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एमएसपी कितना व्यावहारिक है?

तीनों कृषि कानून के रद्द होने का रास्ता अब चूंकि प्रधानमंत्री ने स्वयं निकाल दिया है…. तो एमएसपी (MSP) पर कानून भी स्वयं प्रधानमंत्री ही लायें- अब मामला यहीं अटका हुआ है और संयुक्त किसान मोर्चा आंदोलन से पीछे नहीं हट रहा है। चूंकि मामला खेती किसानी का है, इसलिए इससे संबंधित कोई भी आंदोलन एक सामाजिक- आर्थिक प्रभाव के साथ राजनीति पर कितना व्यापक असर करता है, इसकी समझ एक हठी व आत्ममुग्ध सत्तासीन व्यक्ति को भी है- इसे आंदोलनरत किसान अच्छी तरह समझ गए हैं।  लेकिन किसान को यह भी समझना होगा कि MSP से क्या हो सकता है? ईससे भी अहम है ये समझना कि MSP की व्यावहारिकता क्या है? 

भारत की व्यापक खेती से संबंधित तमाम कानून किसानों के फ़ायदे के लिए ही हैं, मगर हर एक कानून से भ्रष्टाचार के इतने आसान रास्ते निकले हैं कि एक आम किसान हर हाल में वंचित और व्यवस्था के सामने लाचार ही रहा है।
 
MSP से बाजार में भारी उथल पुथल तो होनी हीं है, क्योंकि उद्योग कृषि को पछाड़ कर ही बाजार का रेगुलेटर बना है।
इस मामले में हरित क्रांति भी उद्योग से पिटा हुआ मोहरा साबित हुआ है।  अभी वर्तमान का खतरा ये है कि अगर
MSP कानून बन जाये और लागू होने पर पता चले कि इस कानून नें APMC की तरह सैकड़ों खामियों को संगठित कर  भ्रष्टाचार की एक सामानांतर व्यवस्था ही खड़ी कर दी है.. 
तो बात वही हुई कि ‘ कोख खातिर गइनीं, मांग गंवा के गइनीं।’ (कोख, यानी संतान की चाह में गये; और सुहाग लुटा कर लौटे)

MSP का मामला असल में है क्या? किसान आंदोलन के बरकस MSP क्या है? 
सरकार के लिए ये किस तरह से गले की हड्डी है? 
बाजार पर इसका प्रभाव क्या है? 
और ग्लोबल इकोनामी में भारत का किसान आंदोलन MSP को लेकर कहां खड़ा है? 

आइये, इन सब बिंदुओं को बारी बारी से देखें….

स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार जमीन की वर्तमान बाजार कीमत+तमाम लागतें जैसे बीज, खाद, सिंचाई, मजदूरी, कीटनाशक, रख रखाव, ट्रांसपोर्ट आदि। अब इसमें अगर किसान का मुनाफ़ा जोड़ा जाये तो ये होती है MSP। इस हिंसाब से गेहूं की MSP होती है 40/- रुपए किलो।  लेकिन सरकार द्वारा तय MSP में चूंकि जमीन की कीमत नहीं जोड़ी गई है इसलिए गेंहू की MSP है 15-16 रुपए किलो। 
वर्तमान भाजपा सरकार ने अपने मैनिफेस्टो में इसी स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार MSP को कानूनी बनाने की बात कही तो गयी थी लेकिन इसी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर इस MSP को लागू करने में अपनी असमर्थता भी दिखा दी!

तो, राजनीति के सरोकारी चाहे विपक्ष या कोई राजनीतिक दल, ये पूछेगा ही कि MSP पर राजनीतिक बढ़त लेने वाली पार्टी सरकार के रूप में इसे लागू करने से पीछे क्यों हटेगी? 
नहीं तो सरकार ये कहे कि 15-15 लाख हर किसी के एकाउंट में आयेंगे की तरह ये MSP को कानूनी जामा देने की बात भी एक जुमला था। 

अब जरा बाजार के हिसाब से किसान और उद्योग के चढ़ा-ऊपरी को भी देखिये। 
उद्योग की ज्यादातर जमीन सरकार की, कर्ज सरकार की ओर से, गेंहू किसान से या FCI से 17-18 रुपए किलो… 
और पैक आंटे का भाव 28 से 55 रुपए किलो। इसमें बिहार जैसे भी राज्य हैं, जहां APMC लागू नहीं होने से गेंहू MSP से भी नीचे 11-12 रुपए किलो। 
अब ये दूसरा प्रश्न जो आपको सर झुकाए रखने पर बाध्य कर देगा कि किसान ही क्यों पिछड़ता जाये?
कोई किस नैतिकता से कोई झूठ बोल कर किसान से वोट लेगा और सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देगा कि MSP लागू नहीं हो सकती..! और किस नैतिकता से कोई लाठी डंडा गैस पानी की बौछार से लेकर गोली तक चलाने में नहीं हिचकिचायेगा जब ये किसान MSP के लिए साल भर से धूप धूल धुँआ और कड़ाके की ठंढ में भी आंदोलनरत होने को विवश रहते हैं। 
स्वामीनाथन की रिपोर्ट के अनुसार MSP से बाजार में आग लग जायेगी…  और उद्योग के भारी मुनाफे को आवक् में करने, MSP को कुछ बढ़ाने लेकिन बाजार में आटे की कीमत नहीं बढ़ने देने की ताकत अब सरकारों के पास बची भी नहीं है…!

ग्लोबल बाजार है साहब, MSP बढ़ेगी तो गेंहू चावल दाल चना क्या नहीं आ जायेगा बाहर से जो देश के किसानों को उनकी उपज के ढेर पर ही आत्महत्या करने को बाध्य कर देगा..!

अब सवाल है कि किया क्या जाये?  क्या भारतीय कृषि के उबड़-खाबड़ रास्ते भारतीय दृष्टिकोण से नहीं पाटे जा सकते हैं? एक विकल्प तो है, आजमाया हुआ विकल्प है। आइये इसे उदाहरण के तौर पर देखें।

पश्चिम बंगाल के बर्दवान के आस पास करीब दस हजार एकड़ में हो रही आलू की खेती पर गौर कीजिये। बुद्धदेव बाबू के मुख्यमंत्री काल के अंतिम वर्ष में इस प्रोजेक्ट को लागू किया गया।
इसकी शुरुआत आलू की औद्योगिक मांग से हुई थी। 
जितनी जानकारी मुझे है- कुछ मल्टीनेशनल कंपनी जैसे पेप्सिको, फ्रिटोले नें उस क्षेत्र में आलू चिप्स के प्लांट लगाये और मुख्य रिसोर्स आलू के लिए कंट्रैक्कट फार्मिंग के मॉडल में सरकार से कुछ सहूलियतों की मांग की। 
अब इसे वामपंथी सरकार की नेकनीयत ही कहेंगे कि सरकार ने उद्योग को अपनी आवारा पूंजी से खेती किसानी के चरित्र को छूने तक नहीं दिया…

और देखिये कि बाजार भी कितना प्रोसपेरस हुआ.. 
बिहार के टाल क्षेत्र के बाद पूर्वी भारत के लिए बर्दमान आलू की सबसे बड़ी मंडी है।

अब इसमें MSP के एंगल को समझिये…जमीन किसानों की- 
चाहे निजी जमीन या राज्य सरकार द्वारा तीन साल के लिए पट्टे पर ही क्यों नहीं, किसान की। 
कंट्रैक्ट किसान और कंपनी के बीच। 
राज्य सरकार के स्थानीय circle officer, agriculture officer, बाजार समिति और बैंक की देख रेख में किसान और कंपनी के बीच करार (कांट्रेक्ट)।

 इस करार के अनुसार – 
1- राज्य सरकार के सर्कल ऑफिसर द्वारा अनुमानित उपज (estimated yield)
पर बैंक द्वारा कर्ज के अमाउंट का
मिलना, अनघा कर्ज नहीं मिलेगा। 
2- इसी के आधार पर राज्य सरकार के agriculture officer द्वारा मिट्टी की जांच, खाद बीज पेस्टिसाइड की जांच। 
3- बाजार समिति के द्वारा crop के estimated yield के 1/4 हिस्से का खरीद भाव का तय होना। ये उच्च गुणवता वाला प्रीमियम स्टॉक है जो उद्योग को जा रहा है। 
यही 1/4 हिस्सा बेच कर किसान पहले बैंक के कर्ज का EMI भर देता है जो उसने बीज, खाद-पानी, कीटनाशक और जमीन के टैक्स के लिए लिया था। 
मतलब खेती की लागत निकल गई। 
बाकी 3 हिस्सा आलू जो B ग्रेड या C ग्रेड का होता है- किसान कहीं भी बेचने को स्वतंत्र है, ज्यादातर राज्य के अंदर ही।

यही तो है एमएसपी।
बीज खाद पानी दवा के लिए बैंक का कर्ज- 
इस कर्ज के EMI के लिए कंपनी की खरीदारी का भाव राज्य सरकार द्वारा तय की जाने की व्यवस्था। 
कंपनी को नियंत्रित रखने के लिए राज्य सरकार के agriculture officer, circle officer और बाजार समिति।
अब बताइये कि खेती से उपजे क्रॉप, yield के सिर्फ 1/4 हिस्से को बेच कर अगर किसान खेती की लागत का जुगाड़ कर लेता है तो ये व्यवस्था है या MSP ? 
किसान को व्यवस्था चाहिए न? 
तो व्यवस्था को दुरुस्त करना है। 

याद रहे कि खेती की स्थानीयता और उसके चरित्र पर उद्योग की पूंजी को बिल्कुल भी हावी नहीं होने दी गई है। 

लेकिन किसान के लिए इतना ही काफी नहीं है। 
अपने देश में किसानी आज भी हमारी सामाजिक पूंजी का अकूत भंडार है जो असल में देश के चरित्र को उसके मूल्यों के खूंटे से बांध कर रखता है। 
तब समाज का क्या दायित्व है कृषि के लिए, इसे भी समझें। 

हमारे देश में 86% खेती-किसानी सीमांत किसानों के हाध में है, मतलब 2 एकड़ के आसपास वाले किसान। 
इन किसानों की समस्या crop को बेचने की ही नहीं है।
पूंजी की भी है, लागत की भी है, ज्ञान की भी है। 
जब इन तमाम समस्याओं का समाधान होगा तब जाकर उसे भोजन वस्त्र आवास शिक्षा अस्पताल मिलेगा..!

अब आप खुद सोचिये MSP से ज्यादा आसान बैंक, नाबार्ड के द्वारा पूंजी को मुहैया कराना आसान है कि नहीं? 
पूंजी देने के लिए तो एक सिस्टम है- इसकी देखभाल करनी है। 
उसी तरह बीज खाद के लिए भी सिस्टम है।  ऐसे सीमांत किसानों को एक पेंशन, एक हेल्थ बीमा, उनके बच्चों को शिक्षा, घर में एक नौकरी क्यों नहीं दी जा सकती?
और इन तमाम समस्याओं के समाधान के लिए सरकार यदि देश की खेती को देशी विदेशी आवारा कागजी पूंजी के हवाले करके स्वयं किनारे होना चाहती है, तो सोचना तो किसानों को ही पड़ेगा..! 

किसानों को समझना होगा कि जिस सामाजिक पूंजी के सामने उन्होंने अभी तक कागजी आवारा पूंजी को घुटने टिकवाये, वह कहीं MSP के हठ में एक नासमझी की कवायद न बन बैठे..!

-जीतेश/ Jeetesh

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