दिल्ली के नतीजे उतने भी चौंकानेवाले नहीं हैं

दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली सफलता जितनी चौंकानेवाली लगती है, उतनी है नहीं. 2014 से केंद्र में अपराजेय भाजपा के रहते और मोदी-शाह जोड़ी की नाक के नीचे दिल्ली विधानसभा चुनावों में ‘आप’ को मिलती रही प्रचंड जीत- और भाजपा जिस अंतर से हारती रही- उससे कहीं अधिक चौंकानेवाली थी. इसे केजरीवाल की बड़ी सफलता मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए. इस बार भी भाजपा को मिली जीत इसके पहले के चुनावों में ‘आप’ को मिलती रही जीत से कहीं छोटी है- सीटों और मत प्रतिशत के मुताबिक भी. इस बार भी दोनों को हासिल मतों में महज दो प्रतिशत का अंतर है. हालांकि कि विधानसभा की सत्तर सीटों में भाजपा को 48 मिल गयीं; और ‘आप’ को महज 22. यह हमारी चुनाव प्रणाली का ही कमाल है कि वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या में कोई तालमेल नहीं होता. 2024 के संसदीय चुनावों में भाजपा को 36.93 प्रतिशत वोट मिले थे, फिर भी उसे बहुमत नहीं मिल सका था, उसके महज 240 सांसद जीत सके. दिल्ली के चुनावों में भाजपा 45.56 फीसदी वोट लेकर 70 में से 48 सीट जीत गयी! जो भी हो, यह भाजपा, खास कर नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी राहत है. यह राहत ऐसे समय मिली है, जब अमेरिका द्वारा भारतीय ‘घुसपैठियों’ को जंजीरों में बांध कर भेजे जाने के मामले में सरकार की फजीहत हो रही है; और वह निरुत्तर है!

मैं भाजपा की जीत का स्वागत नहीं कर सकता, पर ‘आप’ की हार का ‘अफसोस’ भी नहीं है. बावजूद इसके कि कुछ मामलों में दिल्ली में ‘आप’ सरकार ने अच्छा काम किया, जिस कारण भाजपा समर्थक भी उसके पक्ष में मतदान करते रहे थे. बावजूद इसके कि एलजी के कंधे पर बंदूक रख कर केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार के काम में अड़ंगा डालने में कोई कोताही नहीं की. फिर भी बहुत ‘अफसोस’ इसलिए नहीं है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ लंबी लड़ाई में केजरीवाल को बहुत रुचि है, मुझे इस पर हमेशा संदेह रहा है. बीते दस वर्षों में यह संदेह लगातार मजबूत होता गया. संदेह लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक न्याय के प्रति केजरीवाल की निष्ठा पर भी है. बेशक आज की जरूरत ‘गैर भाजपावाद’ ही है, लेकिन भाजपा विरोधी राष्ट्रीय विकल्प खड़ा हो, इसके लिए अरविंद केजरीवाल अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, यह बार बार सिद्ध होता रहा है. उनको गुमान हो गया था- शायद अब भी हो- कि वही मोदी के विकल्प हैं, हो सकते हैं; और भाजपा का विकल्प ‘आप’. और यह तभी संभव है, जब कांग्रेस और कमजोर हो जाये. जबकि मेरा मानना है कि मायनस कांग्रेस देश स्तर पर ऐसा कोई मोर्चा सफल नहीं हो सकता. दिल्ली में कांग्रेस जीरो पर ही थी, जीरो रह गयी, फिर भी उसका वोट लगभग दोगुना हुआ है, जिसका खमियाजा ‘आप’ को भुगतना पड़ा. कांग्रेस गंभीरता से सतत प्रयास करे, तो यहाँ से नयी शुरुआत कर सकती है.

अनुमान है कि आने वाले दिनों मोदी-शाह की जोड़ी ‘आप’ को खत्म करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. ‘आप’ में भगदड़ मच जाये, तो कोई आश्चर्य नहीं. इसलिए भी कि ‘आप’ के आम कैडर में भी कोई विचारधारात्मक स्पष्टता या प्रतिबद्धता है, इसमें शक है. दिल्ली में बड़ी संख्या में भाजपा समर्थक भी ‘आप’ को वोट देते रहे हैं! ‘आप’ की अनुपस्थिति में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति बन सकती है. लाँग टर्म के लिए यह बुरी स्थिति नहीं होगी. हां, यह आशंका जरूर है कि अब केजरीवाल कांग्रेस से ‘दिल्ली का बदला’ लेने पर तुल जायें! वैसे भी ‘आप’ दिल्ली से खत्म नहीं हुई है, 40 प्रतिशत से अधिक वोट मिला है. पर आगे इसमें बहुत कमी आ सकती है. यह कांग्रेस के लिए मौका हो सकता है. यह भी पता चला है केजरीवाल ने अपने मुख्यमंत्री कार्यालय और फिर पंजाब में बनी सरकार के मुख्यमंत्री के कार्यालय से भी महात्मा गांधी की तस्वीर हटवा दी. यह मेरे लिए केजरीवाल को यह नापसंद करने का एक और कारण हो गया.
वैसे विपक्षी दलों के नेताओं में महत्वाकांक्षा का रोग आम है. देश भर में आम आदमी में राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ने से विपक्ष के अनेक पहलवान शायद खुश नहीं हैं! यह विपक्ष की नियति भी है. फिलहाल इसके लिए कांग्रेस या राहुल गांधी को दोष नहीं दिया जा सकता! कांग्रेस का पुनर्जीवित होना (इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस नहीं; राहुल गांधी का वह इरादा भी नहीं दिखता) वक्त की जरूरत है. भाजपा भी असल खतरा कांग्रेस और राहुल गांधी से ही महसूस कर रही है (उसके लिए नेहरू अब भी मुख्य खलनायक हैं, ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा भी दिया); इसी कारण ‘पप्पू’ अभियान चला, जो फेल हो चुका है! मगर वह जारी रहेगा. लेकिन अब राहुल गांधी को उससे फर्क नहीं पड़ता, ‘अ-भक्तों’ को भी नहीं! हां, यह आशंका जरूर है कि ‘दिल्ली फतह’ के बाद भाजपा का अहंकार और बढ़ जाये, और वह और भी निर्द्वंद्व होकर अपने विभाजनकारी एजेंडे पर काम करने लगे. मगर फिलहाल तो देश को इस दौर को झेलना ही है.
इन नतीजों का एक सकारात्मक नतीजा यह हो सकता है कि केंद्र और राज्य सरकार के रोज रोज के टकराव का कारण खत्म हो जाने से दिल्ली की नयी सरकार मुक्त होकर काम कर सकेगी; और यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वह चुनाव में किये वायदों पर तेजी से अमल करेगी. केजरीवल ने इस चुनावी पराजय को शालेंटापूर्वक स्वीकार किया, यह देखना अच्छा लगा.

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