राहुल गांधी का मूढ़ा पटकना

Approved by Srinivas on Tue, 07/30/2019 - 23:29

:: श्रीनिवास ::

हो सकता है, कांग्रेस जल्द ही नेतृत्व की समस्या का हल खोज ले. संभव है, जल्द ही गांधी/नेहरू परिवार से बाहर का कोई नेता कांग्रेस का अध्यक्ष बन जाये. और हो सकता है, यह पार्टी के हित में साबित हो. हालांकि यह इतना आसान नहीं होगा. यदि यह दांव उल्टा पड़ा, क्योंकि यह आशंका निराधार नहीं है कि देश भर के कांग्रेसी आसानी से नये नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगे. तब पार्टी बिखर भी सकती है; और इसका श्रेय राहुल गांधी को भी जायेगा.

संसदीय चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी का कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से इस्तीफा देना अप्रत्याशित नहीं था. पार्टी की विफलता के लिए अध्यक्ष अपनी नैतिक जवाबदेही स्वीकार कर पद छोड़ने की पेशकश करे, यह स्वाभाविक है. फिर अपने इस्तीफे पर अड़ कर उन्होंने अपनी दृढ़ता का परिचय दिया; बताया कि इस्तीफा कोई दिखावे के लिए नहीं दिया था, जैसा कि उनके विरोधी मजाक उड़ाते हुए कह रहे थे. मगर सवाल है कि जब पार्टी एकदम पस्तहाल हो, अपने सबसे बुरे दौर म़े हो, तब उनके इस्तीफे से पार्टी को मजबूती मिलेगी; या कि वह और रसातल को चली जायेगी? क्या राहुल गांधी ने इस सवाल पर विचार किया?

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कारगिल के बहाने!

Approved by Srinivas on Sun, 07/28/2019 - 17:09

:: श्रीनिवास ::

आजाद भारत में भारतीय सेना की सबसे बड़ी उपलब्धि का पल कौन सा था? क्या वह १९७१ का युद्ध और १६ दिसंबर का दिन नहीं था, जब पाकिस्तान के करीब नब्बे लाख सैनिकों ने हमारे साने सरेंडर किया था, जो विश्व के युद्ध इतिहास की पहली और अनोखी घटना थी. जब पाकिस्तान का भूगोल हमेशा के लिए बदल गया था? जब 'धर्म देश के निर्माण और देश की एकता का आधार हो सकता है' की मान्यता ध्वस्त हो गयी थी, जो देश के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का आधार था. जब मुसलमानों के लिए, यानी मजहब के नाम पर बना पाकिस्तान, भाषा और संस्कृति के नाम पर टूट गया. यह कोई मामूली परिघटना और उपलब्धि थी? जबकि 'कारगिल विजय' के साथ हमारी गफलत भी एक सच्चाई है, जिस कारण हमारे सैकड़ों बहादुर जवानों को जान गंवानी पड़ी.

इसके आगे जो कुछ कहने जा रहा हूं, उसे बिना किसी आग्रह के, थोड़ी देर के लिए दलीय भावना से परे होकर, इस खाकसार के भाजपा/ मोदी विरोधी होने के सच को परे रख कर पढ़ने का प्रयास कीजियेगा. इसे प्लीज कारगिल में भारतीय सैनिकों की बहादुरी और उपलब्धि को नकारने की कोशिश के रूप में भी न देखें.

अब एक सवाल कि क्या आपको पता है कि 'कारगिल' में ठीक ठीक क्या हुआ था?

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Union Finance Ministry’s restrictions on media undemocratic

:: M Y Siddiqui ::

The impugned order is overtly regulatory in that accredited media persons seeking to pursue some exclusive story can meet concerned official(s) on prior appointment within the intimation of security agencies, thus prohibiting officials from being spotted for subsequent action against them if reporting of such journalist annoys the high echelons or embarrass the government. This means covertly a virtual ban on entry and movement of accredited journalists in that Ministry. The order is anti-democratic intending to curb freedom of the press, a basic structure of the core values of India’s democratic functioning.

A recent order of the Union Ministry of Finance restricting entry and movement of accredited media persons in that Ministry is fascistic in nature as it points to curb and control of the media being witnessed under the current NDA Union Government where the media house owners are arm-twisted under threat of some frame-up and punitive action or lavish advertisements. The result has been willful neglect of highlighting people’s problems in their reporting, analysis and comments limiting themselves toall eulogizing the government.

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सिद्धू के इस्तीफे की खबर बताती है पत्रकारिता की दुर्दशा

:: संजय कुमार सिंह  ::

हिन्दी और अंग्रेजी के जो अखबार मैं देखता हूं उनमें अंग्रेजी के इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ में नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे की खबर पहले पन्ने पर नहीं है। हिन्दी में कोई भी अखबार ऐसा नहीं है जिसमें सिद्धू के इस्तीफे की खबर पहले पन्ने पर न हो। नवजोत सिंह सिद्धू का इस्तीफा एक महीने पुराना है। इसे कल सिद्धू ने खुद ट्वीट किया और कल यह सोशल मीडिया पर छाया हुआ था। आज अखबारों में छाया हुआ है। एक महीने पुराना इस्तीफा अब सार्वजनिक हुआ है तो खबर है पर इससे पता चलता है अखबार वाले कितनी खबर रखते हैं और कैसी खबरें देते हैं। इस पुरानी खबर को पहले पन्ने पर छापने का कोई मतलब नहीं है और अगर छापना था तो प

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Growing fascism in India

:: M Y Siddiqui ::

Dictionaries have defined fascism as a governmental system led by a dictator having complete power, forcibly suppressed opposition and criticism, regimenting all industry, commerce etc.; and emphasizing on aggressive nationalism and often racism. It’s a political system that employs the principles and methods of fascism, especially one established by Mussolini in Italy 1922-43.In this context, political scientist Dr.

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जायरा वसीम की गैरजरूरी दलील

Approved by Srinivas on Wed, 07/10/2019 - 07:09

:: श्रीनिवास ::

महिला को और मां की भूमिका तक सीमित रखने के लिए धर्म का सहारा लेना आम बात है; और सामान्य तौर पर महिलाएं भी इसे शाश्वत मूल्य मान लेती हैं. जायरा ने भी मान लिया तो कोई अचरज की बात नहीं. लेकिन इसके लिए ‘दीन’ की आड़ लेना गैरजरूरी था.

आमिर खान की चर्चित फिल्म ‘दंगल’ से अभिनय जीवन की शुरुआत करनेवाली कश्मीरी युवती जायरा वसीम इन दिनों चर्चा में है. इसलिए कि उसने अचानक अपने पांच साल के फ़िल्मी कैरियर को अलविदा कह दिया है. उसके इस फैसले पर कोई टिप्पणी करना गैरजरूरी है. किसी को भी कोई पेशा अपनाने का और उसे छोड़ने का अधिकार तो है ही. लेकिन अपने इस नितांत निजी फैसले के पक्ष में उसने जो दलील दी है, वह न सिर्फ गैरजरूरी थी, बल्कि कई मायनों में आपत्तिजनक भी है. उसने एक लम्बे बयान में कहा है कि फ़िल्मी दुनिया में मिल रही शोहरत और चकाचौंध उसे अल्लाह और ईमान से दूर कर रही थी.

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एक साथ चुनाव : अव्यावहारिक, अलोकतांत्रिक और बेतुका सुझाव

Approved by Srinivas on Tue, 07/09/2019 - 20:29

:: श्रीनिवास ::

संविधान में इसके प्रावधान नहीं हैं, यह कोई कठिन समस्या नहीं है। संसद चाहे, तो इसके लिए संविधान संशोधन किये जा सकते हैं। मगर ऐसा करना जरूरी क्यों है; और क्या इससे भारतीय लोकतंत्र और मजबूत होगा? मेरा मानना है कि न तो यह जरूरी है, न ही इसका कोई लाभ होगा। जिन राज्यों के चुनाव में कुछ महीनों का अंतर है, उनकी विधानसभाओं को थोड़ा पहले भंग कर या कुछ का कार्यकाल कुछ आगे बढ़ा कर उनके चुनाव लोकसभा के साथ तो कराये जा सकते हैं। लेकिन हर हाल में केंद्र व राज्यों के चुनाव एक साथ ही हों, यह नाहक और नासमझ जिद के अलावा और कुछ नहीं है।

केंद्र में दोबारा ताजपोशी के बाद ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री श्री मोदी और भाजपा की नजर में देश  की सारी समस्याएं सुलझ गयी हैं; या फिर गौण हो गयी हैं। उनके लिए सबसे अहम् मुद्दा ‘एक देश, एक चुनाव’ हो गया है। जाहिर है, मीडिया और तमाम चैनलों के लिए भी यही मुद्दा प्रमुख हो गया है। और कमाल यह कि इसके औचित्य, इसकी जरूरत और व्यावहारिकता पर गंभीरता से विचार करने के बजाय इसके पक्ष में सबसे प्रमुख तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे लोकसभा व राज्यों के अलग अलग और बीच बीच में मध्यावधि चुनाव पर होने वाला अकूत खर्च बचेगा। 

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Democracy in peril without police reforms

:: M.Y. Siddiqu ::

Police force are state subject in the Constitution of India and facing acute resource crunch. As against 4.4 percent of state budgets during 2011 and 2015, expenditure on police was reduced to 4 per cent from April 2016 to March 2019 making police under resourced and overburdened so much so that its core activities and criminal investigations are compromised.

 

With the ever-growing public trust deficit in police and the police continuing as instruments of oppression, suppression, bullying, vendetta politics, framing up innocents, misuse by the state governments, democracy in India is in peril. In our system of rule of law based democratic governance, people are sovereign masters as all state organs are accountable to them (people). Added to this, police are also continuing to be brutish, nasty, corrupt and extortionists to the detriment of the people’s interests.

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Statins no longer a panacea for heart diseases!

:: M.Y. Siddiqui ::

In his seminal work, Dr. Brownstein provides the readers with an accurate and revealing perspective of the true nature of statins, using his usual clarity and straight forward style. He delivers the clinical support and evidence to help the readers understand the dangers and distortions of statin therapy even while this drug is intensively promoted throughout the world in a close nexus among the big pharma, medical practitioners, the governments, thought leaders, academics, medical journals in an unprecedented marketing ploy as there is big money involved that suits all stake holders.

 

Statins, considered a panacea for all types of cardiovascular diseases, protection of heart health and prevention of heart attacks so far, is no longer a wonder drug as over 1000 law suits have been filed in the USA against Pfizer, the pioneering drug manufacturer worldwide, which is now marketed in different brand names by several pharmaceuticals, all claiming that Lipitor caused diabetics, loss of memory etc. Statin medications are ineffective for the vast majority who take it. It neither reduces heart attack nor mortality rate significantly. It’s side effect profile is unacceptable.

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Is  Torture  part  of  police  investigation ?

:: Stan Swamy ::

It is common knowledge that prisoners are systematically tortured in our country. The poorer you are, the more liable you become a victim of physical torture in prison. Even very educated, knowledgeable, professionals are not exempt from physical as well as mental torture. It became evident when one of the accused in Bhima-Koregaon case who is himself a lawyer was repeatedly slapped during police custody in Pune jail to the extent he had to be taken to the hospital. If this can happen to an eminent legal professional, the fate of poor helpless under-trial prisoners is best left to one’s imagination.

"Torture means any act by which severe pain or suffering, whether physical or mental, is intentionally inflicted on a person for such purposes as obtaining from him information or a confession, punishing him for an act he has committed or is suspected of having committed,“ (https://www.apt.ch/en/what-is-torture/) 

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