(एक पुनर्यात्रा) : 2019, अक्तूबर 2, रांची।गांधी अगर सशरीर जीवित होते, तो आज 150 साल के होते। लेकिन आज 79 वर्ष के पार्थिव गांधी को जानना जितना सरल है, उससे कई गुना मुश्किल है 150 साल के अशरीरी गांधी संबंधी जानकारियों तक पहुँचना या/और उन्हें यथातथ्य हासिल करना। उपलब्ध जानकारियों में से कुछ हासिल हो जाए, तो उसके सहारे गाँधी को ‘समझना’ ‘आसान’ है, लेकिन उससे हजार गुना कठिन हो गया है गांधी को ‘बरतना’ – व्यक्तिगत जीवन में भी और सार्वजानिक जीवन में भी।
हम 10-15 मित्र 2015 से 2019 के बीच गांधी को तलाशने, जानने-समझने के लिए चंपारण-यात्रा में साथ थे। चार बार हम करीब 15-15 दिन ‘गांधी रूट’ पर निकले। रास्ते में कुछ और साथी जुड़े, कुछ दिन साथ रहे, साथ चले और लौटे। इस बीच पंकज जी और 19 दलित भूमिहीन साथी तीन महीने जेल हो आये!
हम इस सामान्य समझ के साथ चंपारण में ‘गांधी रूट’ पर निकले थे कि हम चंपारण में उस गांधी को खोजने और पहचानने का प्रयास करेंगे, जो सौ साल पहले यहाँ आया था। लेकिन जल्द ही हमें लगने लगा कि हम सबके अपने-अपने ‘फ्रेम’ हैं, जिसमें गांधी की कोई न कोई ‘छवि’ अंकित है। हम चौखटे में बंधे अपने-अपने गांधी को चंपारण में तलाश रहे हैं। कहीं गांधी जैसा कुछ नजर आया, तो उसे पहचानने का हमारा तरीका यह रहा कि उसे अपने फ्रेम में और फ्रेम में बंधे गांधी के कद में ‘फिट’ करने की कोशिश की! जितना फिट हुआ, उतना ‘असली’ गांधी, और बाकी हमारे लिए ‘अजनबी-सा’ या विरोधी गांधी – सार्वकालिक दुश्मन जैसा!
अपने फ्रेम में फिट कर गांधी को पहचानने की यह कोशिश पाँव के अनुसार जूता तैयार करने के बदले जूते के अनुसार पाँव को काटने-छांटने जैसी क्रिया तो नहीं है? हम साथियों में यह संदेहात्मक समझ तब उभरी, जब स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों और गाँवों के आम लोगों के बीच प्रस्तुत गाँधी से जुड़े कुछ तथ्यों और घटनाओं की प्रामाणिकता का सवाल उठा।
यात्रा के दौरान जगह—जगह हमें कई सवालों का सामना करना पड़ा। यूं हमने उनका जवाब गांधी के प्रति अपनी-अपनी समझ की सीमाओं में दिया। लेकिन चंपारण के विभिन्न स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों और गांव की आम जनता पर इसका क्या असर हुआ? उनकी पूर्वाग्रहग्रस्त जिज्ञासा, मानसिक बेचैनी, या वैचारिक उत्तेजना कितनी शांत हुई? या उनके लिए आज गांधी कितने प्रासंगिक रह गए? या इस पर सोचने को वे कितने प्रेरित हुए? हमें यह ठीक-ठीक नहीं मालूम हो सका। अलबत्ता, हममें से अधिसंख्य साथी किंचित ‘असंतुष्ट’ होकर लौटे। यह एहसास तो बेहद तीखा रहा कि जनता के आज के सवाल और समस्याओं के प्रति हमारी समझ जितनी कम और अस्पष्ट है, उससे कहीं अधिक है ‘गांधी के जवाब’ के बारे में आमो-ख़ास की अज्ञानता और उस पर अभिमान भी, जो दंभ के पर्याय के सिवा कुछ नहीं।
अपनी यात्रा के पहले कदम पर ही हमें यह महसूस होने लगा कि पटना-बेतिया जैसे शहरों की बात अलग है, चम्पारण के गांवों में भी, बूढ़ों से लेकर जवानों तक में, आम तौर पर गांधी के बारे में एक जैसी राय है। उसराय का प्रकट अर्थ यह है कि गांधी चम्पारण के गरीब ग्रामीणों में इस कदर घुल-मिल गये कि उन्हें ये लोग अब खुद पहचान नहीं पा रहे। लगता है, यह एक सार्वकालिक सच जैसा है कि कोई इंसान अपने आपको खुद नहीं पहचान पाता!
सौ साल पहले के गाँधी से जुड़े सही ‘तथ्य’ क्या थे और उनका वह ‘सत्य’ क्या था जो आज भी ज़िंदा है? यात्रा में हमलोगों को कई बार महसूस हुआ कि इसके लिए ज्यादातर लोग ‘इतिहास’ में झांकना ही नहीं चाहते। वे तो ऐसी किसी कोशिश को भी बेमानी मानते हैं। गाँधी के बारे में हर एक की अपनी-अपनी व्याख्या है। व्याख्या का फ्रेम भी, जो ठोस या कहें इतना कड़ा है कि उसमें लचीलेपन की गुंजाइश नहीं बची। अलग-अलग ‘फ्रेमों’ में जकड़े गांधी की छवियों में ‘सत्य’ का कोई अन्तःसूत्र है या हो सकता है, इसे जानने-परखने की जिज्ञासा तक लोगों में नहीं है - ‘आग्रह’ की बात दूर रही।
हमने कुछ ‘दस्तावेजी’ सामग्री तैयार की । उसकी कुछ प्रतियां चम्पारण में बांटी भी। उसे कितने लोगों ने पढ़ा, पता नहीं। हमारे प्रयासों में निहित खामियों-कमजोरियों और सही-गलत के मूल्यांकन को लेकर चम्पारण के बौद्धिक समाज में भी ऐसा कोई विमर्श नहीं हुआ, जो उस दस्तावेजी सामग्री की उपयोगिता या असर का पता दे।
यह कार्य, जो संगठन या समूह के स्तर पर संभव था, न सरकार ने किया और न किसी सरकारी संस्था-संस्थान ने। सब की निजी व्यस्तता और स्पष्ट ना कहने के साहस का अभाव, और इस तरह के कार्य के प्रति उनकी उदासीनता/उपेक्षा, देख-सुन कर हमें लगा कि देश-समाज की वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक स्थिति-परिस्थिति के मद्देनजर उनके लिए यह कार्य नितांत निरर्थक और ‘अलाभप्रद’ है! उनके लिए यह कार्य ‘अनावश्यक’ था, ख़ास कर ‘चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष’ के सिलसिले में सभा-जुलूस, नृत्य-संगीत, चित्रकला-गायन-वादन प्रतियोगिता, प्रदर्शनी, उद्घाटन-विमोचन, आदि प्रदर्श-कला से जुड़े भव्य ‘आयोजनों’ के मुकाबले यह कार्य ‘अनावश्यक’ था।
2018 की 'चंपारण-सत्याग्रह संवाद-यात्रा'और उसके बाद भितिहरवा (पश्चिम चम्पारण) से पटना लॉन्ग मार्च के दौरान हमें लगा कि कई मामलों में गाँधी के बारे में सब दुविधाग्रस्त हैं। कई सवाल ऐसे हैं, जिनके समाधान की तलाश में गाँधी ने क्या और कैसे प्रयोग किये या उनके बारे में क्या कहा, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है। रास्ते में सामान्य सन्दर्भ में भी हमने यह शिद्दत से महसूस किया कि आज गांधी की ‘प्रतिमा’ की पूजा करनेवाले या उसे पीटनेवाले लोग, जमात और पार्टी-संगठन - चाहते या न चाहते हुए भी - अपने हर सवाल या समस्या या संकट के वक्त गांधी को अपना ‘मुकुट’ या ‘मुखौटा’ बनाते हैं। लेकिन किसी न किसी दुविधा, द्वंद्व, उलझन, परेशानी या कठिनाई में फंसे हैं।
हर यात्रा से लौट कर हम मित्रों ने कई सवाल सीधे गांधी के सामने रखे, जो आज भी प्रासंगिक लेकिन अनुत्तरित हैं। यानी इसके लिए हमने दिल्ली-कलकत्ता और मुंबई की यात्रा की ; उन सवालों के जवाब हमने गाँधी के लिखे या गाँधी पर लिखे ग्रन्थों में खोजने का प्रयास किया। गांधी को जानने-समझने का दावा करनेवाले कई विशेषज्ञ मित्रों से मुलाक़ात की, खूब बहस की। उनके जवाबों की ‘प्रामाणिकता’ और ‘सत्यापन’ के लिए ‘इतिहास’ को खंगालने, और संबद्ध तथ्यों, घटनाओं, स्रोत-सन्दर्भ, तारीखों से जुडी तवारीख आदि के संकलन-संग्रहण की कोशिश की। इसी कोशिश का एक छोटा-सा प्रमाण है –"चंपारण का गांधी : गांधी का चंपारण (एक पुनर्यात्रा)"। इसके ही दो अध्याय हैं - 'हम कहाँ-कहाँ से गुजर गये!' और 'गांधी से मुलाक़ात'। यहां दोनों अध्यायों के कुछ-कुछ अंश दिए जा रहे हैं।
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