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क्या प्रतिबंधित किताब रखने के आधार पर यूएपीए केस चल सकता है : सुप्रीम कोर्ट ने एनआइए से पूछा

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से पूछा है कि क्या किसी व्यक्ति से साहित्य की बरामदगी, प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता और नारेबाजी करने मात्र के आधार पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप लगाए जा सकते हैं.

लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय श्रीनिवास ओका की पीठ ने एनआईए द्वारा दायर उस विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई करते हुए ये सवाल किया, जिसमें केरल हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई है, जहां कानून के छात्र अल्लान शुहैब को जमानत देने के निचली अदालत के आदेश की पुष्टि की गई थी.

अदालत शुहैब के सह-आरोपी और पत्रकारिता के छात्र ताहा फज़ल द्वारा दायर एक अन्य याचिका पर भी सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने उसी उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी है, जिसने निचली अदालत द्वारा उन्हें दी गई जमानत को रद्द कर दिया था.

पुलिस और एनआईए ने शुहैब तथा फज़ल पर ये कहते हुए यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया था कि वे प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से जुड़े थे. गिरफ्तारी के समय शुहैब और फज़ल की उम्र क्रमश: 19 और 23 साल थी.

द हिंदू के मुताबिक, मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरोपियों को ‘युवा लड़के’ कहने पर एनआईए ने कहा कि ‘आतंकवाद की कोई उम्र नहीं होती है’ और ‘नक्सली, माओवादी बहुत तेज, चालाक’ होते हैं.

एनआईए की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने कहा कि भाकपा (माओवादी) को यूएपीए के तहत ‘आतंकवादी संगठन’ के रूप में अधिसूचित किया गया है.

उन्होंने कहा, ‘एक गैरकानूनी संगठन एक आतंकवादी संगठन से बिल्कुल अलग होता है. ये हाफिज सईद, दाऊद इब्राहिम जैसे व्यक्ति हैं! इसकी सूची देखिए कि इसमें किस तरह के संगठन सूचीबद्ध हैं- बब्बर खालसा इसमें से एक है. भाकपा (माओवादी) को भी इसमें शामिल किया गया है. यह एक आतंकवादी संगठन है. इसका सदस्य होना अपने आप में बहुत गंभीर है!’

सुप्रीम कोर्ट ने राजू से यह भी पूछा कि यूएपीए की धारा 20, जिसके तहत आतंकी संगठन का सदस्य होने की सजा दी जाती है, को इन दो युवकों के खिलाफ दायर एनआईए चार्जशीट से क्यों हटा दिया गया था. यूएपीए के तहत, गैरकानूनी संगठन के लिए किसी आतंकी संगठन की सदस्यता की तुलना में बहुत कम सजा मिलती है. द हिंदू के अनुसार, एनआईए ने दोनों को गैरकानूनी संगठन के तहत आरोपित किया है.

एनआईए के वकील ने अदालत को यह भी बताया कि उन्होंने गिरफ्तारी के समय ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘माओवाद जिंदाबाद’ के नारे लगाए थे, इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे आतंकवादी संगठन के सदस्य हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया, ‘ये लड़के 20 वर्ष या इससे कुछ अधिक उम्र के हैं, उनके पास कुछ सामग्री है. क्या उन्हें महज इस आधार पर कैद किया जाए, क्योंकि आपने कुछ निष्कर्ष निकाला है. आपके अनुसार यदि इन व्यक्तियों या उनके घरों से कोई आपत्तिजनक सामग्री जब्त की गई थी, तो वे इन आतंकवादी संगठनों में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे?’

जस्टिस रस्तोगी ने आगे पूछा, ‘क्या आपके अनुमान के आधार पर उन्हें महीनों तक जेल में रखा जाए? यह दिखाने के लिए आपत्तिजनक सामग्री कहां है कि वे सदस्य हैं.’

एनआईए के वकील ने कहा कि उनके पास से ‘बांटने के लिए तैयार की गई नोटिस की 15 प्रतियां बरामद हुई थी’, इसलिए ये दर्शाता है कि ‘यदि वे इसे पढ़ना चाहते थे तो 15 प्रतियां अपने पास न रखते.’

सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सामग्री सिर्फ दो पुरुषों के घरों में मिली थी.

जब वकील ने अदालत को प्रतिबंधित संगठन के साथ जुड़ाव की गंभीरता को समझाने की कोशिश की, तो कोर्ट ने कहा, ‘यदि आप एक भी बैठक में जाते हैं, तो क्या आप इन विचारों से प्रभावित हो जाएंगे जो देश को नष्ट कर दे.’

न्यायालय ने कहा कि इस दावे को सही बताने के लिए रिकॉर्ड पर साक्ष्य मौजूद होने चाहिए.

जस्टिस रस्तोगी ने कहा, ‘हम आपसे पूरी तरह सहमत हैं. लेकिन रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से यह साबित होना चाहिए कि आपके अनुमान का कुछ आधार है. अगर किसी के पास ऐसी किताब है जिस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है, तो इस आधार पर उन पर केस चलाना चाहिए?’

द वायर ने पहले भी रिपोर्ट कर बताया था कि किस तरह एनआईए ने साक्ष्य के रूप में ऐसे कई दस्तावेज पेश किए हैं, जिसमें पश्चिमी घाट पर माधव गाडगिल की रिपोर्ट लागू करने की मांग को लेकर छपे नोटिसों, द ग्रेट रशियन रिवॉल्यूशन नामक किताब, माओवादी नेताओं माओत्से तुंग और चे ग्वेरा तथा कश्मीर के अलगाववादी नेता एसएएस गिलानी की तस्वीर और ‘मार्क्सवादी विचारधारा’ तथा ‘इस्लाम’ का प्रचार करने वाली किताबें शामिल हैं. साभार: द वायर. 

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