आधी सदी पहले देश पर थोपे गये आपातकाल पर विमर्श में यदि स्पष्ट विभाजन नजर आ रहा है, तो यह अकारण नहीं है! सत्ता पक्ष ने इस बार भी एक कर्मकांड की तरह इसका आयोजन ‘सविधान हत्या दिवस’ के रूप में किया. इंदिरा गांधी ने कैसे संविधान को स्थगित कर, लोकतंत्र को कुचल कर सारे नागरिक अधिकार छीन लिये थे, यह सब दुहराया गया. इसमें बहुत अतिशयोक्ति नहीं है! मगर उस दौरान मौजूदा सत्ता पक्ष के साथ रहे लोग- संगठन- राजनीतिकर्मी बीते करीब 11 वर्ष से सरकार की जिस निरंकुश शैली को, असहमत आवाजों को दबाने की कोशिशों को देख और झेल रहे हैं, तो उनको यह दौर यदि ‘अघोषित इमरजेंसी’ जैसा दिख रहा है, इसमें भी बहुत अतिशयोक्ति नहीं है!
बेशक उस इमरजेंसी से आज के दौर की तुलना नहीं की जा सकती. तब विपक्ष के अधिकतर शीर्ष नेताओं-सांसदों सहित कोई डेढ़ लाख राजनीतिक कार्यकर्ता जेलों में बंद थे. प्रेस पर कठोर सेंसरशिप लागू थी. राजनीतिक रैलियों-सभाओं पर तो रोक थी ही. आज वैसा कुछ नहीं हैं! मगर कुछ ऐसा है, जो इस देश ने पहले कभी अनुभव नहीं किया था.
विपक्ष के प्रति इतनी हिकारत का भाव कभी नहीं था. महज आलोचना करने या असहमति जताने को देशद्रोह और जनादेश का अपमान बताने का यह अंदाज नहीं था. यहाँ तक कि भाजपा को वोट नहीं देने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी जाती है!
हाँ, उस समय भी एक व्यक्ति- इंदिरा गांधी- को देश का पर्याय बताया गया था- ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ जैसे नारे गढ़े गये थे! तब भी सत्तारूढ़ पार्टी एक व्यक्ति/महिला- इंदिरा गांधी के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गयी थी. बेशक वह वह परम चाटुकारिता का दौर था! मगर कांग्रेस पर लोकतंत्र की, संविधान की हत्या का आरोप लगाने वाली पार्टी में भी बस एक सर्वेसर्वा है! बाकी सब रीढ़विहीन! बीते करीब 11 वर्षों से हम चाटुकारिता का उससे भी गलीज रूप देख रहे हैं! संसद में प्रधानमंत्री के आगमन के समय किसी महाराजा या देवता का ‘दरबार’ में पदार्पण का नजारा होता है! सत्ता पक्ष का एक एक सांसद खड़ा होकर उनकी जयकार करता है! बस ‘पुष्प-वर्षा’ की कमी रह जाती है! उसकी कमी आये दिन होने वाले रोड में पूरी कर ली जाती है!
प्रधानमंत्री संसद में सिर्फ बोलने जाते हैं, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर। विपक्ष को सुनने का समय और धैर्य उनमें नहीं है! लाचारी में सुनना भी पड़ता है, तो अपनी बारी आने पर विषय से हट कर विपक्ष के नेताओं पर फूहड़ कटाक्ष करते हैं, सत्ता पक्ष के सांसद तालियां बजाते हैं!
ऐसा आचरण शायद ही इसके पहले किसी प्रधानमंत्री का था. सवाल पूछा जाना उन्हें इतना नापसंद है कि 11 साल में अब तक एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं किया. यहाँ तक कि विदेश में भी प्रेस से सामना न करना पड़े, इसका उपाय कर लेते हैं! पर बोलने की बेचैनी ऐसी कि रेडियो पर हर महीने ‘मन की बात’ बोलते हैं! और सकूलों पर दबाव डाल जाता है कि बच्चे जरूर सुनें. कहने की जरूरत नहीं कि उनके दल के मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक ‘श्रद्धापूर्वक’ सुनते हैं; और यह खबर प्रमुखता से छपती है!
विदेश भ्रमण का तो संभवतः वईश्व रिकार्ड बना दिया है, मगर दो साल से हिंसाग्रस्त मणिपुर जाने का आज तक समय नहीं निकल पाये हैं!
इंदिरा गांधी ने संविधान का और सरकारी एजेंसियों-संस्थाओं का जितना दुरुपयोग किया होगा; वह बीते 11 वर्षों में हुए ‘सदुपयोग’ की तुलना में कहीं नहीं ठहरेगा. कमाल यह कि कांग्रेस और इंदिरा गांधी की जिन बातों के लिए ये आलोचना करते नहीं थकते; कोई इन पर कोई भी आरोप लगा दे, ये झट कांग्रेस शासन काल के उसे तरह के कुछ उदाहरण याद दिला कर कहेंगे- पहले भी तो ऐसा होता था! इनकम टैक्स, सीबीआई, चुनाव आयोग, राज्यपाल के पद आदि का दुरुपयोग पहले भी होता था, लेकिन उसकी मात्र लगातार बढ़ती चली गयी है!
केंद्रीय चुनाव आयोग की हालत यह है कि लोगों ने मजाक में उसे केंचुआ कहना शुरू कर दिया, जो उसके चरित्र के लिहाज से एकदम सटीक लगता है!
प्रेस पर प्रतिबंध नहीं है, मगर कथित मुख्यधारा की मीडिया स्वार्थ में, भय से या इनकी कथित विचारधारा- जिसके मूल में संकीर्ण हिंदुत्व’ है- से सहमत होकर पूरी तरह सरकार का अनुगामी हो गया है. जो छिटपुट लोग अनुकूल होने या झुकने को तैयार नहीं हुए, उनको बाहर कर दिया गया. इसके लिए सरकार के चहेते सेठों ने चैनल ही खरीद लिये! अब चैनलों पर दिन रात वही चलता है, जो सरकार के अनुकूल होता है! टीवी पर होने वाली बहसों में सत्ता पक्ष का प्रतिनिधि न भी हो तो अंतर नहीं पड़ेगा, अधिकतर एंकर ही बखूबी वह भूमिका निभाते हैं.
कांग्रेस भी चुनाव जीतने के लिए जाति और धर्म का इस्तेमाल करती थी, मगर मेरी समझ से उसकी बुनियाद में सांप्रदायिकता या जातिवाद नहीं यह या है. देश में ध्रुवीकरण का ऐसा वीभत्स रूप तो आज तक नहीं ही था. अब यह महज चुनाव जीतने का फार्मूला भर नहीं रह गया है, एक तरह से व्यवहार में यह एहसास कराया जा रहा है कि यह ‘सिर्फ हिंदुओं’ का देश है! सौ वर्ष पहले संघ ने जो लक्ष्य तय किया था, यह सरकार अनवरत उस दिशा में काम कर रही है. अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलिमों को व्यवहार में दोयम दर्जे का नागरिक बना ही दिया गया है- 24 घंटे दहशत में रहना उनकी नियति हो गयी है. कभी भी अपमानित और प्रताड़ित किया जा सकता है! संविधान उनके किसी काम नहीं आता!
उस दौर को भयावह इस अर्थ में तो माना ही जायेगा कि संविधान स्थगित कर दिया गया था, नागरिक के मौलिक अधिकार भी छिन गये थे. हालांकि इसका असर राजनीति कर्मियों और प्रेस तक सीमित था. फिर भी वह मानसिक यातना तो थी ही! मगर इस दौर से तो कोई तुलना ही नहीं है. सब कुछ ‘कानून’ के तहत और संविधान के मुताबिक हो रहा है, मगर अघोषित नियम है कि जो हाकिम के खिलाफ है, वह देशद्रोही माना जायेगा, उसके खिलाफ कैसा भी सलूक किया जा सकता है! न्यायपालिका में भी उसी मानसिकता के जजों की संख्या बढ़ती जा रही है, इसलिए वहाँ भी बहुत कम राहत मिल पाती है! न्यायपालिका की हालत यह है कि अयोध्या विवाद पर निर्णय सुनने का ठीक बाद रिटायर हुए चीफ जस्टिस राज्यसभा में मनोनीत कर दिये गये! वह फैसला देने वाली पीठ में शामिल एक अन्य न्यायमूर्ति ने चीफ जस्टिस बनने के बाद प्रधानमंत्री को अपने आवास पर पूजा में शामिल होने बुलाया! यह अभूतपूर्व था! फिर यह भी कहा कि अयोध्या विवाद के फैसले के पहले उन्होंने प्रेरणा और आशीर्वाद पाने के लिए ‘ईश्वर’ से प्रार्थना की थी!
उस समय भी जबरन नसबंदी हुई. अतिक्रमण हटाने के नाम पर बस्तियां उजाड़ी गयीं, अंधाधुंध गिरफ़्तारी हुई आदि यदि. मगर अब तो ‘बुलडोजर न्याय’ स्थापित है.
आर्थिक क्षेत्र में इनकी कोई विशेष उपलब्धि नजर नहीं आती, दावे लाख करें. महंगाई और बेरैजगारी बढ़ी है. हद तो यह है कि 80 कोरोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने को भी उपलब्धि बताया जा रहा है. इनका एजेंडा साफ है- इंदिरा गांधी ने ‘देश बचाने’ के नाम पर वह किया था-मकसद कुर्सी बचाना था! ये तो देश के नाम पर देश बेचने पर आमादा हैं! एक विवदास्पद उद्योगपति, जो ‘संयोग’ से प्रधानमंत्री के मित्र हैं, पर संसद में कोई सवाल नहीं पूछ सके, उनसे जुड़े विवाद पर कोई चर्चा न हो सके, इसके लिए सत्ता पक्ष ही सदन को बाधित करता रहा है!
एक फंड है, नाम है ‘पीएम केयर फंड’, पर इसके बारे में पब्लिक को कुछ जानने का अधिकार नहीं!
सरकार ‘एलेक्टोरल बॉन्ड’ स्कीम ले आयी, भरसक प्रयास किया कि यह गोपनीय रहे! जिन संस्थाओं-कंपनियों के खिलाफ ईडी ने केस दर्ज किया, भाजपा ने उनसे करोड़ों का चंदा ले लिया!
नागरिक के सूचना पाने के अधिकार के लिए बने आरटीआई जैसे कानून को भोथरा कर दिया गया!
इन ग्यारह वर्षों में अंधविश्वास को बढ़ावा दिया गया, कर्मकांड को महिमामंडित किया गया! वैज्ञानिक चिंतन को कुंद करने का प्रयास किया गया! डार्विन को कोर्स से हटा दिया गया!
इतिहास को विकृत करने का प्रयास जारी है!
जिस जन लोकपाल के लिया अन्ना/केजरीवाल ने बड़ा आंदोलन किया; और भाजपा जिसमें शामिल थी, आज उस लोकपाल का कोई नाम भी नहीं लेता!
‘भड़ास’ में छपे लेख में किन्हीं मनोज अभिज्ञान ने सटीक लिखा है-
“प्रेस की स्वतंत्रता कोई स्थायी गारंटी नहीं है, वह हर पीढ़ी को अपनी कलम, अपने काग़ज़ और अपनी रीढ़ से कमानी पड़ती है, क्योंकि अगर अगली बार फिर कोई सत्ता कहे — ‘मत छापो’, और संपादक फिर कहे — ‘ठीक है’, तो फिर लोकतंत्र केवल इतिहास की किताबों में मिलेगा,
‘इसलिए आज जब भी कोई अख़बार चुप रहता है, जब चैनल सरकारी प्रवक्ता बनते हैं, जब आलोचना को राष्ट्रद्रोह कहा जाता है, तो 1975 की याद ज़रूरी हो जाती है.
वह याद सिर्फ अंधेरी रात नहीं थी
वह चेतावनी थी
कि अगर हम फिर चुप हो गये,
तो यह देश फिर अंधेरे में चला जायेगा
_बिना बिजली काटे,
बिना कोई अधिसूचना जारी किये.”
आज कथित मुख्यधारा की मीडिया भी ‘संविधान हत्या’ को याद कर रहा है, प्रेस की स्वतंत्रता का महत्व बता रहा है, मगर सच यह कि आज के अधिकतर अखबार और चैनल सरकार और सत्ता पक्ष के भोंपू बन चुके हैं!
ध्यान रहे- आज फिर से न्यायपालिका को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास हो रहा है!
ध्यान रहे- कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की एक महिला न्यायाधीश रिटायर हुई हैं. उनको इसी कारण याद किया जाता है और किया जायेगा कि उन्होंने सरकार के आलोचक या विरोधी किसी अभियुक्त को जमानत नहीं दी! और उनको राज्यपाल बनाये जाने की चर्चा है!
याद रहे- कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जज ने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले इस्तीफा दे दिया, भाजपा में शामिल हुए, भाजपा का टिकट मिला और आज वे सांसद हैं! उनकी ‘ख्याति’ भी यही थी कि वे लगातार राज्य सरकार के खिलाफ फैसले देते थे, तिपण्णी करते थे! इस्तीफा देते समय बोले- मैं आरएसएस का हूं!
जो लोग मौजूदा सरकार के काम की पड़ताल और सत्ता पक्ष की आलोचना करते हैं, उनका मकसद इमरजेंसी को सही बताना नहीं होता. बस, यह एहसास दिलाना होता है कि निरंकुशता सत्ता के चरित्र में निहित होती है. इसलिए जरूरी है कि सत्ता को बेलगाम होने से रोका जाये. यह जागरूक जनमत का तकाजा भी यही है. लोकतंत्र की सफलता और मजबूती के लिए भी सतत जागरूकता जरूरी है.
और हम पाते हैं कि इंदिरा गांधी को निरंकुश और तानाशाह बताने वाले भी उनके ही नक्शेकदम पर चल रहे हैं!
याद रहे- आज भाजपा का मामूली नेता और सांसद से लेकर मंत्री और उप-राष्ट्रपति तक सुप्रीम कोर्ट को अपनी सीमा में रहने की नसीहत दे रहा है! संसद को सर्वोच्च बताया जा रहा है! कुछ टुच्चे लोग सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले से नाराज होने पर उसे ‘सुप्रीम कोठा’ तक कह रहे हैं! जाहिर है, ये उसी जमात के होंगे!
याद रहे- वक्फ बिल पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सवाल करने पर सुप्रीम कोर्ट की बिल्डिंग को मसजिद जैसा दिखा कर सोशल मीडिया पर वायरल किया गया!
किसी राज्य के एक मंत्री ने एक महिला फौजी अफसर को ‘आतंकवादियों की बहन’ कह दिया, इसलिए कि वह मुसलिम थी! उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई!
पिछली लोकसभा में सत्ता पक्ष के एक सांसद ने एक मुसलिम सांसद को ‘कटुआ’ और आतंकवादी’ कहा! उसे बस इतनी ‘सजा’ मिली कि लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं मिला! वैसे भी जब प्रधानमंत्री खुद खुली सभा में एक समुदाय को ‘घुसपैठिया’ बताते हैं तो औरों की बात क्या करना!
इसीलिए ‘लाल’ किले पर ‘भगवा’ लहराने का मंसूबा रखने वाले और ‘मनुस्मृति’ को ही आदर्श संहिता मानने वाले जब संविधान और न्यायपालिका का सम्मान करने की बात करते हैं, तो हंसी आती है!
इमरजेंसी पर सालाना छाती पीटने का कर्मकांड करने वालों से यह भी पूछा जाता चाहिए कि उसी इमरजेंसी के एक ‘नायक’ संजय गांधी (दिवंगत) की पत्नी मेनका गांधी और पुत्र वरुण गांधी आपके इतने प्रिय कैसे हो गये कि दोनों को अपनी पार्टी से संसद भेज दिया, मेनका गांधी को मंत्री भी बना दिया!क्या इन लोगों ने कभी इमरजेंसी की और उसके लिए इंदिरा गांधी की आलोचना भी की! इमरजेंसी में हुई ज्यादतियों के लिए संजय गांधी को भी गुनहगार माना जाता रहा है. उनके कृत्य के लिए इन लोगों ने कभी खेल भी प्रकट किया? वरुण गांधी तो अपने पिता के आदर्शों और अधूरे सपनों को साकार करने की बात भी करते हैं! किसी को पता है कि वे ‘अधूरे सपने’ क्या थे?
मेनका- वरुण गांधी को सम्मान और इमरजेंसी की आलोचना में कुछ विरोधाभास नहीं लगता?
जो भी हो, इमरजेंसी के अठारह महीने बनाम ग्यारह साल की तुलना होती है, होगी ही; और ऐसा करने पर कोई भी समझ सकता है कि यह दौर उससे अधिक नहीं, तो कम भयावह भी नहीं है!

1974 आंदोलन में शामिल रहा. कई बार जेल. इमरजेंसी में लगभग एक साल के लिए. तभी से सार्वजनिक की शुरुआत. फिर जेपी द्वारा गठित छात्र-युवा संघर्ष से जुड़ा, 1985 तक पूर्णकालिक कार्यकर्ता.
1986 से पत्रकारिता (प्रभात खबर) में- 2008 तक. स्वतंत्र लेखन, सामाजिक गतिविधियों में संभव सक्रियता.
लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास.
अनीश्वरवादी.
मूलतः गांधी, जेपी, लोहिया, आंबेडकर के विचारों से प्रभावित.
सांप्रदायिकता- धर्मांधता, जातिवाद और अंधविश्वास भारतीय समाज की समस्याओं के मूल कारण हैं. धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र आदि की संकीर्णता और इन आधारों पर भेदभाव देश की एकता में बाधक!