“गांधीजी के आदर्श तथा उनके मुताबिक आचरण के बल पर हिंदोस्तान अपनी आज की स्थिति प्राप्त कर सका है। परन्तु हम जिस सीढ़ी की मदद से इतना ऊंचे चढ़ सके, उसे ही लात मार रहे हैं। क्या कांग्रेस के नेताओं ने गांधीजी को जिंदा ही दफना नहीं दिया?”
प्रश्न : आप कब तक जीते रहने की आशा करते हैं?
गांधी : अनंत काल तक।
प्रश्न :क्या आप अमरत्व में विश्वास करते हैं ?
गांधी : हां, आत्मा का पुनर्जन्म और शरीर-परिवर्तन हिंदू धर्म के दो मूलभूत सिद्धांत हैं।
प्रश्न : यदि सब लोग आपके अनुसार सादा जीवन, उपवास और साधना आदि को अपनालें, तो क्या आप सोचते हैं कि वे शतायु होंगे?
गांधी : जी हां, पर इसका निर्णय मेरे मरने पर अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है।
प्रश्न : आपअपनी मूर्ति या स्मारक खड़ा करने के समर्थक हैं या विरोधी ?
गांधी :विरोधी, क्योंकि मनुष्य का सर्वोतम स्मारक पत्थर की कोई इमारत नहीं, वरन्उसकेजीवंत कार्य ही उसका स्मारक हैं। यह स्मारक उन लोगों के मन में हमेशा बना रहता हैजिनकी उसने सेवा की है। धन का उपयोग गरीबों के उत्थान-कार्य में किया जानाचाहिए न कि जिस व्यक्ति ने सेवा की है, उसे संगमरमर की मूर्तिबनाकर अमरत्व प्रदान करने और गौरव देने में।
प्रश्न : कौन-सी सरकार आपके आदर्श सरकार के विचार के सबसे नजदीक बैठती है?
गांधी : कोई भी नहीं। आदर्श सरकार ऐसी होनी चाहिए जिसमें आदमी जीवन के प्रत्येक पहलू में अपने उच्चतम शिखर तक पहुंचे और जिसमें उसके हितों को अन्य सब बातों सेमहत्वपूर्ण माना जाये।
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गांधी से मुलाक़ात –(2)
प्रश्न : आपने अपना अंतिम जन्म दिवस कब मनाया? आपको याद है? आपने उसे कैसे मनाया, उसके बारे में कुछ बताएंगे?
गांधी : अक्तूबर, 1947 की 2 तारीख मेरे पार्थिव जीवनकाल मेंमनाया जाने वाला अंतिम जन्म-दिवस था। मैंने अपना जन्म-दिन हमेशा की तरह उपवास, प्रार्थना और विशेष कताई करके मनाया। उपवास आत्म-शुद्धि के लिए और कताई द्वारा मैंने ईश्वरीय सृष्टि के सबसे दीन-हीन लोगों की सेवा में जीवन अर्पण करने के अपने प्रण को दोहराया। चरखा अहिंसा का द्योतक था। वह प्रतीक समाप्त-सा हो गया था। मगर इस आशा से कि शायद चरखे के संदेश के प्रति निष्ठावान कुछ थोड़े से लोग जहां-जहां हो सकते हैं, मैंने यह आयोजन बंद नहीं किया था।
सुबह साढ़े आठ बजे स्नान के बाद जब मैं अपने कमरे में प्रविष्ट हुआ। और शुरू में ही एक मजेदार बात हो गयी। कई लोग मेरा अभिवादन करने आ गये। उनमें से एक ने कहा – “बापूजी, हम अपने जन्म दिन पर अन्य लोगों से चरण छूकर आशीर्वाद ग्रहण करते हैं, लेकिन आपके मामले में बात इसके बिल्कुल विपरीत होती है। क्या यह उचित है?”
मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं खुलकर हंसते हुए बोला – “महात्माओं के तरीके भिन्न होते हैं। इसमें मेरा कोई दोष नहीं। आपने मुझे महात्मा बना दिया, हालांकि बोगस महात्मा, इसलिए आप लोगों को सजा तो भुगतनी पड़ेगी।”
कुछ अतरंग साथी प्रतीक्षा कर रहे थे - पंडित नेहरू, सरदार पटेल, घनश्यामदास बिड़ला और बिड़ला परिवार के समस्त सदस्यगण शामिल थे। मीरा बहन ने मेरे बैठने के लिए बिछे आसन के सामने रंग-बिरंगे फूलों से कलापूर्ण ‘क्रॉस’, ‘हे राम’ और ‘ऊं’ लिखकर खूबसूरती से सजाया था। एक संक्षिप्त प्रार्थना हुई, जिसमें सबने भाग लिया। उसके बाद मेरी एक प्रिय अंग्रेजी भजन ‘WhenI survey the wondrous Cross” गाया गया। साथ ही एक और प्रिय हिदी भजन ‘हे गोविंद राखो शरण’ का भी गायन हुआ।
सारे दिन अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिए आगंतुकों एवं मित्रों का तांता लगा रहा। राजदूतावासों के प्रतिनिधिगण भी आये, उनमें से कुछ अपनी सरकार की ओर से मेरे लिए शुभकामना-संदेश लेकर आये। अंत में लेडी माउंटबैटन अपने साथ पत्रों और तारों का पुलिंदा लेकर आईं।
मैंने सब लोगों से अनुरोध किया : आप इस बात की प्रार्थना करें कि ईश्वर या तो देश में जारी अग्निदाह (conflagration)को शांत कर दे अथवा मुझे उठा ले। मैं कतई नहीं चाहता कि आग से जलते भारत में मेरी दूसरी वर्षगांठ आये।”
मैं सरदार से बोला : “मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि जो ईश्वर ने मुझे इस सारे संत्रास का साक्षी बनने के लिए जीवित छोड़ रखा है?”
मुलाकाती लौटने लगे तभी मुझे खांसी का एक और दौरा आया। मैं बूढ़ा ठहरा, मन ही मन बोलने लगा - बड़बड़ाने लगा – “यदि प्रभुनाम मेरे लिए सब रोगों की रामबाण दवा सिद्ध नहीं होता, तो मैं इस शरीर को छोड़ देना अधिक पसंद करूंगा। एक भाई द्वारा दूसरे भाई की हत्या का इस सतत जारी सिलसिला के कारण सवा सौ वर्ष जीने की मेरी इच्छा बिल्कुल नहीं रह गयी है। मैं इन हत्याओं का असहाय साक्षी बनकर नहीं रहना चाहता...।”
तभी किसी ने बीच में कहा - “तो आप सवा सौ वर्ष से शून्य पर उतर आये?
“हां, अगर यह दावानल शांत नहीं हो...।”
उस दिन आकाशवाणी पर मेरा जन्म दिन मनाने के लिए एक विशेष कार्यक्रम प्रसारित करने का आयोजन किया गया था। मुझसे पूछा गया – “क्या आप अपवाद-स्वरूप सिर्फ एक बार रेडियो का विशेष कार्यक्रम नहीं सुनेंगे?”
मैंने कहा – “नहीं, मुझे रेडियो के बजाय रेंटियो (गुजराती में चरखे को रेंटियो कहते हैं) ज्यादा पसंद है। चरखे की गूंज मुझे अधिक मीठी लगती है। उसमें मुझे मानवता का शांत और करुणापूर्ण संगीत सुनाई देता है।”
मैंने ने विश्व के सभी भागों से मेरे जन्मदिन पर आये बधाई संदेशों, तारोंऔर पत्रों को प्रकाशनार्थ जारी करने से इनकार कर दिया। मुसलमान मित्रों से और पाकिस्तान से भी मुझे अनेक आकर्षक संदेश प्राप्त हुए, लेकिन मैंने महसूस किया कि जब आम जनतामें सत्य और अहिंसा के प्रति, कम-से-कम फिलहाल, अविश्वास नजर आता है तो यहवक्त इन पत्रों को प्रकाशित करने का नहीं है।
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गांधी से मुलाक़ात –(3)
प्रश्न : हमने पढ़ा-सुना कि आप 125 वर्ष का ‘एक्टिव’ जीवन जीना चाहते थे और वह भी इस दावे के साथ कि आप इसे संभव कर दिखाएंगे।
गांधी : हां, यह बात सही है। लेकिन उसी दौरान एक और वाकया हुआ।उस समय देश आजाद हो रहा था। मैं कलकत्ता-नोआखाली-पटना-बिहार और दिल्ल्री के बीच भटक रहा था।एक पत्रकार ने लिखा – “गांधीजी के आदर्श तथा उनके मुताबिक आचरण के बल पर हिंदोस्तान अपनी आज की स्थिति प्राप्त कर सका है। परन्तु हम जिस सीढ़ी की मदद से इतना ऊंचे चढ़ सके, उसे ही लात मार रहे हैं। क्या कांग्रेस के नेताओं ने गांधीजी को जिंदा ही दफना नहीं दिया?”
तब मैंने तत्काल एक लेख लिखा - “जिंदा दफनाया?” उसमें मैंने कहा – “अभी मुझे जिंदा दफनाया नहीं है। सामान्य जनता ने मेरे आदर्शों में से श्रद्धा नहीं गंवाई है ;उस मान्यता पर मैं यह आशा कर रहा हूं। जनता ने श्रद्धा गंवा दी, ऐसा साबित होगा तब वह भारी संकट में आ जावेगी और तब मुझे जिंदा दफनाया गया है, ऐसा कहा जावेगा। परन्तु मेरी श्रद्धा की ज्योति तब तक जैसी की तैसी चमकती रहेगी। मुझे आशा है कि मैं अकेला रह जाऊं तो भी वह चमकती ही रहेगी - तब तक कब्र में पड़े हुए भी मैं जिंदा रहूंगा और विशेष तो यह कि मैं बोलता रहूंगा। मैं मरने के बाद भी अपनी श्रद्धा की घोषणा करता रहूंगा और कब्र से भी अपनी बात सुनाता रहूंगा।”
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गांधी से मुलाक़ात –(4)
प्रश्न - आप ईश्वर किसको कहते हैं? वे क्या कोई अध्यात्मिक व्यक्ति हैं अथवा कोई शक्ति हैं, जो संसार कापरिचालन करते हैं?
गांधी - ईश्वर व्यक्ति नहीं हैं। वे ऐसी एकमात्र रीति हैं, जो अपरिवर्तनीय है। यहां रीति और रीतिकार दोनों एक ही हैं। रीति कहने से हम लोग आम तौर पर किताबों में लिखी रीति समझते हैं,लेकिन यहां मैं जिस रीति की बात कह रहा हूं, वह जीवित रीति है। और वही ईश्वर है। इस रीति में परिवर्तन नहीं होता, यह शाश्वत है। ईश्वर इस तरह के कोई व्यक्ति नहीं हैं, जो स्थिति देखकर अपने को बदल लें। वे एक शाश्वत रीति हैं।
हिंदू शास्त्रों में ईश्वर के हजारों नाम मिलते हैं, यह बात मैंने अपने यौवन के आरंभ में सीखी थी। लेकिन उनके वे हजारों नाम भी यथेष्ट नहीं हैं। मेरा विश्वास है, जितने प्राणी हैं, ईश्वर के उतने ही नाम हैं - इसीसे हम कहते हैं, उनका नाम नहीं है और चूंकि ईश्वर के रूप भी अनंत हैं, इसलिए हम उनको आकारहीन समझते हैं और चूंकि वे अनेक भाषाओं में हमसे बातें करते हैं, इसलिए हम उन्हें वाणीहीन समझते हैं। जब मैंने इस्लाम धर्म का अध्ययन आरंभ किया, देखा कि वहां भी ईश्वर के अनेक नाम हैं। जो लोग कहते हैं, ईश्वर प्रेम हैं, उनमें से मैं कहूंगा, हां, ईश्वर ही प्रेम हैं, गोकि भीतर-ही-भीतर मेरा विश्वास है कि ईश्वर शायद प्रेम हो सकते हैं, लेकिन सबके ऊपर वे सत्य हैं। मनुष्य की भाषा में यदि उनकी पूर्णतम व्याख्या संभव हो तो मैं कहूंगा, मेरी राय में वे सत्य हैं।
प्रश्न : यानी आपके विचार से ईश्वर सत्य है। लेकिन हममें से कई लोग नास्तिक हैं...। वे ईश्वर को नहीं मानते। वे नास्तिक के रूप में अपना परिचय देना पसंद करते हैं..।
गांधी : लेकिन वे नास्तिक मित्र भी सत्य की शक्ति और प्रयोजनीयता के बारे में संदेह तो नहीं करते हैं न? सत्य की तलाश के नशे में वे ईश्वर के अस्तित्व को बे-हिचक अस्वीकार करते हैं। उनके दृष्टिकोण से विचार करने पर उनको ठीक ही कहना पड़ता है। इसी कारण मैं कहता हूं कि ‘ईश्वर सत्य है’ कहने की अपेक्षा ‘सत्य ही ईश्वर है’ कहना अधिक समीचीन है। वैसे, 'सत्य ही ईश्वर है' - इस निश्चय पर पहुंचने के पहले मैं पचास वर्षों तक लगातार सत्य का परीक्षण-निरीक्षण करता रहा और अंत में मैंने जाना कि केवल प्रेम के माध्यम से ही सत्य के अधिक-से-अधिक पास पहुंचा जा सकता है। लेकिन अंग्रेजी भाषा में प्रेम के अनेक अर्थ हैं और मनुष्य का प्रेम कहने पर जब लालसा का भी बोध होता है तो वह एक अत्यंत निंदित वस्तु हो जा सकता है। मैंने यह भी जाना कि अहिंसा के अर्थ में यदि प्रेम को चलाया जाय तो दुनिया में बहुत कम लोग उसको समझने को तैयार होंगे। लेकिन सत्य शब्द के लिए मुझे एक के सिवा दूसरा अर्थ कभी नहीं मिला।
प्रश्न :हमारे मित्र, जो 'नास्तिक' हैं, कहते हैं कि ईश्वर के नाम पर दुनिया में बहुतेरे लोगों ने अकथनीय अन्याय किया है। और 'सत्य' के नाम पर भी ज्ञानी-गुणी लोग तरह-तरह की निष्ठुरताओं में प्रवृत्त हुए...।
गांधी : बेशक। मैं तो स्वयं जानता हूं, विज्ञान और सत्य के नाम पर पशुओं पर कैसा अमानुषिक अत्याचार किया जाता है - जीवित अवस्था में उनका एक-एक अंग काटा जाता है। लिहाजा चाहे जिस तरह ईश्वर का वर्णन किया जाये रास्ते में कोई-न-कोई विघ्न रहेगा ही। लेकिन मनुष्य का मन सीमित हैं और जब वह किसी ऐसी सत्ता अथवा विराट् को समझना चाहता है, जो उसकी समस्त बुद्धि-शक्ति से नितांत परे है, तो उसे अपनी सीमा में ही हाथ-पैर मारना होता है। इसी से हिंदू-दर्शन कहता है - ‘एकमात्र ईश्वर ही है और कुछ नहीं है। इस्लाम के ‘कलमा’ में भी इसी सत्य पर जोर दिया गया है - इसके कितने ही दृष्टांत वहां हैं। संस्कृत में ‘सत्य’ शब्द का आक्षरिक अर्थ है, जिसका अस्तित्व हो - ‘सत’। इसी कारण - और अन्य कारणों से भी - अंत में मैंने निश्चय किया कि ईश्वर की जो संज्ञा मेरे लिए सबसे अधिक संतोषजनक है, वह है ‘सत्य ही ईश्वर है’। और सत्य को जब आप ईश्वर के रूप में जानना चाहते हैं, जिसे एकमात्र अव्यर्थ माध्यम से आप वैसा कर सकते हैं, वह प्रेम अर्थात् अहिंसा, और चूंकि अंततः मैं लक्ष्य और मार्ग की अभिन्नता का विश्वासी हूं, मुझे यह कहने में दुविधा नहीं है कि ईश्वर ही प्रेम है।
प्रश्न - तब सत्य क्या है?
गांधी - सवाल मुश्किल है। लेकिन अपने लिए मैंने यह कहकर इसका समाधान कर लिया है कि हमारे हृदय की आवाज जो कहे, वही सत्य है। बेशक, यहां आप लोग यह कह सकते हैं कि वह क्या है, क्या वह जो जैसा सोचे, उसी तरह भिन्न-भिन्न और परस्पर-विरोधी है? लेकिन देखिए, मनुष्य के मन का कारबार असंख्य माध्यमों से होता है, और एक व्यक्ति के मन की गति, दूसरे व्यक्ति के मन की गति की तरह नहीं होगी। इसका मतलब यह हुआ कि एक व्यक्ति के लिए जो सत्य है, वह दूसरे व्यक्ति के लिए असत्य है। जिन लोगों ने ऐसी परीक्षाएं चलाई हैं, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि परीक्षा की प्रकृति के अनुसार कुछ विशेष नियमों को मानकर चलना चाहिए। जैसे, कोई वैज्ञानिक परीक्षा करने के पहले कुछ अनिवार्य वैज्ञानिक शिक्षा-प्रणालियों से होकर गुजरना ही पड़ता है, उसी तरह जो किसी प्रकार की आध्यात्मिक अभिज्ञता चाहता है, उसको भी कुछ प्राथमिक कठोर श्रृंखलाओं का अवलंबन करना पड़ता है। इसी से अपना-अपना हृदय क्या कहता है, इसके बारे में मुंह खोलने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को जान लेना होगा कि उसकी सीमा कितनी है। हम लोगों का एक विश्वास है, जो अनुभव पर आधृत है और जिसका कहना है कि यदि कोई अपने व्यक्तिगत जीवन में सत्य को ईश्वर के रूप में पाने की परीक्षा करना चाहे तो उसको कुछ व्रतों का पालन करना होगा, जैसे सच बोलने का व्रत, ब्रह्मचर्य का व्रत, अहिंसा का व्रत, दरिद्रता का व्रत और त्याग का व्रत। कुछ और भी नियम हैं, लेकिन यहां सब के बारे में बातें करना मेरे लिए संभव नहीं है। केवल इतना ही कहना काफी है कि जिन लोगों ने इस तरह की परीक्षा की है, वे जानते हैं कि अपने-अपने विवेक का स्वर सुनने का उनका बहाना हर वक्त काम नहीं आता। चूंकि आजकल बिना कोई नियम-बंधन माने हर आदमी विवेक का दावा करना चाहता है और चूंकि आज इस भौंचक्के संसार में असत्य की इतनी भीड़ है, अतः मैं हार्दिक विनय के साथ आप लोगों से सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि जिसमें विनय की अधिकता नहीं है, वह सत्य को नहीं पा सकता। यदि आप सत्य के समुद्र में तैरना चाहते हैं तो शून्य में लौट जाने के सिवा दूसरा उपाय नहीं है। यह एक अत्यंत विचित्र मार्ग है।
प्रश्न : तब तो यह सवाल वाजिब नहीं कि यदि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है तो फिर मोक्ष का क्या मतलब?
गांधी : यह कहना मोक्ष का आशय न समझने के बराबर है। हम मोक्ष का पूरा अर्थ नहींसमझ सकते। उसका तो अनुभव ही करना होगा। उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। वर्णन करने के लिए हमारे पास योग्य इंद्रिय नहीं हैं। जितना अर्थ समझा जा सकता है वहहै, अनेक प्रकार के देहों में जन्म और उससे उत्पन्न होने वाले क्लेशों से छुटकारा। फिरभी यह कहने की जरूरत नहीं कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर का अर्थ हम अपनी ज्ञान की सीमाके अनुसार करते हैं।
ईश्वर न तो फल देने वाला है और न वह कर्ता है। किंतु यदि देहधारी आत्माओंके मुक्त होने के बाद किसी एक ही आत्मा की कल्पना की जा सकती हो तो वह ईश्वरहै। और वह जड़ वस्तु नहीं है बल्कि शुद्ध चेतन है।राजा-जैसे किसी सत्ताधारी ईश्वर की कल्पना किसी भी काल में और किसी भी स्थिति मेंआवश्यक मालूम नहीं होती। उसकी आवश्यकता मानकर हम आत्मा की अनंत शक्ति कीसीमा बांधते हैं।
प्रश्न : अगर आदमी की मृत्यु का क्षण, जगह और मरने का तरीका पहले से ही ईश्वर ने निश्चित कर रखा है, तो फिर हम बीमारी की फिक्र क्यों करें?
गांधी : मृत्यु का क्षण, जगह और तरीका, यह सब हमारे लिए पहले से तय है या नहीं,मैं नहीं कह सकता। मैं तो इतना ही जानता हूं कि ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। यह बात भी मैं धुंधले तौर पर ही जानता हूं। जो बात आज स्पष्ट नहीं है, वह प्रार्थनापूर्ण मन से ईश्वर में लौ लगाने से कल या परसों तक स्पष्ट हो जायेगी। लेकिन इतना तो साफ समझ लेना चाहिए कि ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं। वह तो दुनिया की सबसे जीवंत शक्ति और कानून है। इसलिए वह कोई भी काम करने में मनमानी नहीं करता और न उस कानून में किसी परिवर्तन या सुधार की ही कोई गुंजाइश है। उसकी इच्छा ध्रुव और शाश्वत है। दूसरी सब चीजें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। और भाग्यवादिता का अर्थ यह कभी नहीं हो सकता कि बीमार पड़ने पर भी हम अपनी देख-रेख की 'फिक्र'न करें। बीमार पड़ना पाप है, लेकिन बीमारी की तरफ लापरवाही बरतना उससे भी बड़ा पाप है।
दिन-दिन बेहतर बनने की कोशिश तो मनुष्य को सदा जारी रखनी ही चाहिए। इस बात की 'फिक्र'तो हमें रखनी ही चाहिए कि हम बीमार क्यों पड़ते हैं या पड़े हैं। प्रकृति का नियम आरोग्य है, रुग्णता नहीं। अगर हम बीमार नहीं पडऩा चाहते हैं या बीमार पड़ने के बाद स्वस्थ होना चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि हम प्रकृति के नियम की जानकारी हासिल करें और उसके पाबंद रहें।
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गांधी से मुलाक़ात –(5)
प्रश्न : आपने दक्षिण अफ्रीका में 'सत्याग्रह' शब्द का आविष्कार किया। 'सत्याग्रह' का अर्थ क्या है?
गांधी : सत्याग्रह का अर्थ है ‘जीवन के तत्व की खोज। हमदक्षिण अफ्रीका में इसी खोज के लिए लड़ ऱहे थे। यह बात हमने किसी से प्रकट-रूप से नहीं कही थी। यदि हम ऐसा कहते, तो वहां वाले हमारी खिल्ली उड़ाते। हमने अपने आंदोलन का गौण हेतु ही प्रकट किया,जो यह था कि वहां की सरकार हमको नीचे दर्जे का और हीन मानकर उस देश से निकालने के लिए नये-नये कायदे-कानून गढ़ रही है। उन कानूनों को अंगीकार न करके अपना शौर्य प्रकट करना उचित है। मान लीजिए कि सरकार ने इस आशय का कानून बना दिया कि काले आदमी पीली टोपी पहना करें। एक बार रोम में यहूदियों के लिए ऐसा ही कानून बनाया गया था। इसी तरह यदि वहां की सरकार भी हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार करने लगे और हमारे लिए कोई ऐसा कानून बनाने लगे जिसका हेतु हमारा अपमान करना जान पड़े तो हमें सरकार को स्पष्ट रूप से जता देना चाहिए कि हम इस कानून को नहीं मानेंगे। एक अल्पवयस्क बालक बाप से कहता है कि तुम हमें उलटी पगड़ी पहनकर दिखाओ। बाप समझता है कि लड़का हमें इस प्रकार देखकर हंसना चाहता है और सहर्ष उसके हुक्म की तामील कर देता है। पर जब कोई और आदमी बदनीयती से वही बात कहता है तब वह साफ जवाब देता है -“भाई,जब तक हमारे धड़ पर सिर है तब तक तुम हमारा यह अपमान नहीं कर सकते। इसलिए पहले तुम हमारा सिर उतार लो; फिर जिस तरह चाहते हो उसे उलटी-सीधी पगड़ी पहनाओ।” इसी तरह वहां की सरकार हिंदोस्तानियों को नीच समझकर उनके साथ गुलामों का-सा बर्ताव करती थी तथा जहां तक हो सके उन्हें अपने देशों में आने से रोकना चाहती थी। और अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए ही वह नये-नये कायदे-कानून गढ़ने लगी। जैसे, हिंदोस्तानियों के नाम अलग रजिस्टर में दर्ज करना,चोरों और डकैतों की तरह उनकी अंगुलियों के निशान लेना,उन्हें राज्य के किसी एक विशेष क्षेत्र में ही बसने पर विवश करना,निश्चित सीमा से उनके बाहर निकलने का निषेध करना,उनके लिए खास रास्तों से चलने और रेल के खास डिब्बों में सवार होने का नियम बनाना,विवाह का प्रमाणपत्र न होने पर उनकी स्त्रियों को रखेल मान लेना,प्रति व्यक्ति हर साल 45 रुपये का कर वसूल करना आदि-आदि। मूल रोग एक ही होने पर भी बहुधा वह शरीर में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुआ करता है। इसी तरह मुख्य रोगदक्षिण-अफ्रीका की सरकार की बुरी नीयत थी और उल्लिखित सब कायदे-कानून उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप थे। इसलिए इन सभी कानूनों के खिलाफ लड़ने के लिए हमें तैयार होना पड़ा।
अन्याय-मात्र के प्रतिकार के दो प्रकार हैं। एक है अन्याय करनेवाले का सिर तोडऩा और ऐसा करते हुए अपना भी सिर तुड़वाना। संसार में सभी शक्तिमान लोग इसी मार्ग का अवलम्बन करते हैं। प्रत्येक स्थान पर युद्ध होता है,लाखों करोड़ों मनुष्य मारे जाते हैं और इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र की उन्नति तो नहीं होती,पर हां,अवनति अवश्य होती है। युद्ध क्षेत्र से जीतकर लौटे हुए सैनिक विवेक-शून्य हो जाते हैं और उनकी बदौलत समाज में अनके उपद्रव होने लगते हैं। दक्षिण अफ्रीका के बोअर-युद्ध में जिस समय ब्रिटिश-सरकार मेफेकिंग में विजयी हुई, उस समय समस्त इंगलैंड,विशेषकर लंदन नगर यहां तक हर्षोन्मत्त हो गया कि छोटे-बड़े सभी पुरुष रात-दिन नाचते ही रहे। उन्होंने भरपेट शरारतें कीं,भरपेट उछल-कूद की और दुकानों में शराब की एक बूंद भी बाकी न रहने दी। इन कई दिनों का वर्णन करते हुए ‘टाइम्स’ने लिखा कि ये दिन लोगों ने जिस रीति से बिताये उसका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता, केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ‘द इंग्लिश नेशन वेंट अ मेफेकिंग।’ (अंग्रेज जाति को मेफेकिंग-उन्माद - हो गया।) विजयी राष्ट्र घमंड के कारण बदमिजाज हो जाता है,ऐश-आराम में रहने का आदी हो जाता है; और कुछ काल तक देश में शांति दिख पड़ती है सही,परन्तु कुछ ही दिनों बाद यह बात निश्चित रूप से मालूम होने लगती है कि युद्ध का अंकुर नष्ट नहीं हुआ,बल्कि सहस्रों गुना अधिक पुष्ट और बलवान्हो गया है। युद्ध द्वारा विजय प्रात करके कोई देश न कभी सुखी हुआ है और न होगा। वह देश उन्नत नहीं होता,बल्कि और गिरता है। वास्तव में उस राष्ट्र की जीत नहीं,हार होती है। और, फिर यदि हमारा कार्य या उद्देश्य भ्रमपूर्ण हुआ, तो ऐसे युद्ध से दोनों पक्षों की भयंकर हानि होती है।
परंतु अन्याय के विरुद्ध लड़ने की जो दूसरी रीति है, उसमें अपनी गलती का नुकसान हमें खुद ही उठाना पड़ता है; दूसरा पक्ष उससे बिल्कुल बचा रहता है। यह दूसरी रीति ‘सत्याग्रह है। इस उपाय का अवलम्बन करनेवाले को दूसरे का सिर नहीं तोड़ना पड़ता,केवल अपना ही सिर तुड़वाना पड़ता है। स्वयं ही सब यातनाएं सहते हुए मरने के लिए तैयार रहना पड़ता है। दक्षिण अफ्रीका की सरकार के अत्याचारी कानूनों का मुकाबला करने में हमने इसी उपाय का अवलम्बन किया था। हमने उक्त सरकार को कहला भेजा कि “हम तुम्हारे अत्याचारी नियमों के सामने कभी सिर न झुकायेंगे! जिस तरह दो हाथों के बिना ताली नहीं बजती, दो आदमियों के बिना झगड़ा नहीं होता,उसी तरह दो पक्षों के बिना राज्य का अस्तित्व भी नहीं रहता। जब तक हम अपने आपको तुम्हारी प्रजा मानते हैं, तभी तक तुम हमारे राजा - हमारी सरकार - हो। हम प्रजा नहीं, तो तुम राजा भी नहीं। जब तक तुम्हारी चेष्टा हमें न्याय और प्रेम से बांधने की रहेगी तभी तक हम ऐसा होने देंगे। पर यदि तुम छल से हमारा घात करना चाहो तो यह असम्भव है। दूसरे मामलों में तुम जो चाहे सो करो,पर हमारे लिए बनाये गये कानूनों में तुमको हमारा मत लेना ही पड़ेगा,हमारी सलाह के बिना तुम हमें अनुचित रीति से दबा रखने के लिए जो कानून बनाओगे वे तुम्हारी पुस्तकों में ही रह जायेंगे। हम कदापि उनका पालन न करेंगे। इसके लिए हमें तुम जो चाहो सो सजा दो,हम उसे सहने के लिए तैयार हैं। जेल भेज दो तो उसे स्वर्ग मानकर हम उसमें रहेंगे। फांसी पर चढ़ने के लिए कहो तो हंसते हुए चढ़ जायेंगे। हम पर दुखों की जितनी वर्षा करो,सबको शान्तिपूर्वक सहन करेंगे,पर तुम्हारे एक रोएं को भी कष्ट न पहुंचायेंगे। हम आनंदपूर्वक मर जायेंगे,तुमको स्पर्श तक न करेंगे पर इन हड्डियों में जान रहने तक हमसे तुम्हारे मनमाने कानूनों का पालन होना असम्भव है।”
आरम्भ यों हुआ कि एक रविवार की संध्या को जोहानिसबर्ग में एक पहाड़ी पर मैं और हेमचन्द्र नामके एक और सज्जन बैठे हुए थे। मेरे पास सरकारी ‘गजट’रखा हुआ था। उसमें भारतवासियों से सम्बन्ध रखनेवाले उल्लिखित कई कानूनों के पास होने की बात लिखी हुई थी। उसे पढ़ते ही मेरा सारा शरीर गुस्से से कांप उठा। मैंने मन में कहा –"हें! सरकार ने हमलोगों को क्या समझ रखा है? मैंने उसी दम ‘गजट’के उस अंश का जिसमें उक्त कानूनों का उल्लेख था,अनुवाद कर डाला और उसके नीचे लिखा कि “मैं कभी इन कानूनों की सत्ता अपने ऊपर न चलने दूंगा।"यह लेख तत्क्षण फीनिक्स के ‘इंडियन ओपिनियन’पत्र में छपने के लिए भेजा गया। उस समय मैंने स्वप्न में भी यह सोचा नहीं था कि इस काम में कोई भी भारतवासी अपूर्व वीरता प्रकट करेगा अथवा सत्याग्रह का आंदोलन इतना जोर पकड़ेगा। मैंने यह बात उसी क्षण हिंदोस्तानी भाइयों पर प्रकट की, जिससे बहुतेरे सत्याग्रह करने पर तैयार हो गये। पहले, युद्ध में लोग यह समझकर सम्मिलित हुए कि थोड़े ही दिनों तक कष्ट सहने से हमारा उद्देश्य सिद्ध हो जायेगा। दूसरे, युद्ध के समय आरम्भ में थोड़े ही लोग सम्मिलित हुए पर पीछे बहुत से लोग आ मिले। बाद में श्री गोखले के यहां पहुंचने पर दक्षिण अफ्रीका की सरकार से समझौते का वचन पाकर यह लड़ाई बंद की गई। परंतु पीछे सरकार ने दगाबाजी की और अपना वचन पूरा करने से इनकार कर दिया। इस पर तीसरा सत्याग्रह युद्ध आरम्भ करना पड़ा।
उस समय गोखले ने मुझसे पूछा था कि आंदोलन में कितने आदमी सम्मिलित होंगे? मैंने लिखा कि 30 से 60 आदमी तक सम्मिलित होंगे। परंतु मुझे इतने साथी भी न मिले। हम 16 आदमियों ने ही मुकाबला शुरू किया। हमने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जब तक सरकार अपने अत्याचारी कानूनों को रद्द न करेगी अथवा कोई और समाधानकारक समझौता न करेगी, तब तक हम हर एक दंड भुगतेंगे, पर सिर न झुकायेंगे। हमें इस बात की बिल्कुल आशा न थी कि हमें बहुत से साथी मिलेंगे। पर एक मनुष्य के भी नि:स्वार्थपूर्वक सत्य और देश-हित के लिए आत्म-समर्पण करने के लिए तैयार होने का परिणाम अवश्य ही होता है। देखते-ही-देखते बीस हजार मनुष्य आंदोलन में सम्मिलित हो गये;उनको रखने के लिए जेलों में जगह न रही और समस्त भारत का खून खौलने लगा।
बहुत से लोग कहते हैं कि यदि लॉर्ड हार्डिंग बीच-बचाव न करते तो समझौता होना असम्भव था। पर ये लोग यह सोचना भूल जाते हैं कि उक्त लॉर्ड साहब ने मध्यस्थता क्यों की? दक्षिण-अफ्रीका की अपेक्षा कनाडा के हिंदोस्तानी कहीं अधिक दुख पा रहे थे। वहां उन्होंने मध्यस्थता क्यों नहीं की? जिस स्थान पर हजारों स्त्री-पुरुषों का आत्मबल एकत्र हो,जिस स्थान पर असंख्य नर-नारी प्राणों को हथेली पर लिये हुए हों, वहां कौन-सी बात असम्भव है? मध्यस्थता करने के सिवा लॉर्ड हार्डिंग के लिए कोई उपाय ही न था। और ऐसा करके उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता प्रकट की। इसके बाद जो कुछ हुआ उसे आप जानते ही हैं,अर्थात् दक्षिण अफ्रीका की सरकार को मजबूर होकर हमारे साथ समझौता करना पड़ा। इन बातों से सिद्ध हुआ कि हम हर एक चीज को बिना किसी को चोट पहुंचाये केवल आत्मबल से - सत्याग्रह से - प्रात कर सकते हैं। शस्त्र से युद्ध करने वाले को शस्त्र तथा दूसरों की सहायता का अवलम्बन लेना पड़ता है। सीधे-सादे रास्ते को छोड़कर टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां ढूंढऩी पड़ती हैं। सत्याग्रही जिस मार्ग से युद्ध करता है वह सरल होता है;उसे किसी की प्रतीक्षा भी नहीं करनी पड़ती। वह अकेला भी लड़ सकता है। हां,उस दशा में फल अवश्य कुछ देर से मिलेगा। अफ्रीका के आंदोलन में यदि मुझे बहुत से साथी न मिलते तो उसका नतीजा इतना ही होता कि आज आप लोग मुझे अपने बीच में बैठा हुआ न देख सकते। शायद मेरी सारी आयु वहां लड़ने ही में खर्च होती। पर इससे क्या होता? जो फल मिला, वह कुछ देर से मिलता। सत्याग्रह के युद्ध में केवल अपनी ही तैयारी दरकार है। हमें पूर्ण संयमशील होना चाहिए। इस तैयारी के लिए यदि गिरि-गुफाओं में रहने की आवश्यकता हो तो वहां भी जाकर रहना चाहिए। इस तैयारी में जो समय लगेगा उसे समय की व्यर्थ बर्बादी न समझना चाहिए। ईसा ने जगत्का उद्धार करने के लिए निकलने से पूर्व चालीस दिन जंगल में रहकर अपनी तैयारी की थी और बुद्ध ने भी वैसी ही तैयारी करने में बरसों लगाये थे। यदि उन्होंने इस प्रकार तैयारी न की होती तो वे कदाचित् ईसा और बुद्ध न हुए होते। वैसे ही यदि हम अपने शरीर को सत्य के पालन और परोपकार के निमित्त अनुकूल बनाना चाहते हों, तो हमें पहले अहिंसा,सत्य आदि गुणों को विकसित करके अपनी आत्मिक उन्नति करनी चाहिए। उसके बाद ही यह कहा जा सकता है कि हम सच्ची देशसेवा करने के योग्य हो गये।
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गांधी से मुलाक़ात –(6)
प्रश्न : क्या कभी झूठ बोलना उचित होता है?
गांधी : कभी नहीं।
प्रश्न : बर्ट्रेंड रसेल ने एक जगह लिखा है : एक बार मैं शहर से दूर गांव केइलाके में घूम रहा था कि एक लोमड़ी को देखा, जो बेहद थक चुकी थी, लेकिन फिर भीदौडऩे की कोशिश कर रही थी। कुछ मिनट बाद मैंने शिकारियों के एक दल को देखा।जब उहोंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने लोमड़ी को देखा है तो मैंने जवाब दिया कि हां, देखाहै। लेकिन जब उन्होंने पूछा कि वह किधर गई हैतो मैं झूठ बोल गया। मैं नहीं समझताकि उस समय सच बोलने से मैं ज्यादा अच्छा आदमी साबित होता।इस पर आपका क्या कहना है?
गांधी : बर्ट्रेंड रसेल बहुत बड़ेलेखक और विचारक हैं। उनके प्रति पूरा आदररखते हुए मैं उनके इस कथित विचार से असहमति ही प्रकट करूंगा। उन्होंने आरम्भिकगलती यह की कि लोमड़ी को देखा है, यह स्वीकार कर लिया। पहले प्रश्न का उत्तर देनाउनके लिए आवश्यक नहीं था। अगर वे जान-बूझकर शिकारियों को गलत रास्ते पर नहींभेजना चाहते थे तो वे दूसरे प्रश्न का उत्तर देने से भी इनकार कर सकते थे। मैंने सदा यहमाना हैकि कोई भी आदमी पूछे गये हर प्रश्न का उत्तर देने को बाध्य नहीं है। सत्य बोलने में कहीं किसी अपवाद की गुंजाइश नहीं है।
प्रश्न : तो 'क्या अश्वत्थामा मारा गया'कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पाप नहीं किया? भगवान्कृष्ण ने उन्हें ऐसा करने की सलाह क्यों दी?
गांधी ; इससे मैं इतना ही सार निकालता हूं कि धर्मराजजैसे लोगों से भी भूल हो जातीहै। अत: हमें हमेशा सावधान रहना चाहिए। यदि हम ऐसा मानें कि स्थूल रूपधारी श्रीकृष्ण ने स्थूल रूपधारी युधिष्ठिर को ऐसी सलाह दी तो श्रीकृष्ण की अपूर्णता मानने में कोई हानि नहीं है। किंतु यदि हम श्रीकृष्ण को परमात्मा-रूप मानें, तो हमें इस सारी कहानी का कुछ आंतरिक अर्थ करना होगा। यह अर्थ हर एक व्यक्ति नीति-धर्म की अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार निकालेगा। शास्त्रों को सर्वथा सम्पूर्ण मानने की जरूरत नहीं। यदि हम 'नीति' के अखंड नियम समझ लें और शास्त्रों का अर्थ तथा उनका उपयोगइन नियमों को ध्यान में रखकर करें तो फिर भूल होने की सम्भावना नहीं रहती।
प्रश्न : नीति का अखंड नियम? यह क्या है?
गांधी : आपने विलियम मैकिंटायर सॉल्टर की किताब ‘एथिकल-रिलीजन’ पढ़ी है?
प्रश्न : नहीं। नाम भी पहली बार सुना है।
गांधी : वह पुस्तक रैशनल प्रेस असोसिएशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक-माला में से एक थी। उसका प्रथम प्रकाशन अमेरिका में 1889 के मार्च में हुआ था और फिर 1905 में वह इंग्लैंड में प्रकाशित की गई थी।
प्रश्न : उसमें क्या लिखा था नीति के नियमों के बारे में?
गांधी : यह तो आम बात है कि किसी भी धर्म का मनुष्य क्यों न हो, वह अपने धर्म के बाहरी रूप का ही विचारक रहता है और अपने सच्चे कर्त्तव्य को भुला देता है। धन का अत्यधिक उपभोग करने से दूसरे लोगों को क्या कष्ट होते हैं या होंगे इस बात का विचार हम क्वचित् ही करते हैं। अत्यन्त मृदुल और नन्हें-नन्हें प्राणियों को मारकर यदि उनकी खाल के कोमल दस्ताने बनाये जा सकें, तो ऐसे दस्ताने पहनने में यूरोप की महिलाओं को जरा भी हिचक नहीं होती। श्री रॉकफेलर दुनिया के धन-कुबेरों में प्रथम श्रेणी के गिने जाते थे। उन्होंने अपना धन इकट्ठा करने में नीति के अनेक नियमों को भंग किया, यह जगत्-प्रसिद्ध है। चारों ओर इस तरह की हालत देखकर यूरोप तथा अमरीका में बहुतेरे लोग धर्म के विरोधी हो गये। उनका कहना था कि दुनिया में यदि धर्म नाम का कोई चीज होती, तो यह जो दुराचरण बढ़ गया है वह बढ़ना नहीं चाहिए था।
प्रश्न : आज की हालत और हालात भी ऐसे ही हैं। यूरोप-अमेरिका क्या हमारे देश में भी ऐसे लोगों की संख्या बहुत है...।
गांधी : हो सकता है। लेकिन असल बात यह है कि मनुष्य अपना दोष न देखकर साधनों को दोष देता है। ठीक इसी तरह मनुष्य अपनी दुष्टता का विचार न करके धर्म को ही बुरा मान कर स्वच्छन्दतापूर्वक जो जी में आये वैसा व्यवहार करता है और रहता है।यह देखकर अमेरिका तथा यूरोप में अनेक लोग सामने आये। उन्हें भय था कि इस तरह धर्म का नाश होने से दुनिया का बहुत नुकसान होगा और लोग नीति का रास्ता छोड़ देंगे। इसलिए वे लोगों को भिन्न-भिन्न मार्गों से नैतिकता की ओर प्रवृत्त करने की शोध में लगे। शिकागो के एक संघ 'नैतिक संस्कृति संघ' ने, जिसकी 1885 के आसपास स्थापना हुई थी, विभिन्न धर्मों की छानबीन कर के यह तथ्य प्रस्तुत किया कि सारे धर्म नीति की ही शिक्षा देते हैं, सारे धर्म बहुत-कुछ नीति के नियमों पर ही टिके हुए हैं। लोग किसी धर्म को मानें या न मानें, फिर भी नीति के नियमों का पालन करना तो उनका फर्ज है। संघ के सदस्यों की यह दृढ़ मान्यता थी कि मनुष्य को नीति-धर्म का पालन करना ही चाहिए क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया की व्यवस्था टूट जाएगी और अन्त में भारी नुकसान होगा।
प्रश्न : यानी पुस्तक में कुल मिलाकर धर्म-नीति की चर्चा थी, इसलिए आप...।
गांधी : नहीं, नहीं।वह पुस्तक बड़ी खूबी से भरी थी। लेकिन उसमें धर्म की चर्चा नाम को भी नहीं थी। उसमें 'धर्म-नीति' नहीं, बल्कि नीति-धर्म की चर्चा थी।
प्रश्न : क्या? नीति-धर्म! यानी धर्म-रहित 'नीति-धर्म' के नियमों की बात? आपकी ये बातें समझ में नहीं आतीं। उदाहरण देकर समझा सकते हैं?
गांधी : उस किताब में एक अध्याय था - ‘नीति के विषय में डार्विन के विचार’।
प्रश्न : कौन डार्विन? वही जिन्होंने लिखा कि मनुष्य की उत्पत्ति एक जाति के बन्दरों से हुई है?
गांधी : हां, वही डार्विन। उन्होंने विज्ञान सम्बन्धी बड़ी-बड़ी खोजें कीं। उनकी स्मरण-शक्ति और अवलोकन शक्ति बड़ी ही जबरदस्त थी। उन्होंने कुछ और पुस्तकें लिखी हैं जो बहुत ही पढ़ने और विचार करने योग्य हैं। मनुष्य की आकृति की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस सम्बन्ध में उन्होंने अनेक उदाहरण और दलीलें देकर बताया कि वह एक जाति के बन्दरों से हुई है। यानी अनेक प्रकार के प्रयोग कर के और बहुत से निरीक्षण के बाद उन्हें यह दिखाई दिया कि मनुष्य की आकृति और बन्दर की आकृति के बीच बहुत अन्तर नहीं है।
प्रश्न : आपके विचार से क्या यह विचार ठीक है?और फिर, इसका नीति के नियमों से क्या संबंध है?
गांधी : यह विचार ठीक है या नहीं, इसका नीति से कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है।लेकिन डार्विन ने उपर्युक्त विचार व्यक्त करने के साथ यह भी बताया कि नीति के विचारों का मनुष्य जाति पर क्या प्रभाव पड़ा है। सो ‘एथिकल-रिलीजन’पुस्तक में डार्विन के विचारों के सम्बन्ध में लिखा : जो अच्छा और सत्य हो उसे अपनी इच्छा से ही करने में कुलीनता है। मनुष्य की कुलीनता की सच्ची निशानी ही यह है कि वह जो उचित जान पड़ता है उसे हवा के झोंके से इधर-उधर भटकने वाले बादलों के समान धक्के खाने के बदले स्थिर रहकर करता है और कर सकता है।
प्रश्न : लेकिन हमें यह तो जानना चाहिए न कि मनुष्य का रुझान अपनी वृत्तियों को किस दिशा में ले जाने का है?
गांधी : मैं यही तो कह रहा हूं। यह हम जानते हैं कि हम सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं हैं। हमें कुछ-कुछ बाह्य परिस्थितियों के अनुसार चलना होता है। जैसे कि, जिस देश में हिमालय जैसी सर्दी पड़ती हो वहां हमारी इच्छा हो या न हो फिर भी शरीर को गरम रखने के लिए ढंग से कपड़े पहनने पड़ते हैं। मतलब यह कि हमें समझदारी से चलना होता है।
प्रश्न : अपने आस-पास की और बाहरी परिस्थिति को देखते हुए हमें व्यवहार करना पड़ता ही है। तो इसमें क्या नयी बात है?
गांधी : तब प्रश्न यह है कि अपने आस-पास की और बाहरी परिस्थिति को देखते हुए हमें नीति के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है या नहीं? अथवा, हमारे व्यवहार में नीति हो या न हो, इसकी परवाह किये बिना काम चल सकता है?
प्रश्न : तो क्या डार्विन ने इस पर विचार किया?
गांधी : यह सवाल प्रासंगिक नहीं।इन प्रश्नों पर विचार करते हुए हमें डार्विन के मत का परीक्षण करने की जरूरत है। यद्यपि डार्विन नीति विषय का लेखक न था, तो भी उसने स्पष्ट कर दिया कि बाहरी वस्तुओं के साथ नीति का संबंध कितना गहरा है। जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य नैतिकता का पालन करे या न करे इसकी चिन्ता नहीं, और इस दुनिया में केवल शारीरिक बल या मानसिक बल ही काम आता है, उन्हें डार्विन के ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। डार्विन के कथनानुसार, मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में जीवित रहने का लोभ रहता है। वह यह भी कहता है कि जो इस संघर्ष में जीवित रह सकते हैं वे ही विजयी माने जाते हैं और जो अयोग्य हैं उनका जड़मूल से नाश हो जाता है। परन्तु यह संघर्ष शारीरिक बल पर ही नहीं चल सकता।यदि हम मनुष्य की रीछ या भैंसे से तुलना करें तो हमें मालूम होगा कि शारीरिक बल में रीछ या भैंसा मनुष्य से बढ़कर है। उनमें से किसी एक के साथ मनुष्य यदि कुश्ती लड़े तो वह हार जाएगा। इतना होते हुए भी अपनी बुद्धि के कारण मनुष्य अधिक बलवान है। ऐसी ही तुलना हम मनुष्य जाति के विभिन्न समाजों के बीच भी कर सकते हैं। युद्ध के समय केवल वे ही जीतते हैं जिनके सिपाही अधिक बलवान हों या सिपाहियों की संख्या अधिक हो, सो बात नहीं।जीत उनकी होती है जिनके पास युद्ध कौशल और अच्छे सेनानायक होते हैं - भले ही वे संख्या में कम व शरीर से दुर्बल हों। ये बौद्धिक शक्ति के उदाहरण हैं।
प्रश्न : तो आपका कहना है, डार्विन कहता है कि बुद्धिबल और शरीरबल से नीति-बल कहीं बढ़कर है और योग्य मनुष्य अयोग्य की अपेक्षा अधिक टिक सकता है?
गांधी : हां, इस बात की सच्चाई हम अनेक प्रकार से देख सकते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि डार्विन ने तो यही सिखाया है कि “शूरा सो पूरा’ यानी शारीरिक बलवानों की ही अन्त में विजय होती है और इसीके अनुसार विचार करने वाले लेभग्गू लोग मान बैठते हैं कि नीति तो बेकार चीज है। परन्तु डार्विन का यह विचार बिल्कुल नहीं है। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर देखा गया है कि जो समाज अनैतिक थे उनका आज नामोनिशान भी नहीं रहा। सोडम और गमोरा के लोग अत्यंत अनैतिक थे, इसलिए आज वे देश भूमिसात् हो गये। हम आज भी देख सकते हैं कि अनीतिपूर्ण समाजों का नाश होता जा रहा है।
प्रश्न : आप इतना बोल गये, लेकिन हमारा सवाल वहीं का वहीं है कि आखिर नीति के नियम क्या हैं?
गांधी : मैं इतना इसलिए बोल गया कि हम यह समझें कि साधारण 'नीति' भी मानव-जाति का अस्तित्व कायम रखने में कितनी जरूरी है? अब हम कुछ साधारण उदाहरण लेकर समझ सकते हैं 'नीति' क्या है और उसके नियम क्या हैं? जैसे, 'शांत स्वभाव नीति का एक अंग है।' इस वाक्य को लेकर यदि हम ऊपरी तौर से देखें तो हमें लगेगा कि घमंडी मनुष्य उन्नति कर जाता है, परन्तु थोड़ा विचार करने पर हम देख सकते हैं कि मनुष्य की घमंड रूपी तलवार तो आखिर उसीकी गर्दन पर पड़ती है। मनुष्य को व्यसन नहीं करना चाहिए - यह नीति का दूसरा अंग है। आंकड़ों की जांच द्वारा पता चलता है कि विलायत में तीस वर्ष की उम्र के शराबी लोग तेरह या चौदह वर्ष से अधिक नहीं जीते। परन्तु निर्व्यसनी मनुष्य सत्तर वर्ष तक जीवित रहते हैं। व्यभिचार नहीं करना चाहिए, यह नीति का तीसरा विषय है। डार्विन ने कहा कि व्यभिचारी लोग बहुत शीघ्र नाश को प्राप्त होते हैं। उन्हें सन्तान नहीं होती और यदि होती भी है तो अत्यन्त दुर्बल दिखलाई देती है। व्यभिचारी लोगों का मन हीन हो जाता है और ज्यों-ज्यों उम्र बीतती है त्यों-त्यों उनका चेहरा-मोहरा पागलों जैसा लगने लगता है।
इसी तरह यदि हम कौमों की नीति के संबंध में विचार करेंगे, तो भी हमें यही स्थिति दिखाई देगी। मैं जब जवान था, तब पढ़ा और सुना कि 'अंडमान' द्वीप के पुरुष, जैसे ही उनकी सन्तान चलने-फिरने लायक हो जाती है, अपनी पत्नियों को छोड़ देते हैं। मतलब यह कि परमार्थ बुद्धि दिखाने के बदले वे परले दर्जे की स्वार्थ बुद्धि दिखाते हैं। परिणाम यह हुआ कि इस कौम का धीरे-धीरे नाश होता जा रहा है। डार्विन कहते हैं कि जानवरों में भी कुछ हद तक परमार्थ बुद्धि दिखाई देती है। डरपोक स्वभाव वाले पक्षी भी अपने बच्चों की रक्षा करते समय बलवान हो जाते हैं। इससे मालूम होता है कि प्राणिमात्र में थोड़ी-बहुत परमार्थ बुद्धि रहती है। यदि न होती तो इस दुनिया में घासफूस और जहरीली वनस्पतियों के सिवा शायद ही कुछ जीवधारी दिखाई देते। मनुष्य और अन्य प्राणियों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि मनुष्य सबसे अधिक परमार्थी है। अपने नैतिक बल के अनुसार मनुष्य दूसरों के लिए, यानी अपनी सन्तान के लिए, अपने कुटुम्ब के लिए और अपने देश के लिए अपनी जान कुर्बान करता आया है।
मतलब यह है कि डार्विन साफ-साफ बतलाता है कि नीति-बल सर्वोपरि है। यूनानी लोग आज के यूरोपीय लोगों से कहीं अधिक बुद्धिमान थे। फिर भी ज्यों ही उन लोगों ने नीति का परित्याग किया त्यों ही उनकी बुद्धि उन्हींकी दुश्मन बन गई, और आज वह समाज देखने में भी नहीं आता। जातियां न पैसे के बल पर टिकती हैं और न सेना के बल पर, वे केवल नीति के आधार पर टिक सकती हैं। यह विचार सदा मन में रखकर परमार्थ रूपी परम नीति का आचरण करना मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है।
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गांधी से मुलाक़ात –(7)
प्रश्न : साम्यवाद के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आपके खयाल से यह हिंदोस्तान के लिए हितकर होगा?
गांधी : वैसा साम्यवाद जो जबरदस्ती लोगों पर थोप दिया जाये, भारत को कभी स्वीकार नहीं होगा। मैं अहिंसक साम्यवाद में आस्था रखता हूं।
प्रश्न : पर साम्यवाद तो निजी सम्पत्ति के खिलाफ है। क्या आप निजी सम्पत्ति रहने देना चाहते हैं?
गांधी : अगर साम्यवाद बगैर किसी तरह की हिंसामक प्रवृत्ति के आये तो उसका स्वागत होगा। क्योंकि तब जनता की ओर से जनता के लिए ही सम्पत्ति पर कोई अधिकार कर सकेगा। किसी लखपति के पास लाख की सम्पत्ति भले रह जाये, पर वह सम्पत्ति जनता की ही होगी। और जबकभी सर्व-साधारण के हित के लिए उसकी जरूरत होगी, 'राज्य' उसे अपने अधिकार में ले सकेगा।
प्रश्न : समाजवाद के बारे में आपके और जवाहरलालजी के बीच क्या कोई मतभेद था?
गांधी : हां, था तो, पर वह इतना ही कि वे उसके इस अंग पर जोर देते थे, तो मैं उस पर। वे शायद परिणाम पर जोर देते थे, और मैं साधन पर। उनके खयाल से मैं शायद अहिंसा पर जरूरत से ज्यादा जोर देता था। वे भी अहिंसा में विश्वास तो करते थे, पर अगर अहिंसा के द्वारा समाजवाद लाना सम्भव न हो, तो वे अन्य साधनों को भी काम मेंलाने के पक्ष में थे। बेशक अहिंसा पर मेरा जोर देना मेरे लिए एक सिद्धांत का सवाल था, और सिद्धांत को कभी छोड़ा नहीं जा सकता। मुझे तो अगर कोई यह भी विश्वास दिला देता कि हिंसा से आजादी मिल सकती है तो मैं उसे लेने से इन्कार कर देता, क्योंकि यह सच्ची आजादी नहीं होगी।
प्रश्न : पर क्या आपका यह खयाल था कि आपके अहिंसात्मक आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेज हिंदोस्तान को आपके हाथों में सौंपकर चुपचाप यहां से चले जायेंगे?
गांधी : बेशक, मेरा यही खयाल था।
प्रश्न : पर आपकी इस आस्था का आधार क्या था?
गांधी : मेरी आस्था का आधार? ईश्वर और उसका न्याय।
प्रश्न : यानी आप तथाकथित ईसाइयों से कहीं बड़े ईसाई हैं।
गांधी : अवश्य, अन्यथा ईश्वर प्रेम का देवता नहीं, बल्कि हिंसा का देवता बन जायेगा।
प्रश्न: मैं और मेरे कितने ही मित्र सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते हैं...!
गांधी : हां,सो तो ठीक है। मैं भी क्रांति में विश्वास करता हूं,किन्तु मैं उस क्रांति को नहीं समझ सकता जो क्रांति अपने लिए की जाती है,और औरों को मारने दौड़ती है। कहावत है कि ईसामसीह तो खुद मरकर ही बना जा सकता है।’
प्रश्न: तब तो आपके कार्यों में सशस्त्र क्रांतिवादियों की सारी मेहनत बरबाद हो जायेगी?
गांधी : अभी तक जो हुआ है वह यही कि एक-दो आदमी मारे गये हैं और विदेशी राज ज्यों-का-त्यों बलवान है। मेरे काम से आपके प्रयत्न बरबाद नहीं होंगे। एक तो देश से हिंसा हटेगी और दूसरे जिस काम में देश को बहुत देर लग रही है,मेरा तो विचार है कि वह जल्दी हो जायेगा। प्रश्न : हमारे 'प्रभु'इतने सीधे नहीं हैं कि कोई प्रयत्न न करने पर वे....।
गांधी: यह मैं कब कहता हूं कि बिना प्रयत्न के कुछ मिलेगा। मैं तो कहता हूं कि इस देश के जन-जीवन को प्रयत्न करना पड़ेगा,तैयारी करनी पड़ेगी,किन्तु वह दूसरे को मारकर नहीं स्वयं मरकर। मारने में क्या लगता है,मैं भी तलवार से गले काट सकता हूं,किन्तु औरों के गले काटने की अपेक्षा अपनी निर्बलता,अपनी झिझक,अपनी कायरता और अपने बड़े बनने की इच्छा को काटना मुश्किल है।
प्रश्न : मैंने न गाय को कभी मारा है न मारूंगा। फिर भी अगर कोई गाय मुझे मारनेदौड़े और सो भी तब जब मैं उसके रास्ते में भी नहीं हूं तो फिर मुझे क्या करना चाहिए?और उसके मुझ पर इस हमले का सबब भी क्या हो सकता है?
गांधी : गाय के हमें मारने आने का कारण यह है कि हम गाय से और इसी प्रकार अन्य जीवों से डरते हैं। इसलिए इसमें दोष हमारा ही है। भयमात्र दोष है और जब तक यह दोष हममें है तब तक ऐसी व्याधियों से हम बच नहीं सकते। जब तक हम गाय से डरते हैं तबतक उचित यही होगा कि हम उसके रास्ते में न आयें और यदि अनायास आ जायें तो हमेंउसका आक्रमण सह लेना चाहिए। गाय को मारकर हम उसका या अपना उपकार नहीं कर सकते।
प्रश्न : यह कैसे कहा जा सकता है कि निर्भय वृत्ति से गुफा में निवास करने वाले साधु पुरुष को बाघ मार नहीं डालेगा?
गांधी : प्रसंग आने पर निर्भयतापूर्वक बाघ की गुफा में रहने वाले को बाघ कभी नहीं खायेगा। उसकी गुफा में रहने का प्रसंग कैसे आ सकता है, उस बात पर विचार करनाचाहिए।
गांधी से मुलाक़ात –(8)
प्रश्न : यदि नौकर की चोरी करने को आदत हो और उस पर न समझाने-बुझाने काअसर होता हो और न मारने-पीटने का, तो मालिक क्या करे?
गांधी : यह भी सम्भव है कि दूसरों को भी चोरी की आदत हो, लेकिन वे पकड़े नजाते हों। गौर करने पर पता चलेगा कि हम सब चोर हैं। फर्क इतना ही है अपनी बुराई तोहम सहन कर लेते हैं, लेकिन जिनकी चोरी पकड़ी जाती है अथवा जो सामान्य प्रकार केनहीं होते उनकी बुराई सहन नहीं कर पाते। जो आदमी अपनी बेची चीजों कीअधिकतमकीमत खुलेआम वसूल करता है वह चोर नहीं तो और क्या है? यदि इसका उत्तर यह होकि खरीदार स्वेच्छा से ठगा जाता है तो यह इस सवाल का जवाब नहीं हुआ। वास्तव मेंखरीदार स्वेच्छा से नहीं ठगा जाता, बल्कि वह लाचार होता है। जिस चोरी का उल्लेखकिया गया है वह समाज के गहरे रोग के लक्षणों में से है। यह चंद पैसे वालों और अनेकगरीबों के बीच सनातन संघर्ष का लक्षण है। इसलिए मालिक को मेरी सलाह यह होगीकि वह चोर के सामने से सारेप्रलोभन हटा दे, उसके साथ अपने सगे भाई जैसा व्यवहारकरे और यदि अत्यंत दयापूर्ण व्यवहार का भी कोई असर न हो तो उसे अपनी राह जानेको कह दे मालिक जरा स्वयं से पूछकर देखे कि ऐसी स्थिति में अपने सगे-भाई के साथभी क्या वह इसी प्रकार व्यवहार करेगा?
गांधी से मुलाक़ात –(9)
प्रश्न : आपने अस्पृश्यों के लिए 'हरिजन'नाम क्यों चुना? इसका क्या अर्थ है?
गांधी : यह मेरा गढ़ा हुआ नामनहीं है। कई अछूत पत्र-लेखकों ने इस बात की शिकायत की कि मैं 'नवजीवन'में 'अस्पृश्य'शब्द का प्रयोग करता हूं।अस्पृश्य का शब्दिक अर्थ है अछूत।तब मैंने उनसे कोई बेहतर नाम सुझाने को कहा।इस पर एक अस्पृश्य पत्र-लेखक नेगुजरात के एक सर्वप्रथम ज्ञात संत-कवि के प्रमाण पर 'हरिजन'शब्द अपनाने का सुझावदिया।
काठियावाड़ के अछूत भाई ने मुझे लिखा कि 'अंत्यज' , 'अछूत', 'अस्पृश्य'नाम से उनको दुख होता है। उनका दुख मैंसमझ सकता था। मेरे नजदीक वे न अंत्यज थे, न अस्पृश्य थे, न अछूत थे। उसी भाई नेबताया कि अपने एक भजन में भक्तकवि नरसिंह मेहता ने अछूत भाइयों का उल्लेख'हरिजन'नाम से किया था। यद्यपि जो भजन उस भाई ने अपने समर्थन में मुझे भेजा उसका अर्थ जो वह बताते थे, वैसा मेरी दृष्टि में नहीं था, तो भी मुझे 'हरिजन'नाम बहुतप्रिय जंचा। 'हरिजन'का अर्थ है ईश्वर का भक्त, ईश्वर का प्यारा। ईश्वर की प्रतिज्ञा है किदुखियों का वह बेली है, दया का सागर है, अशक्तों को शक्ति देने वाला है, निर्बल काबल है, पंगु का पैर है, अंधों की आंख है, इसलिए दलित लोग उसके प्यारे होने हीचाहिए। इस दृष्टि से अछूत भाइयों के लिए 'हरिजन'शब्द सर्वथा उपयुक्त है, ऐसा विश्वास हुआ।
जाहिर है, जो उद्धरण उसने भेजा, वह इस शब्द को स्वीकार करने के पक्ष में दियेगये उसके तर्क के पक्ष में बिल्कुल सटीक नहीं बैठता था तथापि, मुझे लगा कि यह एकअच्छा शब्द है।
सारी दुनिया को छोड़ दें, तो भारत में चार करोड़ या इससे
ज्यादा लोगों को अस्पृश्य कहा जाता था। उनसे ज्यादा मित्रहीन, लाचार और निर्बल और कोई हो ही नहीं सकता था? अत:यदि किसी मानव-समूह को ईश्वर का प्रिय कहना उचित था तो वह निश्चय ही येमित्रहीन, लाचार और तिरस्कृत लोग थे। यही कारण था कि उक्त पत्र-व्यवहार के बाद सेमैंने अस्पृश्यों के लिए 'हरिजन'नाम का प्रयोग किया। और जब ईश्वर ने मुझे जेलभोगते हुए भी उनकी सेवा का काम सौंपने का निश्चय किया, तब मैं उनके लिए अन्य किसी शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता था। हालांकि मैं यह भी कहता रहा कि जब सवर्ण हिंदू अपने आंतरिक विश्वासवश और इसीलिएस्वेच्छा से मौजूदा अस्पृश्यता को दूर कर देंगे, तब हम सभी लोग 'हरिजन' कहलायेंगे,क्योंकि तब सवर्ण हिंदू ईश्वर के प्रिय बनंगे और तब उन्हें भी ईश्वर काप्रिय या 'हरिजन' कहना उपयुक्त होगा।
कई सज्जन कहते हैं, अछूत अपने पूर्व-कर्म से अछूत हैं। कोई कहते हैं : हम भले चारकरोड़ को अछूत मानें, लेकिन उनको क्या विशेष कष्ट है जो और करोड़ों को नहीं है?अछूतपन में जो दुख भरा है वह मानसिक हो सकता है और वह अपरिहार्यहै। पूर्वजन्म का फल होने से ईश्वरकृतहै। उनकी गरीबी इत्यादि कष्ट जैसे उनको हैं, वैसेही हिंदोस्तान के दो-तीन करोड़ लोगों को छोड़कर और सबके लिए सामान्य हैं। तब ऐसेसभी दीन जनों को हरिजन क्यों न कहा जाये?
लेकिन यह कथन अयोग्य है। अछूतपन, जैसाआज हम मानते हैं, वह न पूर्व-कर्म का फल है, न ईश्वरकृत है। आधुनिक अछूतपनमनुष्यकृत है, सवर्ण हिंदूकृत है। कर्म का फल सब भोगते हैं, लेकिन ऐसा कहकर हमकोऔर किसी को दूषित बताने का कोई अधिकार नहीं है। कर्म की गति गहन है। किस कर्मका क्या फल है, वह कोई नहीं जानता। कुछ-न-कुछ दोष से हम सब भरेहुए हैं।इसलिए किसी के दोष की तुलना करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। हमारा अधिकारऔर धर्म एक-दूसरे को दोषमुक्त होने में सहायता देने का है। दया-धर्म में जन्म-सिद्ध औरअनिवार्य अस्पृश्यता का स्थान ही नहीं हो सकता। और क्योंकि हम चार करोड़ हिंदुओं कोअस्पृश्य मानते हैं, इस कारण उनको अवश्य विशेष और असाधारण कष्ट भोगना पड़ता है।अपने पास में पैसे होते हुए भी उन लोगों को न खाने का, न पीने का, न रहने का ठिकानामिल सकता है, जैसा दूसरों को। उनके लिए न मंदिर हैं, न धर्मशाला हैं, न औषधालय है, न पाठशाला है, जैसे दूसरों के लिए। उनको हमने ऐसा गिराया हैजिससे वह अपने'मनुष्यपन' को भी प्राय: भूल गये हैं। अपनी दीन स्थिति में से उठने की इच्छा तक भी उनचार करोड़ भाई-बहनों को नहीं होती है।
यह चित्र जो मैंने खींचा है उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। एक बात मेंअतिशयोक्ति हो सकती है। हरिजनों की संख्या वस्तुत: कोई नहीं जानता है। श्री अमृतलालठक्कर ने जो संख्या बताई, उसको मैंने स्वीकार कर लिया है। वह भी निश्चय से नहींकह सकते हैं। सब छानबीन करके इतना ही कहते हैं कि चार करोड़ से अधिक संख्यानहीं हो सकती। किंतु हरिजनों की संख्या चार करोड़ है या एक करोड़, संख्या कीन्यूनाधिकता से सवर्ण हिंदुओं के दोष में कुछ फर्क नहीं हो सकता। हरिजन की हालतका जो मैंने बयान दिया हैउसमें अगर कुछ फर्क है तो अल्पोक्ति है, अतिशयोक्ति कभीनहीं। ऐसे दलित लोग ईश्वर के प्यारे नहीं हैं, तो जगत नास्तिक बन जाये। सीधी बात यहहै कि ईश्वर है, वह करुणा का भंडार है, दुखियों का दुख हरता है, भूखों का उदर भरताहै। इसलिए हिंदुस्तान में जो सबसे अधिक दुख में पड़े हुए हैं उनको हरिजन कहना यथार्थहैऔर मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हम इन हरिजनों की अस्पृश्यता दूर नहीं करेंगे, उनकोनहीं अपनायेंगे, तो उनकी हाय से हिंदू-जाति का नाश हो जायेगा। तुलसी हाय गरीब की, कभी न खाली जाय, मुए ढोर की चाम से, लोह भस्म हो जाय।
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गांधी से मुलाक़ात –(10)
प्रश्न : आपने कभी सोचा था कि स्वराज मिल जाने पर आपके मरने के बाद कौन राज करेगा?
गांधी :स्वरा
ज का अर्थ है अपना राज। सब अपना-अपना राज करेंगे। जब सब लोगअपने-अपने ऊपर राज करने लगेंगे तब सबका - जनता का - राज होगा। उससे मेरेजीवन-मरण का कोई संबंध नहीं था। मैं तो सिर्फ हकीम था।
प्रश्न :आप अंग्रेजी भाषा में लेख क्यों लिखते थे?
गांधी :इसलिए कि मैं अपनी संचित पूंजी देश के लिए खर्च करना चाहता था।
प्रश्न :आप रेलगाड़ी में क्यों बैठते थे?
गांधी :सरकार की इतनी मेहरबानी हो रही थी। मैं उससे लाभ उठाकर अपना काम चलाताथा।
प्रश्न :आप सबको खादी पहनाना चाहते थे, परंतु वह तो आज भी महंगी मिलती है।
गांधी :विदेशी कपड़ा अगर मुफ्त मिलता, तो भी महंगा है। खादी महंगी मिलने पर भीसस्ती है, क्योंकि खादी खरीदने में खर्च किया गया सारा रुपया भारत के गरीबों के घरजाता है। फिर खादी अधिक दिनों तक चलती है और उससे जो सादगी आती है वह हमारेजीवन के दूसरेभागों में व्याप्त होकर अपनी सुगंध से राष्ट्र के जीवन को सरल और शुद्धबनाती है।
प्रश्न :आप लोगों को किसलिए मरवाते थे?
गांधी :मैं नहीं मरवाता था। लोगों को मरने में आनंद आता था; इसलिए वे अपने देश अथवाधर्म के निमित्त मरने को तैयार हो जाते थे।
प्रश्न :आपके साथी बूट और अंग्रेजी पहनावा क्यों पहनते थे?
गांधी :इससे मेरी सहिष्णुता प्रकट होती है। और इन सज्जनों के साथ रहते हुए भी मैं उन्हें प्रेमपूर्वक यह बताना चाहता था कि भारत में न तो बूटों की जरूरत है और न अंग्रेजीपहनावे की।
प्रश्न :आप लोगों के धर्म में दखल क्यों देते थे?
गांधी :मैं किसी के धर्म में दखल नहीं देता। लोग इतने भोले-भाले भी नहीं कि मुझेदखल देने दें। हां,सब धर्मों के जो सामान्य सिद्धांत हैं उन्हें मैं जरूर लोगों के सामनेउपस्थित करता था और करते रहना चाहता था।
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गांधी से मुलाक़ात –(11)
प्रश्न :वह साहसी और निर्भीक मनोवृत्ति किस काम की,जो उस चीज की रक्षा मेंसहायक न हो सके,जिससे आपको प्रेम है? हो सकता है,आपको मृत्यु का भय न हो, लेकिन अगर आप अंत तक अहिंसा पर दृढ़ रहेंगे तो फिर आप लुटेरों के किसी दल द्वारा अपनी प्यारी वस्तु लुटने से किस तरह बचा पायेंगे? जिन्हें कोई लुटेरा लूट रहा हो,वेअगर हिंसात्मक तरीकों से उसका प्रतिरोध नहीं करते हैं तो उन्हें लूटना तो उसके लिए उस हद तक आसान ही हो जायेगा। संसार में लूट चल रही है और जब तक ऐसे लोगरहेंगे, जिन्हें आसानी से लूटा जा सकता हो,तब तक वह चलती रहेगी। चाहे प्रतिरोध कियाजाये या न किया जाये,सबल लोग दुर्बलों को लूटेंगे ही। दुर्बल होना पाप है। इस दुर्बलतासे,चाहे जैसे भी हो,छुटकारा पाने की कोशिश न करना अपराध है। आपका क्या ख्याल है?
गांधी : भाई, आप यह भूल जाते हैं कि प्रति-प्रहार बराबर सफल नहीं होता। यह भी तो हो सकता है कि लुटेरा यदि अधिक सबल हुआ तो रक्षक को अवश कर दे और उसरक्षक द्वारा किये गये शारीरिक प्रतिरोध से उत्पन्न अपना क्रोध उस बेचारी लुटती हुई नारी पर उतारे। इस प्रकार उस रक्षक द्वारा उसको बचाने के लिए किये गये शारीरिक प्रतिरोधके कारण उस नारी की स्थिति और भी बुरी हो जाती है। यह सच है कि उस हालत में रक्षक को इस बात का संतोष रहेगा कि अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए उसने कुछ भी उठा नहीं रखा। लेकिन,यह संतोष तो अहिंसक प्रतिरोधी को भी प्राप्त होगा। कारण,वहभी उस अबला की रक्षा करने के लिए अपनी जान दे देगा। लेकिन उसे एक और भी बातका संतोष प्राप्त होगा। वह यह कि उसने अनुनय-विनय करके उस लुटेरे के हृदय में दया भरने की कोशिश की। आप के सामने जो समस्या उपस्थित है वह ऐसा मान लेने के कारण है कि अहिंसक रक्षक तो उस लूट का मात्र असहाय दर्शक बनकर रह जायेगा। लेकिन,असलियत यह हैकि प्रेम शरीर-बल की अपेक्षा अधिक सक्रिय और प्रभाव संपन्न शक्ति है। जिसके हृदय में प्रेम नहीं है, उसका अनाक्रामक रहना कायरता है। वह न मनुष्य है, और न पशु। उसने तो यह साबितकर दिया कि वह किसी की रक्षा करने केयोग्य नहीं है।
अपने प्रतिद्वन्द्वी के मुकाबले किसी अहिंसक प्रतिरोधी में कितनी जबर्दस्त शक्ति होती है, यह बात मैंने अनुभव कर ली है। लेकिन स्पष्ट है कि आप इसे महसूस नहीं कर सकते। अहिंसात्मक प्रतिरोध में एक की इच्छा-शक्ति दूसरे की इच्छा-शक्ति से टकराती है। यह प्रतिरोध भी तभी सम्भव है,जब शरीर-बल का सहारालेना बिल्कुल छोड़ दिया जाये। शरीर-बल का सहारा लेने में आमतौर पर यह बात निहितरहती है कि शरीर-बल क्षीण हो जाने पर प्रतिरोधी आत्म-समर्पण कर देगा। क्या आपको यह मालूम है कि जिस नारी में दृढ़ इच्छा-शक्ति होगी वह अपने साथ बलात्कार करने को आये कितने ही शक्तिशाली व्यक्ति का भी प्रतिरोध सफलतापूर्वक कर सकती है?
मैं यह स्वीकार करता हूं कि सबल लोग दुर्बलों को लूटेंगे ही और दुर्बल होना पापहै। लेकिन दुर्बलता पाप है,यह बात मनुष्य की आत्मा के संबंध में कही गई है,शरीरके संबंध में नहीं। अगर शरीर के संबंध में ऐसा कहा जाये,तब तो हम दुर्बलता केपापसे कभी मुक्त हो ही नहीं सकते है। लेकिन आत्मा की शक्ति अपने खिलाफ हाथियारबंद होकर खड़ी सारी दुनिया की ताकत का मुकाबला कर सकती है। यह शक्ति शरीरत: दुर्बल-से-दुर्बल व्यक्ति भी प्राप्त कर सकता है। हृष्ट-पुष्ट शरारती लड़कों को अपनी दुर्बल माताओं के सामने अवश होकर आत्मसमर्पण करते किसने नहीं देखा है? यहां पुत्र की पशुता पर प्रेम विजय पाता है। जो नियम माता और पुत्र के बीच चलता है,वह सर्वत्र लागू किया जा सकता है। यह भी जरूरी नहीं कि प्रेम देने वाले को प्रेम मिले ही। प्रेम तो अपना पुरस्कार आप ही है।बहुत-सी माताओं ने प्रेम के बल पर गलत राह पर चलने वाले अपने जिद्दी बच्चों को वश में कर लिया है। तो हम सब प्रेमशक्ति बढ़ाने का प्रयास करें। इसमें सफलता की पूरी सम्भावना है। कारण, प्रेम-बल बढ़ाने में प्रतिद्वन्द्विता करने का परिणाम शुभ होता है। दुनिया आज तक शरीर-बल अर्जित करके ही शक्तिशाली बनने की कोशिश करती रही है, मगर वह बुरी तरह विफल हुई है। शरीर-बल अर्जित करने में एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने का मतलब समग्र जाति के विनाश का प्रयत्न करना है।
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गांधी से मुलाक़ात –(12)
प्रश्न : मैं युवक हूं गांव में रहकर अपनी जीविका कमाने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने आपकी जीवनी और ग्रामोद्धार के लिए आपने जो कार्य किए उनके बारे में पढ़ा, उससे मुझे 'ग्राम-जीवन' व्यतीत करने की प्रेरणा मिली है।
तीन वर्ष पूर्व, जब मेरी आयु 20 वर्ष की थी, 15 साल शहर में बिताने के बाद मैंनेग्राम-जीवन में प्रवेश किया। मेरी पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी नहीं थींकिमैं कॉलेज कीशिक्षा प्राप्त करता। मेरे पास कुछ जमीन है। हमारे गांव की आबादी लगभग 2,500 है। इस गांव केनिकट सम्पर्क में आने पर मुझे तीन-चौथाई से अधिक लोगों में निम्नलिखित दोष देखनेको मिले हैं :
1. दलबंदी और लड़ाई-झगड़े, 2. ईर्ष्या, 3. अशिक्षा, 4. दुष्टता, 5. फूट, 6. लापरवाही, 7. अशिष्ट व्यवहार, 8. पुराने और निरर्थक रीति-रिवाजों का मोह, 9. निष्ठुरता।
गांव यहां वकीलों का एक संघ है।संघ के सौसदस्यों में से तीन को छोड़कर सब ब्राह्मण हैं। सदस्यों के पानी पीने के लिए एक बरतन है। लेकिन दूसरीजातियों के सदस्यों द्वारा उस बरतन के प्रयोग किये जाने पर ब्राह्मण सदस्यों ने भारी टंटा खड़ा कर दिया।
यह गांव यातायात के केंद्रों से दूर एक कोने में बसा हुआ है। कोई भी बड़ाआदमी कभी ऐसे दूरस्थ गांवों में नहीं आया है। तरक्की के लिए बड़े लोगों का सम्पर्कआवश्यक है। इसलिए मुझे इस गांव में रहते डर लगता है। क्या मैं इसे छोड़ दूं? अगरन छोडूं तो आप क्या रास्ता सुझाते हैं?
गांधी : तुमने ग्राम-जीवन का जो चित्र खींचा है वह अतिरंजित तो अवश्य है,लेकिन आमतौर पर तुम्हारी बातें स्वीकार की जा सकती हैं। इस दुर्दशा का कारण ढूंढ़ना मुश्किल नहीं है। पढ़े-लिखे लोग दीर्घ काल से गांवों की उपेक्षा करते आये हैं। उन्होंने शहरी जीवन ही पसंद किया है।
'ग्रामोद्धार'का मेरा अर्थ है गांवों को ऐसे लोगों के सम्पर्क मेंलाने का आंदोलन जिनकी निकटता ग्रामवासियों के लिए कल्याणकारी हो। इसके लिए तरीका यह है कि सेवा की भावना से अनुप्राणित लोगों को गांवों मेंबसकर ग्रामवासियों की सेवा करके अपनी सेवा-वृत्ति का परिचय देने को राजी कियाजाये।
तुमको जो दोष दिखाई दिये हैं, वे कोई ग्राम-जीवन के सहज अंग नहीं हैं।जो लोग सेवा की भावना से गांवों में जा बसे हैं, वे इन कठिनाइयों के सामने आने परहताश नहीं होते। वहां जा बसने से पहले उन्हें मालूम था कि उन्हें बहुत-सी कठिनाइयोंका, यहां तक कि गांव वालों की उदासीनता और उपेक्षा का भी सामना करना पड़ेगा।
इसलिए जिन्हें अपने ऊपर पूरा विश्वास है और अपने उद्देश्य के प्रति सच्ची श्रद्धा है,वही लोग गांवों की सेवा कर पायेंगे और ग्रामवासियों पर अपना कल्याणकारी प्रभाव डालसकेंगे। लोगों के बीच सच्चा जीवन व्यतीत करना अपने-आपमें एक बहुत बड़ा पदार्थ-पाठ है और आसपास के परिवेश पर उसका प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है।
तुम्हारी कठिनाई शायद यह है कि तुम सेवा की भावना के बिना जीविकोपार्जन के उद्देश्य सेगांव में जा बसा हो।
मैं यह स्वीकार करता हूंकि पैसे की तलाश में गांव में जाने वालोंके लिए ग्राम-जीवन में कोई आकर्षण नहीं है। जिसे सेवा का लोभ नहीं है उसे नवीनताके आकर्षण के चुकते ही ग्राम-जीवन नीरस लगने लगेगा। किसी भी नौजवान को, एकबार गांव में बस जाने के बाद जरा-सी कठिनाई के सामने आते ही गांव को छोड़ नहीं देनाचाहिए। धीरज के साथ अपने काम में लगे रहकर देखने पर पता चलेगा कि गांववालेशहर वालों से बहुत भिन्न नहीं हैं, और अगर उनके साथ प्रेम और कोमलता का व्यवहारकिया जाये और उनकी ओर ठीक ध्यान दिया जाये तो वे भी ठीक उत्साह दिखायेंगे औरसहयोग करेंगे। यह सच है कि गांव में देश के बड़े लोगों के सम्पर्क में आने का अवसरनहीं मिलता। लेकिन ग्राम-मनोवृत्ति का विकास होने पर नेताओं को गांवों में जाकरग्रामवासियों से जीवंत सम्पर्क स्थापित करना आवश्यक लगने लगेगा।
इसके अतिरिक्त,चैतन्य, रामकृष्ण, तुलसीदास, कबीर, नानक, दादू, तुकाराम, तिरुवल्लुरजैसे संतों कीकृतियों के माध्यम से महान्सत्पुरुषों का सम्पर्क तो सबको सुलभ है। ऐसे ही और भीबहुत-से संत हो गये हैं, जिनके नाम गिनाना यहां असम्भव है,किंतु जो उपर्युक्त संतोंके ही समान प्रसिद्ध और धर्मप्राण महापुरुष थे। कठिनाई है तो यही कि मन को इन स्थायीमहत्व की बातों को ग्रहण करने योग्य कैसे बनाया जाये। अगर तात्पर्य आधुनिकराजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं वैज्ञानिक चिंतन से हो, तो ऐसी जिज्ञासा को शांत करने वाला साहित्य भी प्राप्त किया जा सकता है। फिर भी, मैं यह स्वीकार करता हूंकिजितनी आसानी से धार्मिक साहित्य मिल जाता है उतनी आसानी से यह साहित्य नहीं मिलसकता। संतों ने जो कुछ लिखा, जो भी कहा, सब जनसाधारण के लिए। आधुनिक चिंतन को जनसाधारण के ग्रहण करने योग्य रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति अभी ठीक सेआरम्भ नहीं हो पाई है। लेकिन यथासमय यह प्रवृत्ति अवश्य आयेगी। इसलिए तुम जैसे नौजवानों को मैं तो सलाह दूंगा आप लोग हार न मानें, बल्कि अपने प्रयत्न में जुटेरहेंऔर गांवों में रहकर उन्हें अधिक प्रिय और रहने-योय बनायें। यह काम आप लोग गांवों कीसेवा करके कर सकेंगे और यह सेवा भी इस रीति से करनी होगी जो गांव वालों कोस्वीकार्य हो। आप अपने श्रम से गांवों को साफ-सुथरा बनाकर और अपनी सामर्थ्य भर निरक्षरता को मिटाकर इस दिशा में शुरूआत कर सकते हैं। और अगर आप लोगों काजीवन स्वच्छ, सुव्यवस्थित और श्रममय होगा तो इसमें कोई संदेह नहीं कि उसकासंक्रामक प्रभाव उन गांवों में भी फैलेगा जिनमें आप काम करते होंगे।
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गांधी से मुलाक़ात – (13)
प्रश्न : आपकी राय में आदर्श भारतीय ग्राम कैसा होना चाहिए? हिंदोस्तान की मौजूदा सामाजिक और राजनैतिक हालत में उस 'आदर्श'के अनुसार किसी गांव कापुनर्निर्माण करना कहां तक सम्भव है?
गांधी : आदर्श भारतीय ग्राम इस तरह बसाया जाना चाहिए जिससे वह आरोग्य की दृष्टि से बिल्कुल उपयुक्त हो। उसमें घर ऐसे बनाये जायें कि उनमें काफी प्रकाश और वायु आ-जा सके। उन्हें ऐसी चीजों से बनाया जाये जो पांच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हो सकती हैं। हर मकान के आसपास या आगे-पीछे इतना बड़ा आंगन हो जिसमेंगृहस्थ अपने लिए साग-भाजी लगा सके और अपने पशुओं को रख सके। गांव कीगलियों और रास्तों पर जहां तक हो सके धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गांव मेंकुएं हों, जिनका इस्तेमाल गांव के सब लोग कर सकें। सबके उपयोग के लिए प्रार्थना-गृह हों, सभा वगैरह के लिए एक अलग स्थान हो, गांव की अपनी गोचर-भूमिहो, सहकारी ढंग की एक दुग्धशाला हो, ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं हों जिनमें औद्योगिक शिक्षा सर्वप्रधान हो, और गांव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एकग्राम-पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के लिए अनाज, साग-भाजी, फल, खादी वगैरह खुदगांव में ही पैदा और तैयार किया जाये। मोटे तौर पर आदर्श गांव की मेरी यही कल्पना है।
अगर सरकारी सहायता मिलजाये तब ग्रामों की इस तरह पुनर्रचना हो सकती है जिसकी कोई सीमा ही नहीं। पर मैं यही कहूंगा कि अगर ग्रामनिवासियों में परस्पर सहयोग की वृत्ति हो और वे सारे गांव के भले के लिए मिलजुलकर मेहनत करने को तैयार हों तो वे अपने लिए क्या-क्या कर सकते हैं। मुझे तो यह निश्चय हो गया है कि अगर उन्हें उचित मशविरा और मार्ग-दर्शन मिलता रहे तो वे गांव की - मैं व्यक्तियों की बात नहीं करता - आय दूनी कर दे सकते हैं। व्यापारिक दृष्टि से अखूट साधन-सामग्री हर गांव में भले ही न हो,पर स्थानीय उपयोग और लाभ के लिए तो लगभग हर गांव में है। पर सबसे बड़ीबदकिस्मती यह है कि गांव वालों में अपनी दशा सुधारने की कोई इच्छा ही दिखाई नहीं देती।
प्रश्न : कार्यकर्ता (समाजकर्मी या स्वयंसेवी संस्था के सदस्य) को सबसे पहले गांव की किस समस्या को हल करने की कोशिश करनी चाहिए और किस प्रकार उसे उसकी शुरूआत करनी चाहिए?
गांधी : गांव में कार्यकर्ता को सबसे पहले गांव की सफाई के सवाल को अपने हाथ में लेना चाहिए। जो समस्याएं ग्राम-सेवकों के लिए परेशानी का कारण बनी हुई हैं और जो गांव के लोगों का स्वास्थ्य चौपट कर रही हैं तथा जिनसे गांवों में रोग फैलते हैं, उनमें यहसमस्या सबसे अधिक उपेक्षित है। अगर ग्राम-सेवक सेवा-भाव से काम करने वाला भंगीबन जाये तो वह इस काम को मैला उठाकर उसकी खाद बनाने और गांव के रास्ते बुहारनेसे शुरू करे। वह लोगों को बताये कि उन्हें पाखाना-पेशाब कहां करना चाहिए, किस तरहसफाई रखनी चाहिए, उससे क्या लाभ है, और सफाई न रखने से क्या-क्या नुकसान होता है। गांव के लोग उसकी बात चाहे सुनें या न सुनें, वह अपना काम बराबर करता रहे।
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गांधी से मुलाक़ात – (14)
प्रश्न : आपका प्रभाव बढ़ रहा है या घट रहा है?
गांधी : यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर देना बड़ा कठिन है, लेकिन जहां तक जनता का संबंध है, मैं समझता हूं कि प्रभाव बढ़ रहा है।
प्रश्न : क्या यह सच है कि आपके विचार से अंग्रेजों ने भारत का कुछ भी भला नहीं किया? यहां तक कि आप रेलों को भी हानिकारक मानते हैं?
गांधी : कुछ हद तक यह सही है। कुल मिलाकर ब्रिटिश राज्य का भारत पर केवल बुरा प्रभाव ही पड़ा है। रेलों ने भलाई के बजाय हानि अधिक पहुंचाई है।
प्रश्न : क्या वे अकाल के मौकों पर लाभदायक सिद्ध नहीं हुई हैं?
गांधी : वे अस्थाई तौर पर लाभदायक हो सकती हैं। परंतु सामान्यत: उन्हें ग्रामीणों से उन चीजों को छीनने का ही काम किया है, जिनकी उन्हें खुद अपने लिये जरूरत रहती है।
प्रश्न : लेकिन उसके बदले में उन्हें पैसा मिलता है।
गांधी : परंतु पैसा तो वे खा नहीं सकते। यदि आप सहारा के रेगिस्तान में हों और आपके पास अपने को जीवित रखने भर के लिए ही पानी हो, तो क्या आप किसी भी कीमत पर उसे बेचेंगे?
प्रश्न : परंतु क्या वे पैदावार का सिर्फ वही भाग नहीं बेचते जो फाजिल है?
गांधी :अपनी पैदावार को कच्चे माल के रूप में बेचना अपना जन्मसिद्ध अधिकार बेचना है। वे ऐसा इसलिए करते हैं कि उन्हें उसके प्रयोग का दूसरा बेहतर उपाय मालूम नहीं।यदि आप मन से मेरी भलाई चाहते हैं तो क्या आप मुझे खाल बेचकर आपसे, बने हुए जूते खरीदने अथवा अपना कपास आपको बेचकर बुना हुआ कपड़ा खरीदने की सलाह देंगे? मैं अपने देशवासियों से अपना कपास जमा कर रखने और उसकी रूई से सूत कातकर अपना कपड़ा खुद तैयार करने को कहता हूं।
प्रश्न : कहते हैं कि जहां रेलें हैंवहां भुखमरी नहीं है। अकाल के मौके पर रेलें उन जगहों से जहां खाद्यान अधिक होता है, उन जगहों पर, जहां उनकी आवश्यकता हो, बहुत तेजी से ले जाती हैं।
गांधी :जिन्होंने रेलें बिछाईं उन्होंने लोगों का लाभ नहीं सोचा था। उन्होंने अपने दूर बैठेहुए हिस्सेदारों और मालिकों के लाभ की बात सोची थी। अकाल के समय रेलों से जो लाभ होता है वह उससे होने वाली हानियों की बात सोचे तो पासंग पर चढ़ जाता है। यह तो ऐसा हैजैसे कि कोई लुटेरा पहले मेरा सब कुछ लूट ले और फिर मुझे कुछ थोड़ा-सा वापस दे दे।
प्रश्न : रेलें लाभदायक कैसे बनाई जा सकती हैं?
गांधी :रेलों सम्बधी नीति लोगों के वास्तविक लाभ को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए अर्थात् वे लोगों को उसी तरह स्वावलम्बी बना रहने दें जैसे कि वे रेलों के आगमन से पहले थे। आजकल उन्हें बुद्धि और स्वास्थ्य दोनों में दिवालिया बनाया जा रहा है। वे अपने कच्चे माल का अच्छे-से-अछा इस्तेमाल करना जानते थे। वे अपनी रुई से कपड़ा बनाते थे, खालों से जूते बनाते थे और अनाज से रोटी बनाते थे। पर आजकल इसका उल्टा होता है। इससे अधिक बुरी कोई बात मैं मान ही नहीं सकता कि करोड़ों लोगों को अपना कच्चा माल, जिससे वे स्वयं उत्पादन कर सकते हैं, विदेशों को निर्यात करना पड़े और उससे बने माल का आयात करना पड़े। रेलें लाभप्रद ढंग से ग्रामीणों द्वारा बनाई चीजें देश के एक भाग से दूसरे भाग में पहुंचा सकती हैं। लोगों को यह सब सिखाने के लिए बहुत बड़े आंदोलन की आवश्यकता है। पहले भी काफी मात्रा में अंतरप्रांतीय व्यापार होता था।
प्रश्न : क्या विदेशी तरीका अधिक सस्ता नहीं है?
गांधी : नहीं। और यदि वह सस्ता होता, तो भी ज्यादा कीमत पर भी हमारा अपना उत्पादन उससे सस्ता पड़ता। उदाहरणार्थ आश्रम में जब हमने सब्जी पैदा करनी शुरू की, तो प्रारम्भ में वह बाजार से महंगी पड़ी। पर अब वह बाजार की सब्जी जी से अच्छी और सस्ती होती है तथा हमारे आश्रमवासियों को काम भी मिल जाता है।
प्रश्न : आपके उद्देश्य और आदर्श क्या हैं?
गांधी :मैं अहिंसा और सत्य के द्वारा अपने देश की पूर्ण स्वतंत्रता चाहता हूं।
प्रश्न : क्या आप यह सोचते हैंकि आप अहिंसा और सत्य के द्वारा अपने देश को स्वतंत्र करा सकेंगे?
गांधी :मेरा अपना विश्वास तो यही है कि हम स्वतंत्रता केवल अहिंसा के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं, किसी और तरीके से नहीं। मैं हिंसा के बजाय अहिंसा के द्वारा इसकी प्राप्ति अधिक सम्भाव्य मानता हूं।
प्रश्न : स्वतंत्रता से आपका क्या अभिप्राय है?
गांधी :मैं गलती करने और उसको सुधारने की तथा पूरी ऊंचाई तक ऊपर उठने और गिरने की स्वतंत्रता चाहता हूं। मैं बैसाखी के सहारे नहीं चलना चाहता।
प्रश्न : क्या आप यह नहीं समझते कि अंग्रेजों ने भारत का बहुत उपकार किया है?
गांधी :सभी आवश्यक मामलों में उन्होंने जबर्दस्त हानि पहुंचाई है। ‘उन्होंने’ से मेरा मतलब है ब्रिटिश सरकार ने।
प्रश्न : पर आप ऐसा क्यों मानते हैं?
गांधी : क्योंकि वे जनता की आर्थिक, बौद्धिक और नैतिक उन्नति का धीरे-धीरे ह्रास करते चले गये।
प्रश्न : क्या आप यह नहीं मानते कि उन्होंने भारत की आर्थिक उन्नति में मदद की है?
गांधी : स्वयं सरकारी अधिकारियों की अपनी रिपोर्ट के अनुसार भारत अब 50 साल पहले से ज्यादा गरीब है। कुछ व्यक्ति भले ही संपन्न हो गये हों, लेकिन सामान्यत: गरीबी बढ़ ही रही है। सम्पत्ति का कुछ स्थानांतरण हुआ है; लेकिन सामान्य तौर पर देश की समृद्धि नहीं हुई है।
प्रश्न : सरकार का कहना है कि चीजें पहले कभी इतनी नहीं खरीदी जाती थीं।
गांधी :यदि वे यह समझते हैं कि लोग पहले चीजें कम खरीद सकते थे जबकि अब खरीद सकते हैं, तो उनका ऐसा समझना गलत है। ऐसा समझना अर्थ में तो सही है कि लोग उन दिनों ज्यादा वस्तुएं नहीं खरीदते थे, अब वे खरीदते हैंऔर अब खरीदने के लिए [बाजार में] ज्यादा वस्तुएं हैं।
प्रश्न : ब्रिटिश माल का बहिष्कार करने में क्या तुक है? इंग्लैंड अपने माल को ही तो तरजीह नहीं देता। यहां संसार के सब राष्ट्रों को प्रतियोगिता की पूरी छूट है।
गांधी :नहीं यह गलत है। खुली प्रतियोगिता तो केवल एक दिखावा है। इंग्लैंड कितने ही प्रकार के छल-प्रपंचों द्वारा अपने माल को तरजीह जरूर देता है। दिखावटी तौर पर [हर राष्ट्र को अपना माल बेचने की] स्वतंत्रता है पर सच्ची स्वतंत्रता नहीं है। और यदि ब्रिटिश, विदेशियों का पक्ष लेने में निष्पक्ष हों तो भी मेरा उनसे झगड़ा ही रहेगा। मैं चाहता हूं कि भारतीय हितों को तरजीह दी जाये।
प्रश्न : कैसे?
गांधी :सभी प्रकार के विदेशी कपड़े का आयात बंद करके, और उन सभी आयात की हुई वस्तुओं पर, जिनका उत्पादन यहां किया जा सकता है, भारी कर लगाकर।
प्रश्न : परंतु आपका उत्पादन व्यय बहुत अधिक होगा।
गांधी :कीमतों का नीचा या ऊंचा होना किसी देश के उत्कर्ष या अपकर्ष का परिचायक नहीं होता। कीमत के कुछ अधिक होने पर भी किसी दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय यदि मैं अपनी सब्जी जी आप उगाता हूं तो वह निश्चय ही कहीं ज्यादा अच्छा है। बाद में मैं किफायत और सुव्यवस्था का सहारा लेकर कीमतों को कम करने का प्रयत्न करूंगा। सबजी उगाने में कुशलता प्राप्त करने, उससे मिलने वाले सुख, और इस बोध से कि अपनी सब्जी हम स्वयं उगाते हैं, जो लाभ होता है, वह उस थोड़े से लाभ से कहीं अधिक हैजो हमें अहमदाबाद से सस्ती सब्जी खरीदने पर मिल सकता है। कपड़ा उत्पादन के संबंध में भी हम यह सब थोड़े ही समय में कर सकते हैंबशर्ते कि हमें अपने ही साधनों को इस्तेमाल करने दिया जाये।
प्रश्न : संसार में कोई भी देश विदेशी प्रतियोगिता से बरी नहीं है।
गांधी : क्षमा करें। जर्मनी में परिस्थिति दूसरी है। जर्मनी ने जबर्दस्त कर लगाकर विदेशी चीनी को अपने यहां आने से रोका और फिर बड़ी सफलता के साथ चुकंदर से चीनी बनाई। प्रत्येक राष्ट्र अपने नव-उद्योग की रक्षा अनुदान देकर और तटकर लगाकर करता है।
प्रश्न : आपके कहने का मतलब हैकि सभी विदेशी आयात बंद कर दिया जाये और भारत में केवल देश में बना माल ही प्रयोग में लाया जाये?
गांधी : हम वह सब सामान विदेशों से मंगा सकते हैं जिन्हें हम नहीं बना सकते जैसे कि हम आयोडीन ब्रिटेन या जर्मनी से, मोती अरब से, हीरे जोहानिसबर्ग से, लीवर की घडिय़ां इंग्लैंड से तथा पढ़ने योग्य अच्छी पुस्तकें इंग्लैंड, अमेरिका तथा संसार के सब देशों से मंगा सकते हैं। बेशक सुइयां और पिनें दोनों ही खतरनाक चीजें - मैं विदेशों से मंगाना चाहूंगा। इसके अतिरिक्त अन्य बहुत-सी वस्तुएं मैं गिना सकता हूंजिनको दूसरे देशों से मंगाना चाहिए। और हम उन चीजों को, जिनकी उन्हें आवश्यकता है, मुनाफे पर निर्यात करें, पर हमें किसी पर कोई चीज लादनी नहीं चाहिए। उदाहरणार्थ मैं अफीम का उत्पादन भले ही करूं, पर उसे अमेरिका और चीन पर लादने का विचार मुझे नहीं करना चाहिए।
प्रश्न : लेकिन यदि आप अपनी जरूरत की चीजें आप ही बनायेंगे तो क्या आपको श्रम-संबंधी सवालों का सामना नहीं करना पड़ेगा?
गांधी : क्यों? यदि वे उठेंगे तो स्वयं ही सुलझ भी जायेंगे।
प्रश्न : आप यह सब पूंजीवाद के आधार पर करेंगे या साम्यवाद के आधार पर?
गांधी :लोगों की भलाई को दृष्टि में रखकर राष्ट्रीय आधार पर।
प्रश्न : पर उद्योगों में पूंजी कौन लगायेगा?
गांधी :हम स्वयं। हमारी पूंजी तो हमारेपुरुष और हमारी महिलाएं हैं, और वे हमारे यहां करोड़ों की संख्या में हैं।
प्रश्न : आपके उद्योगों की व्यवस्था राज्य करेगा या देश?
गांधी :यदि इन उद्योगों से करोड़ों की भलाई होती है, किसी एक वर्ग की नहीं तो यह बात कोई अर्थ नहीं रखती कि इसकी व्यवस्था कैसे की जाये। और यदि यह अभिप्राय सिद्ध हो जाता हैतो मुझे इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि कौन इसकी व्यवस्था करता है।
गांधी से मुलाक़ात – (15)
प्रश्न : आपने आजादी के संघर्ष के बीच ग्राम-गणतंत्र की 'कल्पना' प्रस्तुत की? आपको ऐसी कल्पना प्रस्तुत करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
गांधी : मैंने 'आदर्श'ग्राम-गणतंत्र की 'कल्पना' प्रस्तुत की। यह एक 'शब्द-चित्र'है । इस आदर्श से कोई कितना सहमत या असहमत है – यह विचारणीय प्रश्न था। लेकिन इससे ज्यादा यह जरूरी है कि आजादी के लिए संघर्षरत देश इस तरह के आदर्श कीकल्पना करे और उसे सदा दिल-दिमाग की दृष्टि में रखे – इसपर मिल-बैठ कर विचार-विमर्श करे। इस पाठ के आधार पर आजाद देश अपने गांव-समाज के लिए ग्राम-गणतंत्र का ‘घोषणा-पत्र’ तैयार करे – अपनी बोली-भाषा में।
प्रश्न : जब संविधान और सरकार बनने-बनाने की कवायद चल रही है, तब इसकी क्या जरूरत है?
गांधी : मेरी मान्यता यह है कि संविधान और सरकार में उसे साकार करने की समस्त सम्भावनाएं विद्यमान हैं।फिर भी, हम ज्यादा की आशा नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि ‘स्टेट’ या सरकारमें ऐसी सम्भावनाएं नहीं दिखाई देतीं, बल्कि इसलिए कि सर्वथा स्वैच्छिक होनेके कारण स्टेट या सरकार संबंधित पक्षों की आम सहमति की अपेक्षा रखेगी। जबकि इनपक्षों का कोई सामान्य लक्ष्य नहीं है।स्वयं सत्ताधारी पक्ष और विपक्ष में भी ‘स्वाधीनता के तत्वों’ के संबंध में मतैक्य नहीं है। उनमें, पता नहीं, विकेंद्रीकरण में विश्वास करते हुए कितने लोग गांव को केंद्र (केंद्र-बिंदु)मानते हैं। इसके विपरीत, हमें यह मालूम है कि बहुतों की यह कामना है किभारत एक प्रथम कोटि की सैनिक शक्ति बन जाये और उसकी एक शक्तिशाली केद्रीयसत्ता हो, जिसके चारों ओर पूरा ढांचा खड़ा किया जाये।
इन परस्पर-विरोधी आदर्शों के बीच यदि भारत को शुद्ध विचार पर आधारित शुद्धकर्म का लीडर बनना है, तो इन बड़े-बड़े लोगों की बुद्धि को निरस्त करना होगाऔर गांवों को अपनी बात अपने ढंग से पेश करने की शक्ति हासिल करनी होगी।
प्रश्न : आपके ग्राम-गणतंत्र की कल्पना में स्वाधीनता और स्वराज का क्या अर्थ है?
गांधी : स्वाधीनता का अर्थ है जनता की स्वाधीनता - आज जो लोग उस परशासन कर रहे हैं उनकी नहीं। आज वे जिस जनता पर राज कर रहे हैं उसी जनता कासेवक बनकर उसकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए उन्हें हमेशा तैयार रहनाहोगा।स्वाधीनता की शुरुआत बिल्कुल निचले स्तर से होनी चाहिए। इस तरह हर गांव एकगणतंत्र या पूर्ण सत्ताधारी 'पंचायत'का रूप होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि हरगांव को स्वावलम्बी और अपने मामलों को खुद संभालने में समर्थ होना होगा। इसमें पड़ोसियोंया दुनिया पर निर्भर करने और स्वेच्छा से ली जाने वाली मदद लेने की मनाहीनहीं होगी। यह पारस्परिक शक्तियों का ‘फ्री’ और स्वैच्छिक कार्य-व्यापारहोगा।
प्रश्न : ऐसे समाज को तो बहुत ‘सुसंस्कृत’ होना होगा।
गांधी :बेशक! ऐसे समाज में हर स्त्री औरपुरुष ऐसा होगा जिसे यह मालूम होगा कि उसे क्या चाहिए और इससे भी बढ़कर यहमालूम होगा कि किसी को भी ऐसी किसी चीज की इच्छा नहीं होगी जिसे अन्य लोगउतने ही श्रम से प्राप्त नहीं कर सकते।
प्रश्न : ऐसे गांवों के ढांचा कैसा होगा?
गांधी : असंख्य गांवों से बना यह ढांचा महासागरीय वृत्त के समान होगा। कभी भी आरोहणशील नहीं, बल्कि सततविस्तारशील वृत्त। जीवनका रूप पिरामिड-जैसा नहीं होगा, जिसमें शीर्षस्थ-खंड का बोझ निम्नस्थ उठाताहै। इस तरह अंतिमतः व्यक्तियों से बना यह संपूर्ण ढांचा एकजीवन का रूप ले लेगा। उसके अंतर्गत व्यक्ति आक्रामक नहीं, बल्कि विनयशीलहोंगे, और सभी उस महासागरीय वृत्त की भव्यता के सहभागी होंगे जिसके कि वेअभिन्न अंग हैं।
इसलिए सबसे बाहरी परिधि में जो सत्ता निहित होगी वह आंतरिक वृत्त कोकुचलने के लिए नहीं, बल्कि सभी को शक्ति देने के लिए होगी और वह परिधिस्वयं उन वृत्तों से शक्ति प्राप्त करेगी।
प्रश्न : आदर्श ग्राम-गणतंत्र का यह शब्द-चित्र पढ़-सुनकर बेगाना तो बेगाना, कोई अपनासंगी-साथी भी ताना मार सकता है कि “यह सब अलभ्य आदर्श है! इस पर ध्यानदेने से क्या लाभ है? इस पर विचार-विमर्श करना तो जान-बूझकर व्यर्थ मेंसमय गंवाने जैसा है।
गांधी : इस ताने का विनम्र जवाब इतना ही हो सकता है कि “कोई भी मनुष्य यूक्लिड काबिंदु अंकित नहीं कर सकता। फिर भी यदि उस बिंदु का एक अमिट महत्व है, तोमनुष्य समाज के वजूद और विकास के लिए इस चित्र का भी अपना महत्व है।इस चित्र को कभी भी पूर्णतः साकार नहीं किया जा सकता, फिर भी समाज उसके लिएजिये। सही तस्वीर पास में होने पर ही हम उससे कुछ मिलती-जुलती चीज हासिल करसकते हैं। यदि कभी देश के हर गांव को एक गणतंत्र बनना है, तो इस चित्र केसही होने का दावा किया जा सकता है, क्योंकि इसमें जो अंतिम है वह प्रथम कासमकक्ष है, या दूसरे शब्दों में कहें तो इसमें न तो कोई प्रथम होने वाला हैऔर न अंतिम।
इस चित्र में हर धर्म का अपना पूरा और समान स्थान है। हम सब एक विशाल वृक्षके पत्ते हैं। उस वृक्ष की जड़ें हिलाई नहीं जा सकतीं; क्योंकि वे धरती केगर्भ मेंजमी हुई हैं। प्रबल-से-प्रबल वायु-वेग भी उसे विचलित नहीं करसकता।
इसमें ऐसी मशीनों के लिए कोई स्थान नहीं है जो मानव-श्रम की जगह ले सकतीहैं और सत्ता को समेट कर चंद हाथों में रख देने का साधन बन सकती हैं।सुसंस्कृत मानव-परिवार में श्रम का अपना अद्वितीय स्थान है। जो मशीन हरव्यक्ति की सहायक है उसके लिए स्थान अवश्य है। लेकिन वह मशीन कौन-सी होसकती है, इस पर हमें निश्चित ही मिल-बैठकर विचार करना होगा। (जैसे, सिंगरकी सिलाई मशीन)
प्रश्न : हिंदोस्तान में किसी भी क्षण जो परिस्थिति पैदा हो सकती है, उसके मद्देनजर क्या आप एक ऐसी ग्राम-गणतंत्र की रूपरेखा या ढांचा पेश कर सकते हैं जोगांवों के सभी मामलों में, किसी ऊपरी प्रशासन या संस्था के अभाव में और उस पर किसीतरह निर्भर न रहते हुए भी, अपना काम कर सके? खासतौर पर आप ऐसा क्या प्रबंधकरेंगे जिससे ग्रामम-सरकार को गांव का पूरा-पूरा प्रतिनिधित्व प्राप्त रहे और वह निष्पक्ष भाव से,कुशलतापूर्वक, किसी की भी राजी-नाराजी की परवाह किये बिना अपना काम कर सके?उसके अधिकार क्षेत्र की क्या मर्यादा होगी और उसके आदेशों का पालन कराने के लिएकौन-सा तंत्र काम करेगा? और वह कौन-सा तरीका होगा जिससे समूची सरकार या शासन-समिति याउसके सदस्य भ्रष्टाचार, अक्षमता अथवा दूसरी अयोग्यता के कारण हटाये जा सकें?
गांधी : ग्राम-गणतंत्र या ग्राम-स्वराज की मेरी कल्पना तो यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण गणतंत्र होगाजो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ौसी पर भी निर्भर न करेगा, और फिर भीबहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए, जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य हो, परस्पर सहयोग सेकाम करेगा। इस तरह हर एक गांव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत कातमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी फाजिलजमीन होनी चाहिए जिसमें ढोर चर सकें और गांव के बूढ़ों व बच्चों के लिए मनबहाली केसाधन और खेल-कूद के मैदान वगैरह का बंदोबस्त हो सके। इसके बाद भी जमीन बचीतो उसमें वह ऐसी ‘उपयोगी’फसलें बोयेगा जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके,पर वह गांजा, तम्बाकू, अफीम वगैरह की खेती से बचेगा। गांव की अपनी नाटकशाला,पाठशाला और सभाभवन रहेगा। पानी के लिए उसकी अपनी व्यवस्था होगी, जिससे शुद्धपानी मिला करेगा। कुओं या तालाबों पर नियंत्रण रख कर यह काम किया जा सकता है।
बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक की शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहां तक होसकेगा, गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किये जायेंगे। जात-पात और अस्पृश्यताके जैसे भेद आज हमारे समाज में पाये जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिल्कुल नहींरहेंगे। सत्याग्रह और असहयोग की तकनीक वाली अहिंसा ही ग्रामीण समाज का शासन-बल होगी। ग्राम-रक्षकों का एक ऐसा दल रहेगा, जिसे लाजिमी तौर पर, बारी-बारी से,गांव के पहरे का काम करना होगा। इसके लिए गांव में ऐसे लोगों का एक रजिस्टर रखाजायेगा। गांव का प्रशासन चलाने के लिए गांव की एक पंचायत होगी,जिसके लिए न्यूनतम निर्धारित योग्यता वाले गांव के बालिग स्त्री-पुरुष हर साल अपने पंचचुनेंगे। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूंकि इसग्राम-स्वराज में दंड की, आज के प्रचलित अर्थों में, कोई व्यवस्था नहीं होगी, इसलिएयह पंचायत अपने एक साल के कार्य-काल में स्वयं ही धारा-सभा, न्यायपालिका औरकार्यपालिका का सारा काम करेगी। आज भी अगर कोई गांव चाहे तो वह अपने यहां इसतरह का गणतंत्र कायम कर सकता है। उसके इस काम में मौजूदा सरकार भी ज्यादादस्तन्दाजी नहीं करेगी, क्योंकि उसका गांव से जो-कुछ भी प्रभावकारी संबंध है, सोसिर्फ मालगुजारी वसूल करने तक ही है।
यहां मैंने इस बात का विचार नहीं किया है किइस तरह के गांव का उसके अपने पास-पड़ौस के गांव के साथ या केंद्रीय सरकार केसाथ, अगर वैसी कोई सरकार हुई तो क्या संबंध रहेगा। मेरा आशय तो ग्राम-शासन कीएक रूपरेखा पेश करना है। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित एक पूर्ण प्रजातंत्र होगा। यहां व्यक्ति ही अपनी सरकार का निर्माता होगा। उसकी सरकार और वह दोनोंअहिंसा के नियम के अनुसार चलेंगे। अपने गांव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति कामुकाबला कर सकेगा, क्योंकि हर ग्रामवासी के जीवन का सबसे बड़ा नियम यह होगा किवह अपनी और अपने गांव की इज्जत की रक्षा के लिए मर मिटे।
प्रश्न : आप अपनी इस तसवीर का सा रूप अपने सेवाग्राम को क्यों नहीं दे पाये?
गांधी : मैं कोशिश कर रहा हूं। सफलता की एक धुंधली-सी झांकी मुझे मिली है, लेकिन मैं प्रत्यक्ष में कुछ भी दिखा नहीं सकता। किंतु जो चित्र यहां प्रस्तुत किया गया है, उसमें असम्भव-जैसी कोई चीज नहीं है। ऐसे एक गांव कोतैयार करने में, सम्भव है, एक आदमी की पूरी जिंदगी खप जाये। सच्चे प्रजातंत्र का औरग्राम-जीवन का कोई भी प्रेमी एक गांव को लेकर बैठ सकता है और उसी को अपनी सारीदुनिया मानकर उसके काम में जुट सकता है। निश्चय ही उसे इसका अच्छा फल मिलेगा। वह गांव के भंगी, कतैये, चौकीदार, वैद्य और शिक्षक का काम एक साथ शुरू करके इसदिशा में अपना प्रयत्न आरम्भ करे।