बोधगया आंदोलन की यादें-2

मैं पटना पहुंच गयी. पटना से गया मेरी पहली बिना टिकट वाली यात्रा थी. टीटी आये और टिकट के लिए पूछा, तो हमने बताया- हम संघर्ष वाहिनी से हैं. यह सुन कर उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं को बिना टिकट के बैठने की इजाज़त दी. यह मेरे लिए एकदम अलग अनुभव था. मैं मन ही मन खुश हो रही थीं कि हमारे देश में आंदोलनकारियों को कितना सम्मान हासिल है, उन्हें कैसे छोड़ दिया जाता है. इसमें मुझे आंदोलन की मजबूती झलक रही थीं.

मैंने देखा- डब्बों में वायर थे, बल्ब नहीं थे. शौचालय में नल गायब थे. मैंने साथियों से जानने की कोशिश की कि ऐसा क्यों है? उन्होंने बताया कि सभी कुछ चोरी हो जाता है. ये सुन कर काफी हैरानी हुई.

मुझे याद है, उस यात्रा के साथियों में श्रीनिवास जी (बेतिया, चंपारण के) भी थे, हालांकि उनकी सीट मेरी सीट से दूर थी. वे अखबार पढ़ रहे थे. किसी ने उनसे अखबार माँगा. उन्होंने जवाब में कहा- ‘ठहरिये, मैं एक बहुत महत्वपूर्ण खबर पढ़ रहा हूँ.’ मांगने वाले ने पूछा, ‘कैसी खबर?’ श्रीनिवास जी ने कहा- ‘खबर ट्रेन में हुए एक मर्डर के बारे में है. एक व्यक्ति अखबार पढ़ रहा था. दूसरे व्यक्ति ने उससे अखबार मांगा, तो पढ़ने वाले ने उसका खून कर दिया.’ उनका ये मजेदार जवाब सुन कर मुझे मन ही मन हंसी आयी. मैं अपनी जगह से उठी और श्रीनिवास जी के पास जाकर बैठ गयी. बाकी का सफर काफी मज़े से गुजरा और हम सब गया पहुँच गये.

गांव की ओर

वहां से हम पिपरघट्टी के लिए निकले. मुझे ठीक से नहीं, पर इतना याद है कि पहले हम लोग ब्लॉक और वहां से गाँव गये, जहाँ एक और मीटिंग रात में होने वाली थी. मीटिंग में कारू जी भी थे. उनके अलावा मज़दूर किसान समिति के नेता मांझी (पूरा नाम याद नहीं) जी भी वहां मौजूद थे. मुझे उनके पास बैठ कर बातें करने का बहुत मन था, पर मुझे उनकी बोली-भाषा समझ नहीं आ रही थी.

मुझे अगली सुबह का बेसब्री से इंतजार था, क्योंकि अगली सुबह जिस जमीन को संघर्ष वाहिनी के लोगों ने कब्जे में लिया था, उस जमीन पर मज़दूर-किसान द्वारा धान बोने का कार्यक्रम होने वाला था. मैंने उससे पहले कभी धान की खेती देखी नहीं थी, बल्कि मैं उससे पहले किसी गाँव में भी नहीं गयी थी. दूसरे दिन सुबह पांच बजे संघर्ष वाहिनी और मजदूर किसान समिति के कार्यकर्ता बड़ी-बड़ी लाठी लिये सभी को उठाने आये, यह कहते हुए कि ‘चलो-चलो हमें धान बोने जाना है.’ अँधेरे में जब मेरी नज़र उनकी लाठियों पर पड़ी तो मेरे मन में एक सवाल आया, अगर मठ की तरफ से गोलियां चलीं, तो क्या ये लाठियां काम आएँगी? सवाल मन में उठ ही रहा था और मैंने देखा बहुत से लोग जिनमें काफी महिलाएं भी थीं, घरों से बाहर आकर उस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आ रहे थे. मैं दुविधा में थी कि उसे संघर्ष का कार्यक्रम माना  जायेगा या रचना/सृजन का, क्योंकि वे तो नयी फसल लगाने जा रहे थे! सभी नारा लगा रहे थे- ‘जो जमीन को जोते-बोये, वो जमीन का मालिक होये.’ सभी महिलाएं गाना गा रही थीं और मैं उनके साथ गाने की कोशिश कर रही थी. धान के पौधे लेकर हम लोग खेतों की तरफ चल दिये. गाना गाते-गाते और नारों की गूँज के बीच हमने धान बोना शुरू किया. लाठी और गोलियों की बात मेरे दिमाग से निकल गयी. मुझे याद है , बोते-बोते मैं महिलाओं से पूछ रही थीं- ‘आप इतना कैसे झुक सकते हो?’ मैं झुक ही नहीं पा रही थी. थोड़ी-थोड़ी देर में थक कर बैठ जा रही थीं.
(जारी)

चेतना..

लेखिका: चेतना

 

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