पड़ताल: सर्वे के सहारे लोगों की जिंद़गी तबाह करने पर तुला हुआ है वन विभाग

:: अरविन्द अविनाश ::

रमकंडा प्रखंड के कई गांवों में गाड़े जा चुके हैं पिलर
फसलों को रौंद कर कर दिया पौधरोपण

चाहे ब्रह्मदेव उरांव हो या कि पीताम्बर उरांव, अतबल मुंडा हो या कि रोशन तिर्की। बुधन भुईहर बताते हैं कि उन्हें भी आज से 60 साल पहले ही भूदान की जमीन मिली थी। बाप-दादे जमाने से उसमें खेती करते आ रहे थे, लेकिन वन विभाग ने पिलर गाड़ कर उसे हथिया लिया। डीएफओ का कहना है कि नक्शा के आधार पर ही नापी हुआ है। हम अपनी नौकरी नहीं देंगे। नक्शा हमने नहीं बनाया है। यदि नक्शा गलत है तो इसकी जिम्मेवारी हमारी नहीं है। आप लोग नक्शा सुधारवा दीजिए, नया नक्शा बनवा दीजिए, हम उससे ही नापी करवा देंगे। 

कहीं पे ठहाका-कहीं पे विशाद या यों कहेे कि कहीं पे खुशी-कहीं पे गम। यह कहावत 9 अगस्त, 19 को पूरी तरह चरितार्थ हो रही थी, गढ़वा जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर रमकंडा के दुर्जन गांव में। भारत समेत पूरी दुनिया में; अंतराष्ट्रीय आदिवासी दिवस के अवसर पर जब, आदिवासियों के अधिकार, स्वतंत्राता व सुरक्षा की बात दुहरायी जा रही थी, ठीक उसी समय गढ़वा जिले के रमकंडा प्रखंड के दुर्जन गांव के मनी उरांव के खेतों में लगे अरहर, मकई व धान के बिचड़ों को जेसीबी मशीन से रौंद कर पौधा लगाया जा रहा था। मनी उरांव पुरखा जमाने से आबाद की गई जमीन पर लगाये गए अरहर, मकई व रोपने के लायक तैयार हो गये धान के बिचड़ों को बचाने का हर संभव प्रयास किये लेकिन वन विभाग के अधिकारियों व पुलिस अफसरों ने एक न सुनी।
साठ साल से अधिक उम्र के हो चुके मनी उरांव अपनी बात कहते हुए रूआसे हो जाते हैं। उनकी व्यथा उनके शब्दों से ज्यादा उनकी आंखों में पढ़ी जा सकती थी। आज भी प्लास्टिक के थैले में कागज डाले मनी उरांव बार-बार कागज निकालने के लिए हाथ थैले में डाल रहे थे। उन्हें इस बात का मलाल था कि खेत में लगी फसल को बर्बाद करने आये बाबुओं ने न तो हमारी बात सुनी और न ही कागज देखने की जरूरत महसूस की। वे तो अपनी बातों पर अडिग थे। हमने बार-बार उन्हें वन विभाग द्वारा पहले गाड़े गए पिलर को दिखाया और कहा कि यहां तक पिलर आने का सवाल ही नहीं है। हमें यह जमीन भूदान यज्ञ समिति से मिली है। इसकी रसीद कट रही है। शेष कुछ जमीन के लिए हमने वनाधिकार कानून, 2006 के तहत पट्टा के लिए चार साल पहले ही दावा पेश कर दिया है। लेकिन वे मानने को तैयार ही नहीं हुए। खेत में लगी फसल को रौंदते हुए ट्रेंच काट दिये और खेत में पेड़-पौधे लगा दिये। इतना कहते ही फफक पड़े मनी उरांव।
उनकी बातों को आगे बढ़ाते हुए उनके बेटे जगजीवन उरांव बताते हैं कि हमारे गांव में ग्राम सभा, वनाधिकार समिति का गठन कब का हो चुका है। वर्तमान समय में ग्रामसभा के अध्यक्ष कैलाश भुईहर हैं, जिन्हें लकवा मार दिया है। हमलोगों ने 15 अप्रैल, 15 को ही ग्र्रामसभा के माध्यम से जमीन के पट्टा के लिए आवेदन अनुमंडल स्तरीय वनाधिकार समिति को सौप दिये हैं। लेकिन अभी तक वह लंबित है। गांव के अधिकांश लोगों को भूदान से जमीन मिली है, जिसकी रसीद कट रही है। इस जमीन को भी वन विभाग पिलर गाड़ कर अपने अधीन कर लिया है। इस गांव के बड़ी आबादी वन विभाग की इस कार्रवाई से प्रभावित है। दरअसल, पुराने सर्वे के हिसाब से नापी कर पहले का पिलर गाड़ा गया था, जो आज भी विद्यमान है। बाद में 1980-81 में हुए नये सर्वे में मनमाने ढंग से वन क्षेत्रा का नक्शा दर्शा दिया गया है। वन विभाग इसी नक्शा के आधार पर नापी कर पिलर गाड़ कर जंगल का सीमांकन कर रहा है। जाहिर है, पिलर अब उससे काफी आगे जा रहा है। इससे पिछले 50 सालों से भूदान में मिली जमीन, कुछ रैयती जमीन के साथ ही दूसरी किस्म की जमीन भी वन विभाग के अधीन आ रहा है। पूरा इलाका त्रास्त है।
दूसरी ओर वनाधिकार कानून, 2006 के तहत वनभूमि पर पट्टा के लिये जमा किये गए आवेदनों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, जबकि इसे जमा किये पांच साल बीत गये। आज तक न तो हमलोगों को पहले कोई नोटिस हुआ है और न ही कोई आरोप। अचानक जब धान के बिचड़े रोपने के लायक तैयार हो गये, खेत रोपा के लिए तैयार हो रहे थे, साथ ही भदई फसल, मकई, तिल, अरहर इत्यादि खेतों में लहलहा रहे थे, उस समय अचानक वन विभाग के अधिकारी पुलिस बल के सहारे आकर वर्षो से खेती की जा रही जमीन पर पौधा लगा दिये। हम विरोध करते रहे लेकिन बंदूक के सामने कौन टिकेगा? हम मजबूर थे अपने सामने अपनी जमीन में लगी फसल को रौंदे जाते हुए देखने के लिए।
ऐसी ही पीड़ा दूसरे लोगों की भी थी। चाहे ब्रह्मदेव उरांव हो या कि पीताम्बर उरांव, अतबल मुंडा हो या कि रोशन तिर्की। बुधन भुईहर बताते हैं कि उन्हें भी आज से 60 साल पहले ही भूदान की जमीन मिली थी। बाप-दादे जमाने से उसमें खेती करते आ रहे थे, लेकिन वन विभाग ने पिलर गाड़ कर उसे हथिया लिया। डीएफओ का कहना है कि नक्शा के आधार पर ही नापी हुआ है। हम अपनी नौकरी नहीं देंगे। नक्शा हमने नहीं बनाया है। यदि नक्शा गलत है तो इसकी जिम्मेवारी हमारी नहीं है। आप लोग नक्शा सुधारवा दीजिए, नया नक्शा बनवा दीजिए, हम उससे ही नापी करवा देंगे। 
अब सोचने की बात है कि क्या एक अदना गांव का आदमी सरकार द्वारा बनाये गए नक्शे को बदलवा देने की क्षमता रखता है? यह तो कभी संभव ही नहीं है। सरकार के पास पूरे जिले से सर्वे के दौरान हुई गड़बड़ी की सूचना दी गई है, लेकिन कार्रवाई शुन्य है। इसके साथ ही वनभूमि पर पट्टा के लिए बार-बार पिछले पांच साल से दावा पेश कर रहे हैं लेकिन कुछ नहीं हो रहा है। हर बार कुछ न कुछ बहाना बनाकर उसे अपने पास रख लिया जाता है। सभी लोगों के आवेदन में ग्राम सभा की अनुशंसा प्राप्त है, लेकिन वन विभाग के साथ ही दूसरे विभागों के अधिकारियों के रवैये से अभी तक किसी को भी पट्टा निर्गत नहीं हुआ है।
इसक्रम में एक बात और सामने आई। गांव की बड़ी आबादी भुईहरों की है। कोई अपने को मुंडा भुईहर कहता है तो कोई सिर्फ भुईहर। इनकी संस्कृति, परम्परा, दर्शन, रहने-खाने से लेकर पूजा-पाठ तक के तरीके सभी आदिवासियों वाले हैं लेकिन इन्हें आदिवासी का दर्जा प्राप्त नहीं है। भुईहरों को पिछड़ी की श्रेणी में रखा गया है। चूंकि ये आदिवासी नहीं हैं, इसलिए इनके दावे को यह कह कर लंबित रख दिया जा रहा है कि आवेदन में लगाये गए कागजात से यह सिद्ध नहीं हो रहा है कि ये पिछले तीन पीढ़ी से इस जमीन पर खेती करते आ रहे हैं। इस तकनीकी कारणों की आड़ में सभी भुईंहर के दावे लंबित हैं। एक तो उन्हें वन विभाग वनभूमि का पट्टा नहीं ही दे रहा है, दूसरी ओर उनकी दूसरी किस्म की जमीन को भी नया सर्वे नक्शा के आड़ में अपने अधीन कर रहा है। इस तरह वे दोहरी मार झेल रहे हैं। जब इन्हें वनभूमि का पट्टा नहीं मिलना तय हो जा रहा है तब मानवीय कमजोरी के आधार पर ये नहीं चाह रहे कि आदवासियों को भी जमीन का पट्टा मिले। आपसी एकता के अभाव में एक-एक कर सभी लोगों से वन विभाग पिछले पचास साल से की जा रही भूदान की जमीन के साथ ही वन भूमि पर पट्टा के लिए किये गए दावे की अधीन आ रही जमीन को भी अपने अधीन कर पेड़ लगा रहा है। वन विभाग की इस कार्रवाई से हालांकि अदंर ही अंदर काफी आक्रोश है, लेकिन एकजुटता के अभाव में कुछ खास होता नहीं दिख रहा है। 
दुर्जन गांव की आबादी लगभग 1500 है। 200 घरों की इस बस्ती में उरांव के साथ ही भुईहर जाति के लोग निवास करते हैं। उरांव जनजातियों की आबादी अनुपातन भुईहरों से कम है। इसलिए ग्राम सभा के अध्यक्ष भी भुईहर जाति से ही हैं। अपने समाज को आदिवासी का दर्जा दिलाने के लिए लम्बे समय से लड़ रहे कैलाश भुईहर कहते हैं कि सरकार हमलोगों के साथ नाइंसाफी कर रही है। आदिवासी समाज से आने के बाद भी हम उनके लिए निर्धारित सुविधाओं से वंचित हैं। हमें गैर आदिवासी कह कर वनभूमि का पट्टा तो सरकार नहीं ही दे रही है, उल्टे भूदान में मिली जमीन को भी लुटने पर आमादा है। सर्वे के आड़ में सरकार हमारा सर्वनाश करने पर तुली हुई है। हम विधायक, पूर्व विधायक, अधिकारी सबसे अपनी गुहार लगा रहे हैं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है।
इस समस्या से सिर्फ बिराजपुर पंचायत के गांव ही ग्रसित नहीं हैं बल्कि पूरा गढ़वा जिला ही गलत सर्वे की पीड़ा भुगत रहा है। सचमुच कैलाश भुईहर की बातों में दम है। बिराजपुर पंचायत के अधीन पड़ने वाले बरवा गांव की भी यही कहानी है। यहां भी नया नक्शे के आधार पर पूर्व के पिलर से एक किलोमीटर आगे बढ़कर पिलर गाड़ दिया गया है। इसक्रम में ग्रामसभा के अध्यक्ष बाल गोविन्द राम का कहना है कि नये पिलर से कई घर उजड़ने के कगार पर हैं। खेतों में लगे हरे धान के साथ ही गांव के बीच से गुजरी सड़क भी नये पिलर के भीतर हो गया है। अब इसका भला कौन जवाब देगा कि जब पहले से ही वन विभाग की जमीन थी तो फिर बिना वन विभाग से अनुमति लिये सड़क, वह भी पक्की कैसे बन गई। इस गांव के भी सहदेव उरांव, अमर नाथ उरांव, अनिमा प्रकाश मिंज, सोहन उरांव, रामकेशर राम, मार्टिन पन्ना जैसे सैकड़ों की संख्या में लोग हैं, जिनकी जमीन इससे प्रभावित है। इस गांव तो पट्टा देने के नाम पर कर्मचारी ने एक-एक आदमी से चार-चार हजार रुपये तक ले चुका है। लेकिन पट्टा दूर की कौड़ी साबित हो रही है। उलटे यहां भी आगे बढ़रक पिलर गाड़ने के कारण भूदान में मिली जमीन भी वन विभाग हथिया ले रहा है। यह गांव भी कई टोले में बंटा है, लेकिन हर टोला इससे प्रभावित है। इसी तरह की समस्या से बलिगढ़ पंचायत के अधीन स्थित ग्राम बलिगढ़ के लोग भी परेशान हैं। यहां भी भूदान की जमीन नये नक्शे के कारण जा रही है। साथ ही वन विभाग की मनमानी के कारण वनभूमि पर पट्टा के दावे भी लंबित रखे गये हैं।
दोहरी मार झेल रहे रमकंडा प्रखंड के बरवा, दुर्जन, बलिगढ़, केवाल दादर, गोबरदहा सहित पूरे गढ़वा में वन विभाग के रवैये व नये नक्शे को बिना जांचे-समझे अंतिम रूप देने से आक्रोश है, कहीं आपसी टकराव की संभावना बलवती होती दिख रही है तो कहीं वन विभाग के रवैये से आजिज आकर लोग गोलबंद होते दिख रहे हैं।
 

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