सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: जनजातीय संपत्ति पर अधिकार अब परंपरागत रीतियों से तय होंगे, हिंदू कानून लागू नहीं

नई दिल्ली, 23 अक्‍टूबर 2025 : सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) की संपत्ति के उत्तराधिकार (inheritance) पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act – HSA) लागू नहीं होगा।
न्यायालय ने कहा कि आदिवासी समाज की संपत्ति का बंटवारा और विरासत उनके स्थानीय रिवाज़ों और परंपरागत कानूनों के अनुसार ही तय होगा।

हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया गया

यह निर्णय न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने दिया। अदालत ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के 2015 के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि राज्य की जनजातीय बेटियां भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत संपत्ति में हिस्सा पाएंगी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह निर्णय संविधान और कानून दोनों के अनुरूप नहीं था, क्योंकि संसद ने स्वयं यह प्रावधान किया है कि HSA की धाराएँ अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होंगी, जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना जारी कर ऐसा निर्देश न दे।

संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 का हवाला

खंडपीठ ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 का उल्लेख किया, जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को विशेष अधिकार प्रदान करते हैं। अदालत ने कहा कि HSA की धारा 2(2) बहुत स्पष्ट है —

“यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर तब तक लागू नहीं होगा, जब तक केंद्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना जारी कर अन्यथा निर्देश न दे।”

अदालत ने कहा कि इन शब्दों में कोई अस्पष्टता नहीं है — “हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं हो सकता। यह कानून की स्थापित स्थिति है।”

हाईकोर्ट के निर्देश ‘कानूनी रूप से अनुचित’

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने अपनी सीमा से बाहर जाकर आदेश दिया, क्योंकि न तो उस मामले में ऐसा कोई मुद्दा सीधे उठाया गया था, और न ही वह किसी पक्ष की याचना का हिस्सा था।
फैसले में कहा गया —

“हाईकोर्ट द्वारा 23 जून 2015 को पारित निर्णय के पैराग्राफ 63 में जो निर्देश दिए गए थे, वे न तो मामले से संबंधित थे और न ही किसी मुद्दे के आधार पर न्यायोचित थे। अतः उन्हें अभिलेख से हटाया जाता है।”

आदिवासी कानूनों की स्वायत्तता की पुनः पुष्टि

यह फैसला न केवल हिमाचल प्रदेश बल्कि देशभर के आदिवासी इलाकों के लिए एक मिसाल बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जनजातीय समुदायों के अपने रीति-रिवाज, उत्तराधिकार के नियम और सामाजिक ढांचे होते हैं, जिन्हें संविधान ने विशेष संरक्षण दिया है।

अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि सामाजिक न्याय के नाम पर परंपरागत जनजातीय व्यवस्थाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि यही उनकी पहचान और सांस्कृतिक विरासत की नींव हैं।

कानूनी और सामाजिक महत्व

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला यह स्पष्ट करता है कि आदिवासी समाज को “हिंदू कानूनों” के तहत नहीं लाया जा सकता, जब तक कि संसद या केंद्र सरकार विशेष रूप से ऐसा न कहे।
यह निर्णय आदिवासी परंपराओं की स्वायत्तता और भारतीय संविधान में निहित विविधता की भावना को भी मजबूती देता है।

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