छत्तीसगढ भाजपा क्या अपने सबसे बुरे दिनों की ओर बढ़ रही है? 11 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सन्नाटे में डूबी पार्टी पराजय के शोक से उबरने के बजाए जिस तरह 'गृहयुद्धÓ में उलझ गई और दिनों दिन उलझती ही जा रही है, उसे देखते हुए यहीं प्रतीत होता है कि प्रादेशिक इकाई अपने इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रही है। अब तक जिलेवार हुई समीक्षा बैठकों में जिला, मंडल व ब्लॉक स्तरीय नेताओं व कार्यकर्ताओं ने अनुशासन के नाम पर चलने वाली तानाशाही के चिथड़े उड़ाने में कोई कसर नहीं छोडी हैं। उनके निशाने पर रमन सरकार के मंत्री, विधायक, प्रादेशिक नेतृत्व, संगठन के राष्ट्रीय पदाधिकारी जिनका राज्य की राजनीति में दखल हैं तथा चुनिंदा अफसरों का वह गिरोह है जिसने पार्टी के मुख्यमंत्री को 15 साल तक घेर रखा था। अफसरशाही व राजनीतिक गिरोहबंदी की वजह से सरकार जनता से दूर होती गई और अंतत: उसे विधानसभा चुनाव में इस तरह उखाड़ फेंका कि वह रसातल में पहुँच गई। अपने लगातार, तीन कार्यकाल में 48-49 विधायकों पर टिकी पार्टी सिमटकर 15 की हो गई है। सत्ता से बेदखली के दो माह पूरे हो गए हैं पर पार्टी शोक से उबर नहीं पाई है। उसका मनोबल बुरी तरह गिरा हुआ है। मध्यप्रदेश व राजस्थान में भी भाजपा सरकारें हारी, यद्यपि दोनों राज्यों में छत्तीसगढ़ जैसी बुरी हार नहीं हुई पर वहाँ पार्टी ने पराजय को खेल भावना से स्वीकार किया तथा अपने मनोबल को गिरने नहीं दिया इसलिए वे आगामी लोकसभा चुनाव में चुनौती देने की स्थिति में है जबकि छत्तीसगढ़ में भाजपा ने घुटने टेक दिए हैं। अंतरकलह मौजूदा समय में उसकी सबसे बड़ी समस्या है जिससे पार पाना तब तक मुश्किल है जब तक कि संगठन में वांछित परिवर्तन न किए जाएँ जिसकी पुरजोर माँग है। पार्टी ने रमन सिंह व धरमलाल कौशिक के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था। रमन सिंह राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिए गए। जबकि कौशिक अभी भी प्रदेश अध्यक्ष हैं तथा उन्हें तोहफे के तौर पर नेता प्रतिपक्ष भी बना दिया गया है। पार्टी साफ-साफ दो खेमों में बँट गई है। एक का नेतृत्व रमन -धरम कर रहे हैं जबकि दूसरे का बृजमोहन व अन्य।
चुनाव परिणाम आने के बाद जब धरमलाल कौशिक ने समीक्षा बैठक में कहा कि पार्टी को कार्यकर्ताओं ने हरा दिया तो उन्होंने कोई गलत नहीं कहा था। रमन सिंह ने भी हार का ठीकरा कार्यकर्ताओं पर फोड़ा। उनका मानना था कि कार्यकर्ता ढीले पड़ गए थे। एक प्रदेश अध्यक्ष व दूसरे मुख्यमंत्री यानी क्रमश: संगठन व सत्ता के मुखिया और उनकी ऐसी प्रतिक्रिया! जाहिर है इसकी तीखी आलोचना हुई और पलटवार शुरू हो गया। कौशिक को पीछे हटना पड़ा। उनका यह भी कहना था कि कार्यकर्ताओं के परिवारों से दो वोट भी पड़े होते तो पार्टी जीत जाती। जीतती या नहीं, यह अलग बात है पर यह सच है कि रमन सरकार का तीसरा कार्यकाल संगठनात्मक दृष्टि से बहुत खराब रहा। कार्यकर्ता गौण हो गए व मंत्री, विधायक व अफसर तानाशाह। उपेक्षा से आहत कार्यकर्ताओं ने सबक सिखाना तय कर रखा था। लिहाजा गुस्साएँ कार्यकर्ताओं व स्थानीय नेताओं ने पार्टी के पक्ष में काम नहीं किया। और तो और आरएसएस के राजनीतिक स्वयंसेवक भी घर में बैठे रहे। दरअसल रमन सरकार व प्रादेशिक नेतृत्व से अप्रसन्नता इतनी बढ़ गई थी कि हर कोई चाहता था कि पार्टी हार जाए। वह हार गई। हार के साथ ही राजसत्ता व अनुशासन का दबाव खत्म हो गया फलत: आंतरिक विस्फोट शुरू हो गए जिसकी गूँज दिल्ली तक पहुँच गई है। आधा दर्जन सांसदों ने हाल ही में दिल्ली में राष्ट्रीय महामंत्री भूपेन्द्र यादव से मुलाकात की व संगठन की आंतरिक स्थिति का हवाला देते हुए आमूलचूल परिवर्तन की माँग की। यादव अमित शाह के नजदीक माने जाते हैं।
पार्टी के दिल्ली दरबार को उम्मीद है कि समीक्षा बैठकों के बाद नेताओं व कार्यकर्ताओं का आक्रोश खत्म हो जाएगा और वे पुन: अपने काम में लग जाएँगे पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। दो फरवरी को भाजपा कार्यालय में प्रदेश प्रभारी व वरिष्ठ नेताओं व पदाधिकारियों की मौजूदगी में जो नजारा पेश हुआ, वह पार्टी व आरएसएस के लिए खासी चिंता का सबब है। शहर जिला अध्यक्ष राजीव अग्रवाल व एक पूर्व विधायक के बीच ऐसी झड़प हुई कि मारपीट की नौबत आ गई। चुनाव में रायपुर ग्रामीण से पराजित नंदे साहू को धक्के देकर सभा कक्ष से बाहर खदेड़ा गया। हंगामा यों बरपा हुआ कि बौखलाए भाजपाइयों ने मीडिया कर्मियों को भी नहीं बख्शा। उनके साथ मारपीट व बदसलूकी की गई। इस घटना की छत्तीसगढ़ मीडिया जगत में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। और उनका प्रदेश व्यापी आंदोलन शुरू हो गया। इसके पूर्व प्रदेश प्रभारी डा. अनिल जैन भी पत्रकार वार्ता में एक सवाल पर आपा खो बैठे थे जिसके लिए बाद में उन्होने खेद व्यक्त किया। इन घटनाओं से जाहिर है, पार्टी में भगदड़ जैसी स्थिति है। यहीं कारण है कि आरएसएस को पार्टी मामलों में सीधा हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। दो फरवरी को संघ कार्यालय में राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख नरेन्द्र सिंह तथा दीपक विस्पुते जो पहले छत्तीसगढ़ के मामले देखते रहे हैं, ने छोटे-बड़े नेताओं व कार्यकर्ताओं ने मुलाकात की तथा पराज्य के कारणों पर उनके विचार जाने।
दरअसल अप्रत्याशित चुनाव परिणामों से संगठन में जो स्तब्धता पसरी हुई थी, वह यद्यपि 4 जनवरी 2019 को नेता प्रतिपक्ष के चुनाव के समय टूटी पर गुटीय प्रतिद्वंदिता खुलकर बाहर आ गई। रमन विरोधी खेमे को उम्मीद थी कि वरिष्ठ व बलिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल जिनके पर कतरने में रमन सिंह ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी व मुखर आदिवासी नेता ननकीराम कँवर में से कोई एक नेता प्रतिपक्ष चुना जाएगा। लेकिन रमन सिंह का दाँव चल गया तथा केन्द्र के फरमान से प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक नेता प्रतिपक्ष बना दिए गए। इस घटना से दरारें और चौड़ी हो गई। बाद में लोकसभा चुनाव की दृष्टि ये राज्य की 11 सीटों के लिए जो तीन क्लक्टर बनाए गए उनकी कमान जीते हुए वरिष्ठ विधायकों को सौंपने के बजाए हारे हुए नेताओं को सौंपी गई। इसने आग में घी डालने का काम किया। 24 जनवरी को प्रभारी अनिल जैन की उपस्थिति में हुई बैठक में बड़े व असंतुष्ट नेता विधायक बृजमोहन अग्रवाल, सांसद रमेश बैस, राष्ट्रीय महामंत्री व सांसद सरोज पांडेय, प्रेमप्रकाश पांडे, नारायण चंदेल शामिल नहीं हुए। और तो और विधायक अजय चन्द्राकर ने अनिल जैन से प्रतिप्रश्न किया कि महासमुंद लोकसभा सीट के लिए उन्हें प्रभारी नियुक्त करने के पहले उनसे पूछा क्यों नहीं गया। इससे स्पष्ट है कि असंतुष्ट विरोध व्यक्त करने में पीछे नहीं है जबकि रमन-धरम खेमा किसी भी तरह संगठन में अपने वर्चस्व को बनाए रखना चाहता है।
बंद कमरों की समीक्षा बैठकों में नेताओं व कार्यकर्ताओं ने अपनी भड़ास निकाली ही, सार्वजनिक रूप से भी वे पराजय के लिए रमन सरकार की गलत नीतियों व लचर नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराते रहे। पूर्व सांसद व किसान नेता चन्द्रशेखर साहू ने तो यहाँ तक कहा कि हम दस साल के लिए सत्ता से दूर हो गए हैं। हमने किसानों की उपेक्षा की, समय पर उनकी सुध नहीं ली। इसके लिए हमें उनसे माफी माँगनी चाहिए। कोई नहीं तो वे खुद माफी माँगेंगे। उनका आशय पार्टी की माफी से था ताकि लोकसभा चुनाव में इसका सकारात्मक प्रभाव पड़े। माफी तो खैर किसी ने भी नहीं माँगी है, कृषि मंत्री रह चुके चन्द्रशेखर साहू ने भी नहीं हालाँकि इस बीच धरम कौशिक ने संकेत दे दिया कि पार्टी ऐसा कुछ नहीं करेगी। उन्होंने चन्द्रशेखर की राय को खारिज करते हुए कहा कि किसानों से माफी माँगने की जरूरत नहीं है क्योंकि रमन सरकार ने उनका पूरा मान रखा तथा उनके हितों की रक्षा की।
बहरहाल, जब पार्टी में ऐसा घमासान मचा हो तो स्पष्ट है कि अप्रेल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में वह नतीजे बेहतर देने की स्थिति में फिलहाल नजर नहीं आ रही है। वर्ष 2014 के चुनाव में भाजपा ने 11 में से दस सीटें जीती थीं। यह तो तय है प्रदेश भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों को दोहराने की स्थिति में नहीं है। अब सवाल यही है कि वह कांग्रेस की चुनौती का किस तरह सामना करेगी। यदि कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर नहीं हुई, उनके सम्मान का ध्यान नहीं रखा गया तो विधानसभा चुनाव के दौरान खिलाफ बही हवा को रोक पाना एवम् उसे अपने पक्ष में करना पार्टी के लिए असंभव सा हो जाएगा। हालाँकि नेताओं व कार्यकर्ताओं को गतिशील करने की गरज से केन्द्रीय संगठन ने पहले ही जनवरी से मार्च तक कार्यक्रम तय कर दिए हैं। किंतु डेढ़ माह से असंतोष का लावा धधक रहा है। राख के नीचे अंगारे अभी सुलग रहे हंै। ये तभी शांत होंगे जब संगठन को नया अध्यक्ष व कुछ हद तक नई टीम मिलेगी। तभी लोकसभा चुनाव की तैयारियों को गति मिल सकेगी सिर्फ प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय अध्यक्ष के दौरे एवं सभाओं से नहीं जो इसी माह प्रस्तावित है।
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