एक औपचारिक आयोजन का दलीय आयोजन बन जाना!

Approved by Srinivas on Sun, 06/02/2019 - 19:56

:: श्रीनिवास ::

देश के प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह, जिसमें आठ देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी शामिल थे, में आप दुनिया को दिखाना चाहते थे कि इसी देश के एक राज्य की सरकार और सत्तारूढ़ दल के लोग हमारे लोगों की हत्या कर रहे हैं! विचारणीय है कि यह संघीय भावना और मान्यता के कितना अनुकूल था.

यह बेहद शर्मनाक और दुखद स्थिति है कि धीरे धीरे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह संबद्ध राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों में तब्दील होते जा रहे हैं. सरकारी खर्च पर होनेवाला ऐसा औपचारिक आयोजन एक दल विशेष के शक्ति प्रदर्शन और हित साधव का माध्यम बन जाये, यह आपत्तिजनक है और चिंता का विषय होना चाहिए. श्री मोदी का शपथ ग्रहण समारोह इसका ताजा उदाहरण है. 

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सांप्रदायिकता को देखने का एकांगी नजरिया 

Approved by Srinivas on Sat, 06/01/2019 - 20:40

:: श्रीनिवास ::

यह बात एक हद तक सही भी है कि हिंदू समाज धर्मांधता का शिकार हो गया तो इस देश को अधिक नुकसान हो सकता है। लेकिन जो लोग ऐसा मान कर अल्पसंख्यक संकीर्णता और सांप्रदायिकता के खिलाफ खामोश रह जाते हैं, वे प्रकारांतर से हिंदू सांप्रदायिकता को मदद पहुंचाते हैं। यही कारन है कि संघ का प्रभाव बढ़ता गया है; और आज गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, सामाजिक भेदभाव आदि समस्याओं- जिनसे हिंदू, मुसलिम, ईसाई आदि सभी सामान रूप से पीड़ित है- को भूल कर बहुसंख्यक समुदाय एक उन्माद की स्थिति में पहुँचता जा रहा है। इस चुनाव में भाजपा को मिली सफलता का यह भी एक बड़ा कारण है। 

 

भारत में सांप्रदायिकता को देखने पहचानने का दो मुख्य नजरिया है। एक के मुताबिक सांप्रदायिकता मतलब मुसलिम सांप्रदायिकता। क्योंकि हिंदू तो सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता। इस धारणा के अनुसार भारत में सांप्रदायिक समस्या का मूल कारण मुसलिम समुदाय की संकीर्णता है, उसका अतिवादी और असहिष्णु होना है। हिंदू तो उसकी प्रतिक्रिया में 'कभी कभी' अतिवाद कर जाते हैं।

इसके उलट ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता नजर आती है। मुसलिम संकीर्णता और सांप्रदायिकता को वे अल्पसंख्यक मानसिकता और उनके असुरक्षा बोध का नतीजा मानते हैं।

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मोदी सचमुच बदल गये हैं, बदल जायेंगे?

Approved by Srinivas on Thu, 05/30/2019 - 06:26

:: श्रीनिवास ::

याद करें कि पिछली बार संसद भवन में प्रवेश करते हुए श्री मोदी ने संसद की चौखट पर मत्था टेका था. इस बार भारतीय संविधान को पवित्र और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ बताया. क्या सचमुच वे ऐसा मानते हैं?

 

कायदे से यह समय दोबारा प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेंद्र मोदी को शुभकामनाएं देने, इस बार उनसे कुछ बेहतर करने की अपेक्षा का है. राजग के नवनिर्वाचित सांसदों के सामने बोलते हुए, या कहें, दोबारा सत्ता संभालने के ठीक पहले गत 25 मई को वे कुछ बदले अंदाज में भी दिखे. बहुतों को लगा कि उनका भाषण ‘अद्भुत’ था. कि यह विजय से उपजी विनम्रता का सकारात्मक संकेत है. वेदप्रताप वैदिक ने लिखा कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के भले की बात करके ‘सच्चे हिंदुत्व’ का परिचय दिया.

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एक्जिट पोल ने खोली मीडिया की पोल

:: ग्लैडसन डुंगडुंग ::

लगभग सभी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार चैलनों ने मोदी की सरकार बनवा दी। लेकिन इसके चक्कर में खूद को नंगा कर दिया।
इसमें अंग्रेजी समाचार चैनलों ने बाजी मारी है। रिपब्लिक टीवी और टार्इम्स नाउ ने एक-ंउचयदूसरों को मात देने की कोिाा में अपना की किरकिरी करवा लिया है। रिपब्लिक टीवी ने अपने एक्जिट पोल में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए को 605 सीटों पर जीता दिया जबकि लोकसभा में कुल 545 सीटें हैं, जिनमें से 543 सीटों पर चुनाव होता हैं एवं 2 सीटें एग्लों इंडियान के लिए सुरक्षित है, जिसके लिए राश्ट्र्पति नामित करते हैं।

19 मई 2019, भारत के इतिहास में एक अद्भ्ाुत दिन के रूप में याद करना चाहिए। यह इसलिए नहीं कि भारत ने कुछ हासिल किया बल्कि यह इसलिए कि भारतीय मीडिया ने अपना बचा-ंउचयखुचा विश्‍वास खो दिया। एक्जिट पोल में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनवाने के चक्कर में अधिकांा भारतीय मीडिया घरानों ने खूद की ही बैंड बजवा दी है। लगभग सभी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार चैलनों ने मोदी की सरकार बनवा दी। लेकिन इसके चक्कर में खूद को नंगा कर दिया। इसमें अंग्रेजी समाचार चैनलों ने बाजी मारी है। रिपब्लिक टीवी और टार्इम्स नाउ ने एक-ंउचयदूसरों को मात देने की कोिाा में अपना की किरकिरी करवा लिया है। रिपब्लिक टीवी ने अपने एक्जिट पोल में

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जाति ही पूछो साधू की!

Approved by Srinivas on Tue, 05/14/2019 - 16:02

:: श्रीनिवास ::

देश और समाज के लिए जिस जातिवाद को हमेशा शर्मनाक, दुखद और कोढ़ मानता रहा हूँ, आज अचानक उसका एक सकारात्मक पक्ष नजर आने लगा है. इस तरह कि मौजूदा परिस्थिति में वह अचानक हिंदू धर्मान्धता की काट लगने लगा है. कल्पना करें कि मौजूदा माहौल में हिंदू एकता का राजनीतिक नतीजा क्या हो सकता है/था.

विजय तेंदुलकर के इस शीर्षक का चर्चित नाटक समकालीन सामाजिक विद्रूप को थोड़ा व्यंग्यात्मक नजरिये से खोलता है. वह विद्रूप आज भी सभ्य और आधुनिक होने के हमारे दावे की खिल्ली उडाता है. आज भी हिंदू समाज की विलक्षण जातिप्रथा समाजशास्त्रियों के लिए एक अबूझ पहेली बनी हुई है. यह समाज को बांटती भी है, कहीं जोड़ती भी है. दरअसल हमारा (हिंदू) समाज विभिन्न जातियों का एक संगठन ही है. जो लोग प्रकट में इसकी निंदा करते हैं, उनमें से भी अधिकतर न सिर्फ इसमें जकड़े हुए हैं, बल्कि इसका ‘लाभ’ भी उठाते हैं. 

बहरहाल, आज जातीय जकड़न के एक ‘सकारात्मक’ प्रभाव के आकलन की थोड़ी चर्चा. 

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कमजोर सरकार कोई बुरा विकल्प नहीं है

Approved by Srinivas on Thu, 05/09/2019 - 07:37

:: श्रीनिवास ::

हो सकता है कि मोदी/भाजपा को इस ‘विकल्पहीन मोदी’ के प्रचार और व्यक्तियों के बीच मुकाबले की स्थिति का कुछ लाभ मिल जाये. लेकिन क्या सचमुच पूरे देश में, हर राज्य में लोग इसी मुकाबले या मोदी की विकल्पहीनता के आधार पर मतदान करेंगे? शायद नहीं.

पांच चरणों के मतदान के बाद भी कोई स्वतंत्र/तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक यह कहने की स्थिति में नहीं है कि 23 मई को क्या होगा. दोनों परस्पर विरोधी खेमें अवश्य अपनी जीत और दूसरे की करारी हार के दावे कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी प्रकट में आत्मविश्वास से भरे और आक्रामक नजर आ रहे हैं. लेकिन उनके भाषणों में तल्खी जिस कदर बढ़ती जा रही है, विपक्ष के नेताओं के प्रति वे जिस तरह हल्की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, उससे यह संदेह जरूर होता है कि कहीं यह पराजय के एहसास से उपजी झुंझलाहट का नतीजा तो नहीं है.

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सेना के राजनीतिकरण और जमीनी मुद्दों को भुलाने के लिए जाना जाएगा लोकसभा चुनाव 2019

:: असद रिज़वी ::

पुलवामा में आतंकवादी हमला हुआ और केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ़) के 40 जवान मारे गए।यह केंद्र सरकार के ख़ुफ़िया तंत्र की असफलता का नतीजा था। जिसकी वजह से भारत के 40 जवान आतंकवाद के शिकार हो गए। लेकिन सरकार ने अपनी सरकार की असफलता को स्वीकार नहीं किया, बल्कि इस हादसे को वोट हासिल करने का ज़रिया बना लिया। 

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है की देश की सेना के नाम पर वोट माँगे जा रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के बाद शायद यह पहला चुनाव हो रहा है जब कोई पार्टी भारतीय सेना का नाम अपने राजनीतिक लाभ के लिए कर रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) स्वतंत्रत भारत के इतिहास में पहली ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो सेना के बलिदान और आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्यवाहियों के नाम पर राजनीति कर रही है।

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Commercialisation of medical profession

:: M Y Siddiqui ::

Commercialisation of healthcare has pushed secondary level hospitals and nursing homes to be financially non-viable with ethical practice and needing external support like subsidy by the state. The entry of corporate sector has further escalated the profit-oriented business practices in the health sector.

With the dismantling of family physician system of medical practice and evolution of nursing homes to private owned hospitals and their corporatization, medical profession has taken a big leap towards commercialization wherein the poor and marginalized sections of society have been left out of the healthcare and profiteering and corruption rule the roost notwithstanding the Ayusman Bharat.

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भूतो-न- भविष्यति मोदी

Approved by Srinivas on Tue, 05/07/2019 - 06:40

:: श्रीनिवास ::

देश का प्रधानमंत्री ही जब ऐसे हल्केपन पर उतर आएगा, तो उस दल की साधारण कार्यकर्त्ता से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं? आज बजरंग दल, भाजयुमो, कथित गो-रक्षक, हिन्दू युवा वाहिनी आदि संगठनों के कार्यकर्ताओं का चरित्र और अंदाज देखिया; और देखिये कि भाजपा शाहित राज्यों में कैसे इन सब को संरक्षण मिला हुआ है, कैसे इन तत्वों का महिमामंडन हो रहा है. क्या यह सब मोदी-शाह की मौन सहमति के बिना हो रहा है?

भारतीय राजनीति की अधिकतर बुराइयों की तरह इसके लम्पटीकरण का श्रेय भी कांग्रेस को ही जाता है. साठ के दशक के अंत में जब कांग्रेस पर इंदिरा गांधी का वर्चस्व कायम हो गया, तब उनके दूसरे पुत्र संजय गांधी (दिवंगत) की अगुवाई में कांग्रेस में लुम्पेन तत्वों (पता नहीं, हिन्दी में इसे क्या कहेंगे, शायद- सड़क छाप, छिछोरे, गुंडे) को कार्यकर्त्ता के रूप में शामिल किया गया. सत्तर के दशक में युवक कांग्रेस ने ऐसा उत्पात मचाया कि बस. फिर संजय गांधी के खुशामदियों या चमचों ने ‘संजय गांधी ब्रिगेड’ तक गठित कर दी, जिसे कांग्रेस के सांसदों और विधायकों की सरपरस्ती हासिल थी.

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चुनाव-2019 : पुरानी कहानी-नया पाठ

:: हेमंत (वरिष्‍ठ पत्रकार)::

एक दिन घर और घाट दोनों के चूहों ने मीटिंग की। हाथी से छुटकारा पाने। कोई अंतिम फैसला करने। ऐन उसी वक्त वहां हाथी पहुंच गया! चूहों में भगदड़ मच गयी। सब अपने-अपने बिलों में भागे। कुछ चूहे राह भूल गये। डर के मारे उन्हें सूझा नहीं कि बिल कहां है? आपाधापी में एक चूहा एक पेड़ पर चढ़ गया। 

 

जंगल के कई हिस्सों में चूहों की आबादी बढ़ गयी थी। जहां हर चीज कुतरने लायक हो, खुले में हो और बहुतायत में हो, वहां चूहों को बढ़ने से कौन रोक सकता था! अलबत्ता, चूहों का नेतृत्व वर्ग चिंतित था। कारण था - जंगल का हाथी। वह हर वक्त मस्ती में रहता था। जंगल में रह कर भी जानवरों के किसी कायदे-कानून को नहीं मानता था। जब चलता कुछ न कुछ रौंद देता था। कभी कानून तो कभी चूहे! पांव तले आने के खतरे से परेशान चूहे चिल्लाते - ‘यह कैसा जंगल-राज है!’ 

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