जमीन-जंगल से बेदखली की संभावना से उबाल

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:: अरविन्द अविनाश ::

अब तो कानून बना कर या पहले से बने कानूनों में संशोधन कर आदिवासियों व यहां के मूल निवासियों के जल, जंगल व जमीन पर पुरखा अधिकार से वंचित करने की कोशिश तेज हो गई है। कानूनों में बदलाव केन्द्र से लेकर राज्य तक में तेजी से हो रहा है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि अंग्रेजों के जमाने से लागू दमनकारी, अवांछित, पीड़ादायक, जनतंत्रा के लिए अनेपेक्षित कानूनों में कोई बदलाव नहीं हो रहा है, बल्कि उन्हें और सशक्त किया जा रहा है। अंग्रेजी जमाने से लागू भारतीय दंड संहिता में सुधार के बदले दमनकारी यूएपीए जैसे काले कानूनों को और सशक्त किया जा रहा है। दूसरी ओर उन कानूनों को बदलने की तैयारी है, जो थोड़ा भी आम जन के हित में खड़े दिख रहे हों। 

सदियों से विकास व बेहतरी शब्द आदिवासियों के साथ ही यहां के मूल निवासियों के लिए छलावा साबित होते रहेे हैं। उनके लिए तो और भी छलावे के साथ ही विश्वासघात के पर्याय सिद्ध हुए हैं, जो जंगल-पहाड़ पर खनिजों के ढेर पर पुरखा जमाने से रहते आ रहे हैं। विस्थापन-बेदखली यहां की नग्न सच्चाई है और विकास-बेहतरी जादुई शब्द, जिसकी सच्चाई अब यहां का हर अनुभवी वसिंदा समझने लगा है। दुःखद और गौर करने लायक तो यह कि अंग्रेजी राज-पाठ के समय से आरम्भ हुआ प्राकृतिक संसाधनों की लूट आजादी के बाद भी जारी है। यदि सच कहा जाये तो अंग्रेजी सम्राज्य से अधिक की लूट आजादी के बाद हुई है।
आजादी के 73 सालों का इतिहास इस बात का गवाह है कि देशहित, विकास, रोजगार व बेहतरी जैसे लोक-लुभावन शब्दों की आड़ में झारखंडियों को अंग्रेजी जमाने से ज्यादा बेदखली-विस्थापन की पीड़ा से गुजरना पड़ा है। उद्योग, बुनियादी ढांचा, बिजली, खदान, सड़क, बांध जैसे सुनने में अच्छे लगने वाले शब्द; इनके लिए उत्पीड़न के पर्याय सिद्ध हुए हैं। आजादी के तुरंत बाद यानी 1951 से 1995 तक में ही 15 लाख से अधिक लोग झारखंड से विस्थापित हो चुके हैं। इनमें आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है। न सिर्फ, इतने लोग बेदखली के शिकार हुए हैं बल्कि इतनी ही एकड़ जमीन भी अधिगृहित की गई है। 
1995 के बाद की कहानी तो और भी पीड़ादायक व लहू से लथपथ है। झारखंड जो यहां के निवासियों को लूट-दमन व शोषण से निजात दिलाने के सपने को केन्द्र में रख कर बना था, वह भी धोखा ही साबित हुआ। लड़ाका पुरखा बिरसा जिसने जल, जंगल व जमीन पर अधिकार के लिए उलगुलान का बिगूल फूंका था, उनके जन्म दिन 15 नवम्बर को अस्तित्व में आये राज्य, झारखंड से झाड़झखाड़ को ही मिटाना पर सरकारें आमदा हो गयीं। झारखंडियों के सपने तो टूटे ही, लड़ाका पुरखों के सपनों को भी रौंदा गया। प्राकृतिक संसाधनों की लूट बंदूक के बल पर बढ़ गई। राज्य गठन के दो महीने बाद ही तपकरा में राज्य का असली चेहरा सामने दिख गया, जिसमें आठ लोग पुलिस की गोली के शिकार बने और दर्जनों घायल हुए। लूट-दमन का सिलसिला आज भी न सिर्फ अवाध रूप से जारी है, बल्कि दिनों दिन तेज होती जा रही है। कानून व्यवस्था की लचर व्यवस्था से कोई भी अपने को महफूज नहीं मान सकता।
अब तो कानून बना कर या पहले से बने कानूनों में संशोधन कर आदिवासियों व यहां के मूल निवासियों के जल, जंगल व जमीन पर पुरखा अधिकार से वंचित करने की कोशिश तेज हो गई है। कानूनों में बदलाव केन्द्र से लेकर राज्य तक में तेजी से हो रहा है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि अंग्रेजों के जमाने से लागू दमनकारी, अवांछित, पीड़ादायक, जनतंत्रा के लिए अनेपेक्षित कानूनों में कोई बदलाव नहीं हो रहा है, बल्कि उन्हें और सशक्त किया जा रहा है। अंग्रेजी जमाने से लागू भारतीय दंड संहिता में सुधार के बदले दमनकारी यूएपीए जैसे काले कानूनों को और सशक्त किया जा रहा है। दूसरी ओर उन कानूनों को बदलने की तैयारी है, जो थोड़ा भी आम जन के हित में खड़े दिख रहे हों। 
भारतीय वन अधिनियम में होने वाला प्रस्तावित बदलाव को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अंग्रेजी राज के जमाने में ही पहले-पहल समुदाय को जंगल, जल व जमीन पर समुदायिक हक से वंचित किया गया था। अंग्रेजों ने ही सबसे पहले जंगल को अपने अधीन लिया था और एक संसाधन मात्रा मान कर मनमाने तरीके से लकड़ियों का उपयोग आरम्भ किया था। कई सालों के बाद 1927 में भारतीय वन कानून बनाया गया था, जिसमें समुदाय के लिए बहुत तो नहीं लेकिन जंगलों में कम से प्रवेश, सूखी लकड़ी लाने की छूट थी। आज उस कानून को भी, विश्व की सबसे लोकतांत्रिक देश होने का दम्भ भरने वाली सरकार बर्दास्त करने को तैयार नहीं है। जंगल की सुरक्षा, सम्वर्द्धन व प्रबंधन के नाम पर  1927 में बने इस कानून में बदलाव की तैयारी जोर-शोर से है। बदलाव के लिए लाये जा रहे प्रावधान बड़े खतरनाक हैं। यह कानून जंगल पर समुदाय के अधिकार को पूरी तरह खारिज कर वन विभाग को सशक्त कर देने की ओर बढ़ाया गया कदम है। खास बात यह कि आदिवासियों के साथ सदियों से हुए अन्याय को कम्पलसेट करने के लिहाज से 2006 में केन्द्र्र सरकार द्वारा ही बनाये गए वनाधिकार कानून को भी नजरअंदाज किया गया है। अपने द्वारा बनाये गए कानून का उल्लंघन कर वन विभाग को हथियार तक पकड़ाने को सरकार आतुर दिख रही है। वन विभाग के अधिकारियों को यहां तक अधिकार दिया जा रहा है कि यदि किसी को जंगल में पारम्परिक हथियार के साथ देखे तो उस पर मुकदमा करने के साथ ही गोली भी मार सकता है। जंगल व जंगल में रहने वाले लोगों के हित में काम करने वाले संगठनों का आरोप एक हद तक सही लगता है कि अंग्रेजी जमाने के वन कानून को बदलने का मकसद जंगलों की बीच पड़े अकूत खनिजों व प्राकृतिक संसाधनों की बे रोक-टोक लूट हो संभव हो सके या किसी को सौपने में कोई अड़चन नहीं रहे। वन विभाग को अपने मन से किसी भी जंगल को आरक्षित वन घोषित करने का अधिकार दिया जा रहा है। उन्हें गिरफ्तार करने, दंड देने और यहां तक कि गोली भी मार देने को अधिकृत करने की तैयारी चल रही है। इस कानून में बदलाव के बाद किसी जंगल के निवासी को कुल्हाड़ी, दरांती या पारम्परिक औजार भी लेकर जंगल में जाने की इजाजत नहीं होगी। साथ ही मवेशियोें को चराने से लेकर सूखी पत्तियां, जलावन की लकड़ी व लघुवनोपजों से भी हाथ धोना पड़ेगा, जबकि वनाधिकार कानून में समुदाय को जंगल के प्रबंधन, संरक्षण व सम्वर्द्धन का पूरा अधिकार दिया गया है। सरकार इस तरह वन कानून में बदलाव लाकर समुदाय को जंगल से पूरी तरह बेदखल करने पर उतारू दिख रही है।
जंगल से ही जुड़ी दूसरी बात, जो बेदखली का तलवार लेकर खड़ी है, वह है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल में सुनाया गया फैसला। कानून के उल्लंघन, कानून को बदलने पर प्रतिवाद को देखते हुए सरकार अब नई तरकीब अपना रही है। इसके लिए न्यायालय का सहारा भी लेने से नहीं चुक रही है। आप सब इस बात से वाकिफ हैं कि न्यायालय अपने समक्ष उपस्थापित किये गए कागजात व तर्क के आधार पर ही फैसला देता है। इस साल ही फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 लाख से अधिक आदिवासियों व वनाश्रितों को जंगल से बेदखल करने का आदेश, इसी से जुड़ा मामला है। सर्वोच्च न्यायालय के अरूण मिश्रा जी की पीठ ने उन आदिवासियों व वनाश्रितों को जंगल से बाहर करने का आदेश दे दिया है, जिनके वन भूमि पर पट्टें के लिए दायर दावे सक्षम समिति द्वारा खारिज कर दिये गए हैं। सनद रहे कि वनाधिकार कानून, 2006 के आलोक में आदिवासियों व वनाश्रितों ने व्यक्तिगत पट्टें व समुदायिक पट्टें के लिए दावे विहित प्रक्रिया मे जमा किये हैं। इन दावों को मनमाने ढंग से खारिज किये गए हैं। हालांकि देशव्यापी विरोध को देखते हुए न्यायालय ने इस पर अभी रोक लगा दिया है और सुनवाई के बाद इस बात को माना है कि दावे को खारिज करने वक्त विहित प्रावधानों को ध्यान में नहीं रखा गया है। सरकारी आकड़े भले 10 लाख का हो, लेकिन वास्तविक संख्या इससे दोगुनी-तिगुनी होगी। आखिर ये वनाश्रित जो पुरखा जमाने से जंगलों में ही रहते आये हैं, कहां जायेंगे? सरकार के इन दोनों कदमों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने पत्रा लिख कर उन स्थितियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जो इसके बाद उत्पन्न होने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वनाधिकार कानून, 2006 के सही ढंग से कार्यान्वयन नहीं होने पर भी चिंता जाहिर की है।बावजूद सरकार जवाब देना भी उचित नहीं समझ रही है। इससे ही स्थिति की गंभीरता और सरकार की मंशा को समझी जा सकती है। 
इस तरह बेदखली-विस्थापन का खतरा बढ़ता जा रहा है। पहले ही वन्यजीवों की सुरक्षा के नाम पर बनने वाले हाथी काॅरिडोर से लाखों लोग व सैकड़ों गांवों पर विस्थापन का संकट छाया हुआ है। सरकार पलामू व्याघ्र रिजर्व एरिया के विस्तारीकरण का निर्णय भी ले चुकी है। इससे पलामू प्रमंडल का एक बड़ा हिस्सा उजड़ने को विवश होगा। सबसे पहले तो इसके कोर एरिया में बसे आठ गांव जो बरवाडीह व गारू में आते हैं, तत्काल उजड़ने जा रहे हैं। बफर एरिया के अंतगर्त आने वाले 191 गांवों को भी कल बेदखली का शिकार होना पड़ेगा। हाथी काॅरिडोर से सिमडेगा, लातेहार, गढ़वा, पलामू के साथ ही चतरा जिले के सैकड़ों गांव प्रभावित होंगे। 
इसका अर्थ यह नहीं है कि सिर्फ जंगल में रहने वालों पर ही खतरा है। सरकार के निशाने पर यहां के सभी जल, जंगल व जमीन हैं। सरकार 2017 में ही ग्लोबल समिट के के बहाने, भूमि बैंक बनाकर कम्पनियों के सामने 21,33,954 एकड़ जमीन सौप दी है। लेकिन इसी राज्य के 1,93,860 भूमिहीन आदिवासियों लिए जमीन नहीं है। दलित भूमिहीन लोगों की संख्या तो और भी बड़ी है। स्थिति की भयावहता इससे ही समझी जा सकती है कि राज्य के भीतर बंदोवस्त किये गए जमीनों पर से हक को खारिज कर दिया गया है। वर्षों से जिस गैर मजरूआ जमीन या किसी दूसरी किस्म की जमीन को बंदोवस्त करा कर लोग जीवन यापन करते आ रहे हैं, उनका हक उस जमीन से हट जायेगा। गांव के चारागाह, गैरमजरूआ, झाड़-झखाड़, नदी-नाले सब सरकार द्वारा बनाये गए भूमिबैंक में डाल दिये गए हैं।
अब रही बात बची हुई  खेतिहर जमीन या दूसरी किस्म की तो उस पर भी आफत है। लगातार खेती की बिगड़ती जा रही स्थिति से गांव के लोग संशकित हैं। पलामू प्रमंडल में इस साल भी समान्य से कम वर्षा व रोपनी हुई है। जंगल कटने, पहाड़ को तोड़ कर गिट्टी में तब्दील होकर भवन निर्माण में लगने, नदियों से लगातार बालू निकालने, बांधों का पानी दूसरे जिले में देने के साथ ही विकास के लिए अपनाये जा रहे मौजूदा माॅडल ने अकाल-सुखाड़ की स्थिति पैदा कर दी है। लगातार बढ़ते जा रहे ग्लोबल वार्मिंग से जलवायु में हो रहे परिवर्तन से सबकुछ उलटा-पुलटा हो चुका है। और पलामू तो ऐसे ही पहले से प्राकृतिक कारणों से वर्षा से वंचित रहते आया है। इन्हीं सब कारणों ेसे पलामू अकाल-सुखाड़ का स्थाई घर बन चुका है, जिसे प्राकृतिक आपदा कह कर सच्चाई को छुपाने की कोशिश बराबर होती रही है। कृषि जो यहां के लोगों का जीने का मुख्य साधन है, इसे प्रकृति के प्रकोप के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। हर खेत को पानी, हर हाथ को काम देने के सरकारी दावे कब के खोखले साबित हो चुके हैं। सिंचाई के नाम पर पलामू प्रमंडल मेें बने आज तक के बांध दूसरे राज्यों के लिए भले वरदान सिद्ध हुए हों लेकिन यहां के खेत असिंचित ही हैं और किसान भूखे। पलामू प्रमंडल में बने छोटे-छोंटे चेक डैम, बांध देख-रेख के अभाव में नाकाम साबित हो रहे हैं। सिंचाई के नाम पर मंडल डैम पर फिर एक दाव खेला जा रहा है, जिसका लाभ बिहार को ही मिलेगा। स्थाई सिंचाई की व्यवस्था किये बिना पलामू की धरती व यहां के लोग यों ही ठगे जाते रहेंगे। 
इन्हीं संकटाकूल स्थितियों पर पलामू में मंथन भी जारी है। गांव से लेकर कस्बे तक में बेदखली व विस्थापन के छाये संकट को लेकर पहलकदमी देखी जा रही है। कहीं जागरूकता अभियान की तैयारी है तो कहीं सच्चाई से अवगत करा कर संघर्ष के राही बनने को प्रेरित करने का प्रयास। अगले तीन महीने बाद विधान सभा का चुनाव भी है, जिसमंे वोट के लिए तरह-तरह के जुमले सामने आयेंगे। देखना दिलचस्प होगा कि जमीनी मुद्दें सामने लाने में जनपक्षीय लोग सफल होते हैं या भवनात्मक मुद्दे ही चुनाव में हावी रहेंगे। (लेखक 'समकालीन हस्‍तक्षेप' पत्रिका के संपादक हैं)

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