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प्रज्ञा ठाकुर के बहाने; सवाल ‘थर्ड डिग्री’ का

प्रज्ञा ठाकुर का यह कहना भले ही गलत हो कि उन्हें झूठे मामलों में फंसा दिया गया, लेकिन मैं उनके इस आरोप को सच मानने में कोई हर्ज नहीं लगता कि गिरफ्तारी के बाद उनके साथ मारपीट की गयी, टॉर्चर किया गया और उनसे अपराध के कबूलनामे पर जबरन हस्ताक्षर करा लिया गया.

वैसे भी आतंक का रास्ता कितना भी गलत और मानवता विरोधी हो, उस रास्ते पर चलने के लिए एक संकल्प-जिद और खतरा मोल लेने, जान तक देने का साहस रखने की जरूरत तो होती ही है. और बुजदिलों-कायरों में यह साहस कहाँ होता है कि वे अपने ‘वीरोचित’ कारनामों को भी स्वीकार कर लें. प्रारंभिक जोश और उन्माद में उस रास्ते चल पड़ने के बाद भी उनमें से अनेक का जोश पुलिसिया तरीकों के सामने ठंडा पड़ जाता है. जिन लोगों ने भी भारतीय आजादी के सशस्त्र संघर्ष के बारे में पढ़ा होगा, उन्हें अवश्य याद आ जायेगा कि क्रांतिकारी संगठनों के अनेक सदस्यों ने भी डंडे के डर और/या किसी लोभ में अपने साथियों के खिलाफ गवाही दी.

और प्रज्ञा ठाकुर तो खुद ही कह रही हैं कि पुलिस ने डंडे मार कर उनसे झूठे (पता नहीं वे अब सच बोल रही हैं; या उनका वह कुबूलनामा सच है) बयान पर दस्तखत करा लिये थे. उनके साथ पुलिस के उस कथित गैरकानूनी बर्ताव, यानी थर्ड डिग्री के प्रयोग से समाज का एक हिस्सा उद्वेलित है, मर्माहत है, गुस्से में है. यह स्वाभाविक भी है. लेकिन सुश्री ठाकुर सहित उनके समर्थकों को जरा भी एहसास है कि हमारी पुलिस आये दिन आम आदमी, संदिग्ध अपराधियों और अभियुक्तों के साथ कैसा सलूक करती है? क्या यह कोई रहस्य है?

और सबसे बड़ा सवाल, जिसे उठाना फिलहाल मेरा मूल मकसद है, यह कि किसी अभियुक्त/ कथित अपराधी के साथ मारपीट के प्रति हमारा, यानी भारतीय समाज का नजरिया क्या है? कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं, पर सामान्यतया शातिर ‘अपराधियों’ के साथ ऐसी मारपीट को कोई गलत नहीं मानता, अनेक मौकों पर स्वाभाविक और जरूरी भी मानता है. हमारी पुलिस को आम आदमी से सभ्य व्यवहार का प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता. .

यदि इस बात को स्वीकार करने में किसी को हिचक हो रही हो, तो निवेदन है कि अपराध की घटनाओं पर आधारित भारतीय फिल्मों को याद करें. यदि फिल्म का हीरो पुलिस वाला हुआ, तब संदिग्ध अपराधियों और बदमाशों के साथ उसके बर्ताव को, और उन दृश्यों के दौरान हॉल में बजनेवाली तालियों को याद करें. ऐसे में खलनायक यदि आतंकवादी है, तब हमारा वर्दीवाला हीरो उसके साथ कुछ भी करे, हम खुश होते हैं. हीरो यदि आम आदमी भी हुआ तब भी जब वह गुंडों को पीटता है, तब दर्शक गदगद होता है.

तो सच यही है कि हमारे इस महान शांतिप्रिय देश (अमूमन सभी देशों) के आम आदमी में हिंसा के प्रति हमेशा से एक प्रकार का आकर्षण रहा है. हमारे यहाँ तो यह मान्यता भी रही है कि शिक्षक को उद्दंड या ‘शैतान’ विद्यार्थी की पिटाई करनी ही चाहिए. पुलिस की थर्ड डिग्री हमें तभी बुरी लगती है, जब ऐसा हमारे किसी परिचित-सदोष या निर्दोष- के साथ हो जाये. या हम सौ प्रतिशत आश्वस्त हों कि पुलिस ने किसी निरपराध भले आदमी के साथ ऐसा किया है.
हमारा समाज तो फर्जी मुठभेड़ के समर्थन में भी खड़ा रहता है! अपराधियों के खौफ और अमूमन कानून के पंजे से उनके बच निकलने की आशंका से लोग इतने आजिज रहते हैं वे फर्जी मुठभेड़ को भी अपराध नियंत्रण का एक तरीका मान लेते हैं. ऐसे में ‘सच’ उगलवाने के लिए पुलिस किसी संदिग्ध अपराधी के साथ थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करती है, तो क्या हर्ज है! और यदि किसी पर आतंकवादी होने का आरोप हो, तब तो सब कुछ जायज हो जाता है. यह और बात है कि आधे से अधिक लोगों पर झूठे मुक़दमों के शिकार होते हैं, ‘फर्जी मुठभेड़’ में पुलिस जिनकी हत्या कर देती है, उनमें भी बहुतेरे बेगुनाह होते हैं. अब एक और कारण से लोग पुलिस की ज्यादती का समर्थन करने लगे है- यदि वह ‘अपने’ दल द्वारा शासित राज्य की पुलिस हो!

कानूनन जिस तरह किसी कथित चरित्रहीन महिला के साथ भी बदसलूकी करने का किसी को अधिकार नहीं है, उसी तरह पुलिस को संगीन से संगीन आरोपों के अभियुक्त के साथ मारपीट करने का अधिकार नहीं है. लेकिन हम जानते हैं कि इस कानूनी प्रावधान का खुलेआम उल्लंघन होता है; और हम चुप रह जाते हैं.

प्रज्ञा ठाकुर के साथ ऐसा हुआ हो, तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है. लेकिन इस मामले में हाय तौबा मचने वालों को थर्ड डिग्री पर अपने अब तक के रवैये पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए. आप पुलिस के दैनंदिन गलत व्यवहार पर चुप रहेंगे, तो अपने साथ ऐसा होने पर आप दूसरों से सहानुभूति की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? जिनकी नजरों में आज वे पूजनीय और वन्दनीय हो गयी हैं, मुझे नहीं लगता कि वे भी उन्हें सचमुच बेगुनाह और शांतिवादी मानते होंगे. संकीर्ण हिंदूवादी खेमें का स्टार बन जाने और भाजपा का संदादीय प्रत्याशी बनने का कारण उनके साथ पुलिश का कथित बुरा बर्ताव नहीं है, उन पर लगे आरोप हैं, उनका ‘झांसी की रानी’ जैसा बाना है, उनकी गढ़ दी गयी वीरांगना की छवि है, जो अपने समाज (हिंदू) की रक्षा में तलवार उठा सकती है. जो ‘साध्वी’ यह कह सकती है कि श्री करकरे की मौत उसके शाप के कारण हुई, कल्पना की जा सकती है कि मौका मिलने पर वह अपने ‘दुश्मनों’ के साथ कैसा बर्ताव कर सकती है.

जो भे हो, पुलिस की ज्यादती, अभियुक्तों के साथ थर्ड डिग्री का प्रयोग एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर चर्चा करने से हमारा कथित सभ्य समाज बचता है; और जब मानवाधिकार संगठनों के लोग उन मुद्दों को उठाते हैं, तो उन पर अपराधियों, माओवादियों और आतंकवादियों का समर्थक होने का आरोप लग जाता है. क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि प्रज्ञा ठाकुर के बहाने ही सही, भाजपा पुलिस के इस आम रवैये को नियंत्रित करने की दिशा में विचार करेगी. उम्मीद तो नहीं है, फिर भी… उम्मीद करने में क्या हर्ज है?

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