बोधगया आंदोलन की यादें-3

:: न्‍यूज मेल डेस्‍क ::

गया से मुंबई के सफर के दौरान मैं मणिमाला जी द्वारा कही पंक्ति, 'जो जमीन को जोते-बोये, वो जमीन का मालिक होये', याद कर रही थी और अपने गया के अनुभवों को मन में दोहरा रही थी. गया में जब हम लोग धान बो रहे थे और महिलाएं गाना गा रही थी, उस गाने की एक पंक्ति सुन कर मैंने उसका मतलब जानने की कोशिश की. पंक्ति थी - 'हमरे घरवा सुअर के बखोर हो किसनवां.'

बोधगया आंदोलन में महज चंद दिनों के लिए और एक कार्यक्रम में  शामिल होकर मुझे काफी गर्व हुआ. खास तौर पर यह जान कर कि इस ज़मीन के मालिक अब मज़दूर होंगे और फसल भी उनकी ही होगी. 

आईने भी नहीं थे उनके  पास! 

कार्यक्रम खत्म होने तक मैं काफी थक चुकी थी. जोरों से भूख लग रही थी. मुझे याद है, उस दिन पहली बार मैंने कटहल की सब्जी और रोटी खायी थीं, जो बहुत स्वादिष्ट थीं. याद है कि नहा-धोकर मैं उन कपड़ों में तैयार हुई, जो मैंने मुंबई में खरीदे थे. मैंने एक महिला से अपना चेहरा देखने के लिए शीशा (आईना) माँगा. उसने कहा-शीशा तो नहीं है. मैं  हैरान थी कि शीशा जैसी साधारण वस्तु वहां नहीं थी. मैं बहुत देर तक स्तब्ध और उदास रही. जब विश्वनाथ बागी (धनबाद के जिंदादिल साथी, जो अब नहीं हैं) ने  मेरी उदासी का कारण पूछा.  मैंने बताया, तो उसने हंस कर कहा, 'अरे बुड़बक, इन लोगों के पास खाने को नहीं है और तुम शीशे की बात कर रही हो.'  मैं चुप रही. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि लोग  इतने भी मज़बूर हो सकते हैं. उस वाकये के बाद मैं वहां की महिलाओं से ज़्यादा बात करने लगी. उससे पहले तक मैं संघर्ष वाहिनी के साथियों के साथ ही वक्त बिताती थी. जैसे-जैसे मैं महिलाओं के करीब आने लगी, उनकी बातें समझने लगी, मुझमें एक बदलाव-सा आने लगा. मुझे समझ में आया कि यह भी एक ज़िन्दगी है और लोग ऐसे भी जीते हैं. 

कई वर्ष बीत गये उस बात को, पर वो वाकया मेरे जेहन से नहीं गया. आज भी, जब कभी मान तालुका में सूखा पड़ता है तो हम ‘मानदेशी फाउंडेशन’ की तरफ से जानवरों के पानी और चारे के लिए कैटल-कैंप चलाते हैं, सभी किसान और उनके परिवार एक जगह पर इकठ्ठा होते हैं. जब मैं कैंप में जाती हूँ, तो सभी लड़कियों को शीशा देती हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि हर तरुण लड़की को शीशे की ज़रूरत होती है. और अगर आईने जैसी साधारण वस्तु भी उसे न मिले, तो यह बहुत दुख की बात है.

दूध की चाय!
बोधगया आंदोलन से जुड़ी और भी यादें हैं. मुझे सुबह-सुबह चाय पीने की आदत बहुत सालों से है. और पिपरघट्टी गाँव में दूध न होने के कारण सभी को बिना दूध की चाय पीनी पड़ती थी. मैं हर सुबह पूछती थी कि दूध कहीं मिलेगा क्या? एक दिन मैंने ज़िद्द की कि किसी भी तरह हम गाँव से गया जायेंगे, क्यूंकि मुझे दूध वाली चाय पीनी थी. साथ में संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता भी थे. रास्ते में कहीं हमें साइकिल रिक्शे से सफर करना था. मुझे बुरा लग रहा था कि हम सब बैठेंगे और रिक्शेवाला हमें ढोयेगा. श्रीनिवास जी ने मज़ाक में कहा 'अभी तुम बैठो, थोड़ी देर बाद तुम रिक्शा चलाना, और रिक्शा चालक बैठ जायेगा.' मैंने कहा, 'मैं तो नहीं चला सकती'. थोड़ी देर बाद श्रीनिवास जी ने सचमुच उस रिक्शेवाले से पीछे सीट पर बैठने कहा, बोले- रिक्शा वो चलाएंगे. रिक्शा वाला कहता रहा कि 'भाईजी आप बैठो मैं चलाऊंगा', पर श्रीनिवास जी ने उसकी एक न सुनी और रिक्शा चलाने लगे.  यह देख कर मेरे मन में एक बात आयी कि श्रम-बंटवारे का इससे अच्छा उदाहरण क्या होगा. श्रम-बंटवारे से श्रम करने वाले को एक अलग सम्मान मिलता है. जैसे-तैसे हम लोग गया पहुँच गये और बड़े दिनों बाद मुझे दूध की चाय मिली. चाय पीकर हम लोग फिर से पिपरघट्टी के लिए रवाना हुए. बाराचट्टी ब्लॉक में मीटिंग हुई. 5-6 दिन बाद हम लोग पहले पटना और फिर मुंबई के लिए निकले.

मुझे याद है, बोधगया जाते वक़्त मैं और अलका गौतम बुद्ध की किताबें लेने लाइब्रेरी गये.थे. क्यूंकि हम उस इलाके में जा रहे थे, जहाँ गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. जब मैं मुंबई लौटी, तब पता चला कि राहुल सांस्कृतायन ने भी एक किताब लिखी है, जिसका नाम था 'वॉल्गा टू गंगा.' जमींदारी व्यवस्था को बेहतर तरीके से समझने के लिए मैंने वो किताब खरीदी थीं .

गया से मुंबई के सफर के दौरान मैं मणिमाला जी द्वारा कही पंक्ति, 'जो जमीन को जोते-बोये, वो जमीन का मालिक होये', याद कर रही थी और अपने गया के अनुभवों को मन में दोहरा रही थी. गया में जब हम लोग धान बो रहे थे और महिलाएं गाना गा रही थी, उस गाने की एक पंक्ति सुन कर मैंने उसका मतलब जानने की कोशिश की. पंक्ति थी - 'हमरे घरवा सुअर के बखोर हो किसनवां.' उसका मतलब था - हमारे घर सुअर जहाँ रहते हैं, उस तरह के हैं. बोधगया में मुझे पहली बार मुसहर जाति और भुइयां जाति के बारे में मालूम हुआ. आंदोलन के दौरान ये चर्चा शुरू हो गयी थीं कि जो महिलाएं आंदोलन से जुड़ी.हुई हैं, उनके नाम पर जमीन का पट्टा (कागज)  होगा, न कि उनके पति के नाम पर. ये बहुत स्पष्ट हो रहा था कि महिलाएं अपना अधिकार लेकर रहेंगी. यह देख कर मैंने तय किया कि मैं बोधगया दोबारा आऊंगी. महिलाओं को ज़मीन की मिल्कियत लेते हुए देखना है. मुझे याद है, मैं शाम को सभी महिलाओं के साथ बैठी थीं, तभी मांजर देवी (आंदोलन की शीर्ष और जुझारू महिला नेताओं में से एक) और उनकी बेटी कनक जी के पास आयीं और कहा कि हमको इस जमीन का पट्टा लेना है. यह बात करते वक़्त उनकी आंखों में जो चमक थीं, उससे पता चल रहा था कि आंदोलन की जो महिला नेता हैं, उनको भी पूरा विश्वास था कि वो अपनी ज़मीन लेकर ही रहेंगे. इस आत्मविश्वास ने मुझे और कटिबद्ध किया बोधगया वापस आने के लिए.

बोधगया आंदोलन की बात को काफी साल हो चुके हैं, पर 'हमरे घर सुअर  के बखोर हो किसनवां..' यह पंक्ति आज भी मेरे मन में बार-बार आती है.

जब कभी भी मैं बोधगया आंदोलन की बात कहीं करती हूँ, तो इस पंक्ति का जिक्र आता ही है और हमेशा आता रहेगा. बोधगया संघर्ष की विशेषता यह थी कि महिलाएं खुद उस आंदोलन से बराबरी से जुड़ीं. जमीन तो मिली ही और महिलाओं के नाम पर मिली. ऐसा देश में और शायद विश्व में पहली बार हुआ था. इन महिलाओं ने और संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ताओं ने महिलाओं के संपत्ति के अधिकार का झंडा गाड़ दिया था. 

कारू जी ने जिन महिलाओं का नाम लिया, उन सभी ने बोधगया में नेतृत्व किया था. न सिर्फ बोधगया, बल्कि पूरे भारत में धारा 7/13 कानून भी बना. जो महिलाएं 'हमर घरवा सुअर के बखोर हो किसनवां' गाती थीं, उनमें इतनी ताकत थीं कि उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि वो अपने नाम पर जमीन पर अधिकार ले सकते हैं और कागज़ात ला सकती हैं. समाप्‍त. 

चेतना..

लेखिका: चेतना

 

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