दिन-दहाड़े यदि पहाड़ भरभरा कर गिरने लगे और इससे भारी जान-माल का खतरा आँख के सामने होने लगे तो कैसा अनुभव होगा. अपने-अपने गंतव्य की ओर जाने को लोग सड़क पर निकल पड़े हो और अचानक बीच से हाइवे फट जाये तो कैसा अनुभव होगा? यह कोई कल्पना की बात नहीं बल्कि सच्चाई है.
अभी एक पखवाड़े पहले दुनिया का सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले अमेरिका के अलास्का में आये भूकंप से तहलका मच गया था. अलास्का के एकंरेज में सुबह-सुबह आये अचानक भूकंप से अफरा-तफरी मच गया था. तेज रफ्तार से दौड़ती गाड़ियां अचानक रूक गई थी और दिन भर जाम लगा रहा था. सुबह साढ़े आठ बजे 7 की तीव्रता से आये भूकंप ने सबकों हैरत में डाल दिया था. सड़के जगह-जगह से उखड़ गई थी. सबसे खास बात यह कि 12 घंटे में 200 झटके आये. दर्जनों लोग घायल हो गये थे. तीन लाख कीआबादी वाले इस शहर के सारे स्कूलों को बंद कर दिया गया था. सैकड़ों घरों को भारी नुकसान हुआ था. लोग दहशत में थे और गहरे आशंका की साये में कई दिनों तक रहे. ऐसा नहीं कि ऐसी घटनाएं सिर्फ अमेरिका में ही घट रही है. इधर लगातार भस्खलन की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं. आये दिन अपने देश में ही नहीं अपितु पड़ोसी देशों सहित पूरी दुनिया में ऐसी घटनाएं देखने को मिल रही है. ऐसी घटनाआंें से शहर के शहर, गांव के गांव बर्बाद हो जा रहे हैं. आपदाओं के विभिन्न स्वरूपों में भूस्खलन हमारे सामने एक बड़ी चुनौती बन कर सामने आ खड़ा हुआ है.
दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार बढ़ती जा रही बाढ़, सूखा, बेमौसम बरसात, अत्यधिक ठंढ के साथ ही भूस्खलन की समस्या से जूझ रही है. इससे वैश्विक पर्यावरण एवं पारिस्थिकी तंत्र गहरे संकट में है. वैज्ञानिक अध्ययन के बाद इसका कारण मानवीय गतिविधियां को जिम्मेवार माना जा रहा है. लगातार इस बात की घोषणा वे करते रहे हैं कि बढ़ते तापमान के कारण जलवायु में हो रहे परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं. इन्हीं प्राकृतिक आपदाओं में एक महत्वपूर्ण त्रासदी सिद्ध होने वाला भूस्खलन भी है.
लगातार बढ़ती जा रही भूस्खलन की घटनाओं पर हुए ताजा शोध से पता चला है कि इसका कारण भी विकास है. विकास के नाम पर जो कार्य वर्तमान समय में हो रहे हैं, वे भूस्खलन को आमंत्रित करते हैं. ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने 2004 से 2016 के बीच हुए 4800 से अधिक खतरनाक भूस्खलनों का अध्ययन किया है. इन घटनाओं में 56,000 हजार से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. इनमें से 700 घटनाओं के लिए निर्माण कार्य, अवैध खनन और अनियंत्रित ढंग से पहाड़ों की हुई कटाई है. ज्ञातब्य है कि विकासशील देशों में विकास के प्रति ज्याद ललक है. वे विकसित देशों की श्रेणी में आने के लिए और विकास दर बढ़ाने की होड़ में अपने प्राकृतिक संसाधनों को बर्बाद करने से नहीं चुकते. जाहिर है, इसकी कीमत भी इन्हें ही चुकानी पड़ती है. जिस तरह ऐशिया में सबसे ज्यादा बाढ़, सूखा, बेमौसम बरसात सहित प्राकृतिक आपदाएं देखी जाती हैं, उसी तरह भूस्खलन की घटनाएं भी यहीं सबसे ज्यादा होती है.
भूस्खलन के कारण उत्पन्न त्रासदी के आधार पर दुनिया भर के देशों की सूची बने तो अग्रिम 10 देशों में एशिया के ही देश आते हैं. एशिया में ही भूस्खलन की हुई घटनाओं मंें से 75 प्रतिशत हुई हैं. जहां तक हमारे देश की बात है तो भारत में 20 प्रतिशत भूस्खलन की घटनाएं हाल के बारह साल में हुई हैं. इसकी तुलना में चीन में 9, पाकिस्तान में 6 तथा फिलीपींस, नेपाल और मलेशिया में पाँच प्रतिशत घटनाएं हुई हैं.
भारत में हुई भूस्खलन की घटनाओं में से 28 प्रतिशत के लिए निर्माण कार्य जिम्मेवार हैं. यदि इस साल ही केरल में आई भयावह बाढ़ को केन्द्र में रख कर, बात करें तो ऐसी बाढ़ 1924 में आई थी. लेकिन इतनी जान-माल की हानि नहीं हुई थी. इसका मुख्य कारण इतनी संख्या में भूस्खलन का नहीं होना था. अनुभवी लोगों के अनुसार केरल में बाढ़ का भयावह होने का एक प्रमुख कारण भूस्खलन का तेजी से होना है. ऐसा नहीं है कि केरल में ही ऐसा देखने को मिला है. कुछ साल पहले उत्तराखंड के केदारनाथ की भंयकर त्रासदी भूस्खलन के कारण ही हुई थी. एकबात और इससे जुड़ी है, जिससे आँख नहीं मुंदी जा सकती. भूस्खलन की सबसे ज्यादा घटनाएं हिमालीय क्षेत्र के आसपास ही घट रही हैं. इसलिए हिमालय से जुड़े एशियाई देश हैं वे भी भूस्खलन से प्रभावित होते हैं.
शोध के बाद वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि यदि ‘विकास’ की अवधारणा में परिवर्तन नहीं लाया गया तो आने वाला समय काफी त्रासदीपूर्ण होगा. प्रकृति के साथ, लगातार लम्बे समय हो रहे दोहन से आने वाले समय की भंयकरता दिखने लगी है. इसलिए दुनिया के साथ ही भारत समेत सभी देशों को गंभीरता से अपने नीतिगत फैसलों पर सोचने की जरूरत है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि ऊर्जा, संसाधन, यातायात, सिंचाई, पेयजल, बुनियादी ढांचा इत्यादि के लिए खनन, पहाड़ और जंगल काटने की जरूरत पड़ती है लेकिन पर्यावरण प्रदूषण के बल पर यह कार्य महंगा साबित होगा. इसके साथ यह भी सच है कि पर्यावरण संकट के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान जिसका जुड़ाव अंतर्राष्ट्रीय कारकों से भी हैं, इसलिए इस पर अंतराष्ट्रीय निर्णय की जरूरत है, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर भी इसके लिए आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है.
अंधाधुध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हुए विकास के पथ पर कदम बढ़ाना भयावह त्रासदी को आमंत्राण देने वाला साबित होगा, तय है लेकिन अफसोस सत्ताधीश इससे अनजान विकास पर इतराते हुए और विकास दर पर गर्वान्वित होते देखे जा रहे हैं. -अरविन्द अविनाश