब्द प्रचलित हो गया है, मानते हैं कि उनके जैसा नेता न तो आज तक हुआ, न होगा. कुछ तो उन्हें ‘अवतार’ भी मानने लगे हैं. ‘भक्ति’ शायद इसे ही कहते हैं. भक्त को अपने आराध्य में कोई कमी-त्रुटि नहीं दिखती, बल्कि वह उसमे कमी बतानेवाले का मुंह नोचने को तत्पर रहता है. जो नेता ऐसे ‘भक्तों’ की भीड़ खडी कर दे, उसे ख़ास तो मानना ही होगा.

सचमुच मोदी भूतो-न- भविष्यति टाइप नेता हैं! या कि हमारा (भारतीय जनता का) ही स्तर इतना गिर गया है कि हम ऐसे नेता (‘ऐसे नेता’ में मोदी के आलावा बहुतों को गिना जा सकता है) में देवता के दर्शन करने लगते हैं?
ऐसे में बार बार हमें दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
‘रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो.’

Sections

Add new comment