5 जुलाई, 2009 को सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। वह रिपोर्ट जब से प्रकाश में आयी, तब से न केंद्र सरकार के राजनीतिक स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन हुआ और न राज्य सरकारों की प्रशासनिक सेहत में कोई खास तब्दीली आयी। हां, सिर्फ यह सूचना प्रसारित होती रही कि देश के कई सरकारी ‘प्रभु व महाप्रभु’ किसी अबूझ मानसिक बीमारी के शिकार हो गये हैं – ‘स्वाइन फ्लू’ जैसी बीमारी के। इसलिए उनकी बोलती लड़खड़ाते-लड़खड़ाते कुछ बंद-सी होने लगी है! लेकिन फ़िक्र की कोई बात नहीं, जल्द ही वे स्वस्थ होकर आंकड़ों के नये इम्पोर्टेड हथियारों के साथ आर्थिक मोर्चे पर डट जाएंगे।
[आप में से कई मित्र लॉकडाउन में घर बैठे चिंता-मग्न रहने का रिस्क उठाने योग्य सुरक्षा से लैस होंगे। कई मित्र ‘मकान को घर बनाने’ से जुड़ा वह ‘होमवर्क’ करने का अभ्यास कर रहे होंगे, जो सदियों से लम्बित रहा ; या फिर कई मित्र ‘वर्क एट होम’ में व्यस्त होकर घर को दफ्तर बनाने के उस नये ‘वायरस’ को पोसने में लग गये होंगे, जो भविष्य में शायद सस्टेनेबल ग्लोबल कल्चर के नाम से चर्चित होने वाला है। कई मित्रों के लिए घर आज भी ‘डेरा’ ही होगा और कई लोगों के लिए घर ‘स्टार होटल’ का पर्याय हो चुका होगा। ऐसे तमाम और अन्य अपरिचित मित्रों से भी मेरा निवेदन है कि वे, अगर चाहें तो, निजी शारीरिक-मानसिक ‘लॉकडाउंड’ व्यस्तताओं के बीच भी, घर बैठे सामूहिक सहभागिता के ‘एक्शन’ की ‘प्लानिंग’ कर यह काम (महंगाई की मापी) करने का ‘रिस्क’ उठा सकते हैं। इसमें नुकसान तो नहीं के बराबर है, और लाभ सौ फीसद आपकी सामूहिक सहभागिता के विज्ञान की भावनात्मक तकनीकी क्षमता के उपयोग पर निर्भर है। और, इतना तो तय है कि इस काम के ‘फलाफल’ से कोरोना वायरस से मुकाबला के बाद ज़िंदा रहनेवाली दुनिया को पहचानने में सबको बहुत मदद मिलेगी। घर बैठे हर दिन पूरी दुनिया का चक्कर लगाने में सक्षम मित्रों के समक्ष यह अनुमान प्रस्तुत करना ‘छोटी मुंह बड़ी बात’ जैसा होगा कि विश्व के कई समाजों में इस तरह के प्रयोग चल रहे होंगे। - हेमंत, 12 अप्रैल, 2020, रांची।]
जून 2008 में देश में मंहगाई का जबर्दस्त विस्फोट हुआ था। जीवनावश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगे थे। तबकी सरकार ने इसका पहला कारण यह बताया था कि विश्व वित्तीय मंदी के तूफान में फंस गया है। दूसरा कारण यह बताया कि विश्वस्तर पर खनिज तेलों के दाम बढ़ते जा रहे हैं।
उसी दौरान दो और आश्चर्यजनक हादसे पेश आये। पेट्रोल-डीजल के दाम फिसले। इसके बावजूद जीवनावश्यक वस्तुओं के दाम न घटे और न स्थिर हुए। और तो और, साल का अंत आते-आते देश में मुद्रास्फीति कम होने लगी, लेकिन महंगाई का ग्राफ चढ़ता ही रहा। जो स्वनामधन्य अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति के बढ़ते सूचकांक को महंगाई की दर बढ़ने का संकेतक कहते आ रहे थे, वही यह संभावना (आशंका नहीं!) दर्शाने लगे कि मुद्रास्फीति कम होने से मंहगाई और बढ़ेगी! खैर।
उस दौरान यानी जून 2008 से 2009 के बीच देश की आबादी पर क्या असर हुआ? इस सवाल पर सरकारी प्रभुओं-महाप्रभुओं की ओर से संसद से लेकर सड़क तक जो जवाब पसरा, उसको सूत्र-वाक्य में यूं कहा जा सकता है – “तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद देश विश्व में एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। देश विकास की नयी बुलंदियों को छूने-छूने को है। इसलिए छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे मिलकर नयी कहानी, हम हिंदुस्तानी, हम हिंदुस्तानी।“
तब, प्रभुओं-महाप्रभुओं के इस जवाब की जांच-पड़ताल के लिए, देश के विख्यात डाक्टरों, समाजशास्त्रियों व अर्थशास्त्रियों की एक टोली ने एक सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण का उद्देश्य था - देश की उस आबादी के स्वास्थ्य की जांच, जिसके बल की बुनियाद पर हमारा देश विश्व में महाशक्ति बनने के फाइनल स्टेज पर पहुंच गया है।
उन्होंने 6 भिन्न-भिन्न इलाकों के विभिन्न पेशों के 311 मेहनतकशों को चुना। 198 पुरुष और 113 औरतें। उनका पेशा था खेत मजूरी, कुलीगिरी, लकड़ी कटाई, दुकान में परचून तौलना, बोरे में माल भरना व ढुलाई करना, सफाई मजदूरी, घरेलू दाई का काम आदि।
सर्वेक्षण का कार्य 29 जून, 2008 को शुरू किया गया। एक महीने के होमवर्क के बाद सर्वेक्षण और अध्ययन-विश्लेषण के लगभग आठ महीनों तक टीम में शामिल 20 लोग व्यक्तिगत रूप से इन मेहनतकशों के दुखों का, आधेपेट जीने के लिए मजबूर करनेवाली परिस्थितियों का एक हिस्सा बने।
5 जुलाई, 2009 को सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। वह रिपोर्ट जब से प्रकाश में आयी, तब से न केंद्र सरकार के राजनीतिक स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन हुआ और न राज्य सरकारों की प्रशासनिक सेहत में कोई खास तब्दीली आयी। हां, सिर्फ यह सूचना प्रसारित होती रही कि देश के कई सरकारी ‘प्रभु व महाप्रभु’ किसी अबूझ मानसिक बीमारी के शिकार हो गये हैं – ‘स्वाइन फ्लू’ जैसी बीमारी के। इसलिए उनकी बोलती लड़खड़ाते-लड़खड़ाते कुछ बंद-सी होने लगी है! लेकिन फ़िक्र की कोई बात नहीं, जल्द ही वे स्वस्थ होकर आंकड़ों के नये इम्पोर्टेड हथियारों के साथ आर्थिक मोर्चे पर डट जाएंगे।
इधर प्रकाशित सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक़ जून 2008 के पूर्व और बाद के महीनों में भी प्रत्येक मेहनतकश की औसत आय 3842 रुपये प्रति महीना थी। पांच सदस्यों के औसत परिवार (दो वयस्क और 3 बच्चे) में अन्य लोग भी कुछ न कुछ मेहनत करते थे। सो प्रत्येक घर में प्रति महीने औसतन 1940 रुपया ‘अतिरिक्त’ (एक्स्ट्रा) आता था। इसलिए परिवार की औसत आय 5782 रुपये प्रति माह थी।
परिवार की इस पूरी आय को 5 सदस्यों में बांटा गया तो दिखा कि घर में प्रति व्यक्ति की औसत आय 1165 रुपये थी। यानी महीना वार औसत आय के मद्देनजर ये मेहनतकश और उनके परिवार महंगाई के पूर्व और बाद में भी सरकार द्वारा निर्धारित ‘गरीबी रेखा’ के नीचे नहीं, बल्कि ऊपर खड़े थे।
जून 2008 के पूर्व ये मेहनतकश अपने परिवार के लिए जरूरी ‘भोजन’ की खरीद में प्रति माह औसतन 2870 रुपये खर्च कर रहे थे। यानी सरकारी गणना के अनुसार इतने रुपये में ये लोग परिवार में औसतन 2250 कैलोरीज प्रति दिन प्रति व्यक्ति ऊर्जा पाने लायक खाने-पीने के समान खरीद लाते थे। बाद के आठ महीनों में इन मेहनतकशों की कमाई बढ़ने की बजाय कुछ घटने का ट्रेंड दिखाने लगी, लेकिन वे भोजन पर उतना ही खर्च करते दिखे।
सर्वेक्षण की तालिका तैयार करने पर मालूम हुआ कि इन मेहनतकशों के घर में जून, 2008 के पूर्व हर महीने औसतन 39 किलोग्राम मोटा अनाज/दाल आता था और अब उतने ही रुपये से सिर्फ 35 कि.ग्राम आया।
पहले हर महीने 5 कि.ग्रा तेल/घी आता था, अब 4 किलो आया। सब्जी 14 कि.ग्राम के बदले 12 किलो, तो दूध 19 लीटर के बदले सिर्फ 15 किलो। 5 सदस्यों के औसत परिवार में पहले 30 दिन में सिर्फ 9 अंडे आते थे और करीब 2.355 किलोग्राम मांस-मछली। बाद में इतनी कम मात्रा में और कमी आयी। महीने में उतने ही रुपये खर्च करने पर घर में औसतन आने लगा - एक अंडा कम और करीब 500 ग्राम कम मांस-मछली।
मेहनतकशों में कई परिवारों ने हर महीने अंडा-मांस-मछली खाने के ‘शौक’ से मुंह फेर लिया! सो सर्वेक्षणकर्ताओं को फल और सलाद के बारे में कुछ ज्यादा माथापच्ची करनी पड़ी! लेकिन बहुत ज्यादा नहीं, रात के बचे बासी भात में पानी मिलाकर खाने के लिए पड़ोसी से चुटकी भर नमक मांग लाने में जितना ‘टाइम’ लगता हैं, बस उतना ही लगा। क्योंकि उन्होंने शुरू में ही पता कर लिया कि 311 परिवारों में से सिर्फ 83 परिवार महीने में दो-चार दिन फल खरीदकर चख लेते थे और सिर्फ 50 परिवार ही कभी-कभार सलाद खाने का साहस करते थे। बाद के महीनों में उन परिवारों को मौसमी फल-सलाद की ओर ताकना भी गुनाह लगने लगा।
इन आंकड़ों-तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट में कहा गया – “मेहनतकशों के ये परिवार महीने की औसत आय का 50 प्रतिशत खाने पर खर्च करते हैं। जून 2008 के पहले भी इतना ही खर्च करते थे। लेकिन अब उतने ही रुपये से खरीदे जाने वाले भोजन की मात्रा घट गयी है। ये मेहनतकश अपने भोजन से पहले भी रोजाना औसतन 2250 कैलोरीज की ऊष्मा (ऊर्जा) पाते थे या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन महंगाई बढ़ने के बाद का सच यह है कि इनके आहार का रोजाना कैलोरीज यानी ‘ऊष्मांक’ सिर्फ 1138 कैलोरीज प्रति व्यक्ति रह गया है। यानी सिर्फ 50 प्रतिशत!
यानी जो मेहनतकश सरकार की आय संबंधी परिभाषानुसार गरीबी रेखा के ऊपर थे, वे कैलोरीज पर आधारित परिभाषानुसार गरीबी रेखा के नीचे लटकने लगे!
आय व रोजाना आहार के कैलोरीज के संदर्भ में औरतों की स्थिति और भी भयानक है। उनकी औसत आय 1795.5 रुपये प्रति माह है, जबकि उनके आहार में उपलब्ध औसतन कैलोरीज सिर्फ 712 रोजना है!
सर्वे का खास पहलू यह रहा कि इसमें स्वास्थ्य के सर्वमान्य निकषों को ‘महंगाई की मापी’ का आधार बनाया गया! मेहनतकशों के वजन (कि.ग्रा.), ऊंचाई (से.मी.), बॉडी मास इंडेक्स (कि.ग्रा./मी2), रक्तचाप आदि की जांच-पड़ताल कर उनका औसत निकाला गया। हरेक मेहनतकश के रोजाना के आहार में समाविष्ट पदार्थों के आधार पर उनका उष्मांक (कैलोरीज) सेवन अलग से निकाल कर कई स्तरों पर औसत निकाले गये। जैसे “न्यूनतम 22 साल और अधितमम 70 साल की उम्र के आधार पर मेहनतकशों की औसत उम्र 40 साल और औसत ऊंचाई 159 से.मी. पाई गयी। औसत ऊंचाई के अनुरूप औसत आदर्श वजन 59 किलोग्राम होना चाहिए। मंहगाई के बाद के महीनों में प्रति व्यक्ति का औसत वास्तविक वजन 54 किलोग्राम पाया गया।
चिकित्साशास्त्र के अनुसार नार्मल बॉडी मास इंडेक्स (बी.एम.आई) 22 कि.ग्राम/वर्ग मीटर होना चाहिए। अगर यह इंडेक्स 18.5 से कम हो तो उस व्यक्ति को कुपोषण का शिकार माना जाता है। सर्वे में 311 में से 74 व्यक्तियों का बी.एम.आई 18.5 से कम पाया गया। यानी 24 प्रतिशत व्यक्ति कुपोषण के शिकार होकर भी जिये जा रहे थे। औरतों में तो करीब 47 प्रतिशत कुपोषण में जी रही थीं।
आम तौर पर किसी का रक्तचाप 120/80 मि.मी. हो, तो उसे नॉर्मल माना जाता है। और, हाई ब्लड प्रेशर का अर्थ है 140/90 मि.मी. या उससे ज्यादा। लेकिन मेहनतकशों में औसत रक्तचाप पाया गया 131/86 मि.मी. यानी नॉर्मल से ज्यादा। 98 व्यक्ति यानी 33 प्रतिशत लोग तो ‘हाई ब्लड प्रेशर’ से पीड़ित पाये गये। इनमें से कुछ का अधिकतम रक्तचाप 200/110 मि.मी. पाया गया! मेहनतकशों के लिए ‘हाई ब्लड प्रेशर’ का माने हुआ ‘हाई रिस्क फैक्टर’ जो कठोर श्रम, आर्थिक तनाव और घटिया आहार का भयानक परिणाम था!
रिपोर्ट में महंगाई के मद्देनजर गरीबी-रेखा की परिभाषा बदलने की मांग करते हुए कहा गया कि “अगर व्यापक सर्वे-अध्ययन के आधार पर गरीबी रेखा की नयी परिभाषा तैयार की जाए, तो मालूम पड़ेगा कि भारत की 80 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। क्या इस आबादी की इसी ताकत के सहारे भारत विश्व की महाशक्ति बनने का दावा कर रहा है?”
[पाठक बंधुओ, आज भी महंगाई बेकाबू है। आपमें से कई लोग यह दावा करनेवाले तो अवश्य होंगे कि अब 2008 जैसी स्थिति नहीं है – ‘अच्छे दिन’ आने लगे हैं। लेकिन आप में कई ऐसे लोग भी होंगे, जो ‘हाई ब्लड प्रेशर’ के नये मरीजों की कतार में लगे हों। या आपमें ऐसे संवेदनशील मित्र-गण जरूर होंगे, जो पास-पड़ोस में ऐसे लोगों को देखकर देश-समाज के प्रभुओं को गलियाते होंगे, ताकि अपने ‘रक्तचाप’ पर काबू रख सकें। आप सबसे एक ही सवाल है कि क्या ‘हाई ब्लड प्रेशर’ को आप महंगाईजनित ‘हाई रिस्क फैक्टर’ के रूप में पहचानना चाहेंगे? अगर आपके जवाब में तनिक भी ‘हां’ की गुंजाइश हो, तो आप बाकी समाधान के लिए महाराष्ट्र के समाजवादी नेता डॉ. बाबा आढाव और डॉ. अभिजीत वैद्य अथवा उनसे परिचित मित्र या स्वयंसेवी संस्थाओं से सम्पर्क-संवाद करने का कष्ट करें। पुणे में शायद ही कोई ऐसा ‘आम आदमी’ होगा, जो उनसे परिचित न हो। उन्होंने ही उपरोक्त सर्वेक्षण का आगाज किया और अंजाम तक पहुंचाया।]