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देश, खास कर बंगाल में, संविधान और उसकी गरिमा सुरक्षित है; अपने केसरी नाथ त्रिपाठी हैं न!.

अरे, केसरी नाथ त्रिपाठी को नहीं जानते! पश्चिम बंगाल के महामहिम, यानी राज्यपाल हैं। मगर इनका यह परिचय नाकाफी है। ये संविधान विशेषज्ञ हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए आपने जो किया, उस कारण वे आज भी एक मिसाल और ‘दलीय भावना से ऊपर’ रहनेवाले विधानसभा अध्यक्षों के लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। यूं तो संविधान और लोकतंत्र की गरिमा बढ़ाने के मामले में कांग्रेसी विधानसभा अध्यक्षों और राज्यपालों के कारनामों के सूची भी बहुत लम्बी है, मगर श्री त्रिपाठी ने भी इस क्षेत्र में कीर्तिमान तो रच ही  दिया।  

जरा उस दौर को संक्षेप में याद कर लें। उत्तर प्रदेश की 13वीं विधानसभा के लिए 17 अक्तूबर 1996 को आये  नतीजे में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। 425 सीटों की विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी 173 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी बनी। जबकि समाजवादी पार्टी को 108, बहुजन समाज पार्टी को 66 और कांग्रेस को 33 सीटें मिलीं।

फिर बसपा और बीजेपी का तालमेल हुआ और दोनों दलों ने छह-छह महीने शासन चलाने का फ़ैसला किया।  इस तालमेल से पहले 17 अक्टूशबर 1995 में भाजपा ने ही बसपा सरकार से समर्थन वापस लिया था, जिसकी वजह से राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। पहले छह महीनों के लिए 21 मार्च 1997 को बसपा की मायवती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। 

विधानसभा अध्यक्ष के मुद्दे पर दोनों पार्टियों में मतभेद हुए। बाद में बीजेपी के केसरीनाथ त्रिपाठी को विधानसभा अध्यक्ष बनाये जाने की मंज़ूरी बसपा ने दे दी। मायावती के छह महीने पूरे होने के बाद बीजेपी के कल्याण सिंह 21 सितंबर 1997 को मुख्यमंत्री बने। मायावती सरकार के अधिकतर फ़ैसले बदले गए और दोनों पार्टियों के बीच मतभेद खुल कर सामने आ गए। महज एक महीने के अंदर  ही मायावती ने 19 अक्टू बर 1997 को कल्याण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने दो दिन के भीतर ही यानी 21 अक्टूाबर को कल्याण सिंह को अपना बहुमत साबित करने का आदेश दिया।  बसपा, कांग्रेस और जनता दल में भारी टूट हुई और इन पार्टियों के कई विधायक पाला बदल कर बीजेपी के साथ हो गये।
 
इसके बाद कल्याण सिंह ने दूसरी पार्टियों से आये हर विधायक को मंत्री बना दिया। देश के इतिहास में शायद पहली बार किसी राज्य में 93 मंत्रियों के मंत्री परिषद को शपथ दिलाई गई। विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने सभी दलबदलू विधायकों को हरी झंडी दे दी। इस फ़ैसले की बहुत आलोचना हुई। बसपा ने भाजपा पर अपने विधायकों को प्रलोभन देकर पाला बदल कराने का आरोप लगाया। उन्होंने अपने ऐसे विधायकों को पार्टी से बर्खास्त करते हुए दलबदल कानून का हवाला देकर उनकी विधायकी ख़त्म करने की मांग की। मामला विधानसभा अध्यक्ष के पास गया, लेकिन श्री त्रिपाठी ने विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होने तक कोई फैसला नहीं सुनाया। एक तर्क यह था कि इस मामले में फैसला सुनाने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। यानी सब कुछ संविधान और कानून के अनुरूप ही हुआ। इस तरह अगले चुनाव तक कल्याण सिंह की सरकार आराम से चलती रही। बाद में अन्य राज्यों के अनेक विधानसभा अध्यक्ष भी इसी तर्क का हवाला देकर दलबदल के मामलों पर कुण्डली मारे बैठे रहे।    

21 फ़रवरी 1998 को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने सीएम कल्याण सिंह को बर्ख़ास्त कर जगदंबिका पाल को रात में साढ़े दस बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। हाईकोर्ट ने अगले दिन यानी 22 फ़रवरी को राज्यपाल के आदेश पर रोक लगा दी और कल्याण सिंह सरकार को बहाल कर दिया। जाहिर है, कांग्रेस सरकार के दौरान नियुक्त हुए राज्यपाल रोमेश भंडारी ने भी उस दौरान अनेक गुल खिला कर राज्यपाल पद की गरिमा में चार चाँद लगाने में कोई कसर नहीं छोडी।

बहरहाल, उन्हीं केसरी नाथ त्रिपाठी को संभवतः उनके उन्हीं ‘गुणों’ के कारण भाजपानीत एनडीए सरकार ने उन्हें और उस समय मुख्यमंत्री रहे मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को राज्यपाल बना दिया। 

श्री त्रिपाठी अभी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं। उन्होंने बंगाल की स्थिति  पर केंद्र को अपनी रिपोर्ट भेज दी है। सभी जानते हैं कि राज्यपाल अमूमन केंद्र की इच्छा के अनुरूप ही रिपोर्ट भेजते हैं। लेकिन फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट की निगाह में है, मीडिया के फोकस में है। इसलिए बावजूद इसके कि भाजपा प, बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रही है, उसके समर्थकों को भी यह जरूरी लगता है, केंद्र तत्काल कोई बड़ा फैसला लेने का जोखिम शायद नहीं उठाएगा। 

वैसे माना जाता है कि विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल पद पर आसीन होते ही व्यक्ति दलीय भावना से ऊपर उठ जाता है। हालांकि अनुब्भव बताता है कि यह धारणा महज किताबी है, फिर भी उम्मीद करने में क्या हर्ज है कि यही सच है।

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