उभरती प्रतिभा : फिल्म निर्माण के जरिए आजादी के मायने बता रहीं छात्राएं

:: सिद्धि जैन ::

नई दिल्ली: दर्शकों से खचाखच भरे प्रेक्षागृह में एक लघु फिल्म के आरंभिक दृश्य में एक युवती पर्दे पर आती है। पैर के जख्म से पीड़ित वह मीटिंग में शामिल होने को लेकर चिंतित है। उसकी दोस्त ने उसे चेताया है कि अगर वह ऊंची एंड़ियों वाली जूतियां (हाई हील) नहीं पहनेंगी तो वह अच्छा प्रभाव नहीं बना पाएगी। वह दोस्त की सलाह मानती है लेकिन मीटिंग जाने पहले लड़खड़ा जाती है और ऊंची एंड़ियों वाली जूतियां पैर से निकल जाती हैं। 

वह उन्हें उठाकर मीटिंग के लिए चल पड़ती हैं। तब, उसे अहसास होता है कि सफलता ऊंची एंड़ियों वाली जूतियों पर निर्भर नहीं करती। फिल्म परवाज के आखिरी दृश्य में युवा अभिनेत्री अपनी जूतियों को उड़ाती नजर आती है और लोग इसकी सराहना करते हैं। 

यह एक मिनट की लघु फिल्म समाज में व्याप्त रूढ़ियों पर सवाल खड़ी करती है और कामकाजी महिलाओं की चुनौतियों पर प्रकाश डालती है। इस फिल्म को बनाने वाली 13 साल की अनुराधा दिल्ली के कामकाजी लोगों के इलाके में स्थित सरकारी बालिका वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय की सातवीं कक्षा की छात्रा है। 

उभरती हुई फिल्मनिर्माता अनुराधा ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "स्पष्ट तौर पर महिलाओं को हाई हील पहनने का का निर्देश नहीं दिया जा सकता, लेकिन यह मान लिया गया है कि बेहतर और विश्वास से लबालब दिखने के लिए इन्हें पहना जाता है और क्योंकि हरकोई ऐसा करती है तो हम भी यही करने लगते हैं, भले ही यह हमारे लिए आरामदेह न हो।"

महज अनुराधा नहीं बल्कि इस महीने एक दुर्लभ कार्यशाला में 11-13 से साल की उम्र की करीब 40 लड़कियां एक साथ प्रस्तुत हुई थीं और उन्होंने उन्होंने कुछ अनोखी फिल्में बनाईं जिसमें अपनी नजर से आजादी के मायने दर्शाए गए। 'लिटल डायरेक्टर्स' नाम की इस कार्यशाला में फिल्मी भाषा, संकल्पना, विवेचना, दृश्यांकन और दृश्य माध्यम से संचार के सत्र शामिल थे। 

कार्यशाला के माध्यम से इन बच्चों में मीडिया साक्षरता बढ़ाने की कोशिश की गई। इनमें से अनेक अकुशल व अर्धकुशल कामगारों और दिहाड़ी मजदूरी करने वाले प्लंबर व रिक्शाचालकों के परिवार में पैदा हुई हैं। फिल्म निर्माण कौशल से लैस पहली बार फिल्म बनाने वाली ये बालिकाएं अब अनूठी कहानियों के माध्यम से कार्यालयों और विद्यालयों में काम करने वाली और समाज की अन्य महिलाओं को आजादी के मायने बता रही हैं। 

रेशमा (11) ने अपनी फिल्म के लिए अकथात्म प्रारूप (नान नैरेटिव) चुना है जिसमें पढ़ती हुई और घरों में काम करती हुई लड़कियों के दृश्य के साथ एक कविता का वायस ओवर है। कविता की शुरुआती पंक्तियों में इस बात पर सवाल किया गया है कि औरतों को घूमने की आजादी क्यों नहीं दी जाती है? उन्हें अपनी चाहत के अनुसार पढ़ने क्यों नहीं दिया जाता है? 

फिल्म निर्माता बालिका काजल कुमार ने कहा, "गांवों में कम उम्र में ही लड़कियों की शादी कर दी जाती है जिससे वे पढ़ नहीं पाती हैं। मैंने बरेली (उत्तर प्रदेश) के पास अपने गांव में देखा है कि लड़कियां आगे पढ़ना चाहती हैं लेकिन उनके माता-पिता कुछ और ही फैसला लेते हैं।"

लघु फिल्म में एक लड़की के माता-पिता को उसकी शादी की घोषणा करते दिखाया गया जबकि वह छात्रा है। निराश बालिका वैकल्पिक सच्चाई की आरजू करती है। इतने में देवलोक से एक देवी उसे बचाने के लिए आ जाती है और उसे अपने साथ किताबों की दुनिया में जाने को कहती है। 

अभिनेत्री नीना सबनानी के साथ मिलकर कार्यशाला के आयोजन में भूमिका निभाने वाली डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता समीना मिश्रा ने कहा कि अधिकांश मामलों में इन लड़कियों के लिए आजादी को दिलचस्प ढंग से पसंद के रूप में बताया गया है। अन्य लड़कियों ने उन अकथित सामाजिक रीतियों पर सवाल किया है जो महिलाओं पर थोपी जाती हैं। 

सबनानी और मिश्रा दो दिवसीय इस कार्यशाला में किएटिव कार्यो में शामिल थीं। मार्च के आरंभ में दिल्ली में आयोजित यह कार्यशाला आईएडब्ल्यूआरटी एशियन वुमंस फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा थी। इस कार्यशाला का मकसद इसमें हिस्सा लेने वाले नवोदित फिल्मकारों को फिल्म निर्माण की मौलिक बातें बताना था। 

आठवीं कक्षा की छात्रा काजल ने कहा कि कथावाचन में उसकी हमेशा विशेष रुचि रही है और फिल्म निर्माण एक अच्छा औजार है क्योंकि हर कोई टेलीविजन, फिल्म और अब मोबाइल पर वीडियो देखते हुए बड़ा हुआ है। 

(यह साप्ताहिक फीचर श्रखंला आईएएनएस और फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन की सकारात्मक पत्रकारिता परियोजना का हिस्सा है।)

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