सत्‍ता तक पहुंचते ही गूंगे क्‍यों हो जाते हैं आदिवासी जन-प्रतिनिधि?

उत्‍तर प्रदेश के सोनभद्र में 10 आदिवासियों की निर्मम हत्‍या को लेकर देश भर में बावेला मचा लेकिन झारखंड में वैसी व्‍याकुलता या क्षोभ नहीं दिखा। सोनभद्र में मामला जमीन का था। जबकि जमीन के संघर्ष के लिये झारखंड दशकों से चिन्हित किया जाता रहा है। आदिवासियों के नाम पर बने इस प्रदेश में एक चौथायी से ज्‍यादा आबादी इन्‍हीं आदिवासियों की है। जाहिर है इस नरसंहार की घटना से आदिवासी समाज आहत होगा। लेकिन सड़कों चौराहों पर खामोशी ही दिखी। सवाल उठेगा ही, कहां गई वह ‘आदिवासी सामूहिकता’? हद तो यह हो गई कि इसी आदिवासी समाज से चुनकर विधानसभा संसद तक पहुंचे आदिवासी प्रतिनिधियों की जुबान भी खामोश रही! चंद बेअसर बयानों को छोड़कर।

नमस्‍कार! जोहार!.. आज हम बात करेंगे इन्‍हीं आदिवासी जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर। चुनावों से पहले आदिवासी हित के लिये मर मिटने का ढ़ोल पीटने वाले ये नेता सदनों में… खासकर सत्‍ता पक्ष में जाते ही गूंगे क्‍यों हो जाते हैं? इस चर्चा के लिए आज मेरे साथ हैं वरिष्‍ठ पत्रकार विनोद कुमार।

विनोद कुमार मानते हैं कि आदिवासी राजनीतिकों में मैच्‍युअरिटी यानी परिपक्‍वता की कमी है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो ये प्रतिनिधि मुख्‍य धारा की राजन‍ीति के पिछलग्‍गू ही ज्‍यादा दिखते हैं। दूसरी ओर यहां के आदिवासी मतदाता, राजनीतिक जागरूकता के मामले में काफी पिछड़े दिखाई पड़ते हैं, बगल के बिहार, बंगाल से ही तुलना कर के देखिये। ..और हां, कहां गई सामूहिकता की वह भावना? वह ‘सामूहिकता’ जो आदिवासियत की पहचान कही जाती थी! सामूहिकता की शक्ति क्‍या होती है दुनिया इसकी सीख आदिवासी समाज से लिया करती थी!

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