देश और समाज के लिए जिस जातिवाद को हमेशा शर्मनाक, दुखद और कोढ़ मानता रहा हूँ, आज अचानक उसका एक सकारात्मक पक्ष नजर आने लगा है. इस तरह कि मौजूदा परिस्थिति में वह अचानक हिंदू धर्मान्धता की काट लगने लगा है. कल्पना करें कि मौजूदा माहौल में हिंदू एकता का राजनीतिक नतीजा क्या हो सकता है/था.
विजय तेंदुलकर के इस शीर्षक का चर्चित नाटक समकालीन सामाजिक विद्रूप को थोड़ा व्यंग्यात्मक नजरिये से खोलता है. वह विद्रूप आज भी सभ्य और आधुनिक होने के हमारे दावे की खिल्ली उडाता है. आज भी हिंदू समाज की विलक्षण जातिप्रथा समाजशास्त्रियों के लिए एक अबूझ पहेली बनी हुई है. यह समाज को बांटती भी है, कहीं जोड़ती भी है. दरअसल हमारा (हिंदू) समाज विभिन्न जातियों का एक संगठन ही है. जो लोग प्रकट में इसकी निंदा करते हैं, उनमें से भी अधिकतर न सिर्फ इसमें जकड़े हुए हैं, बल्कि इसका ‘लाभ’ भी उठाते हैं.
बहरहाल, आज जातीय जकड़न के एक ‘सकारात्मक’ प्रभाव के आकलन की थोड़ी चर्चा.
आरआरएसएस (संघ) का घोर आलोचक होने के बावजूद उसके इस कथन या दावे से मैं एक हद तक सहमत रहा हूं कि भारत का लोकतान्त्रिक; और खास कर धर्मनिरपेक्ष चरित्र इस देश की बहुसंख्यक (हिंदू) आबादी के उदार चरित्र के कारण ही बचा हुआ है. लेकिन अब लगने लगा है कि इसका कारण हिंदू समाज की उदारता के बजाय या उससे अधिक उसका जन्मना कथित उच्च व निम्न जातियों में विभाजित रहना है. संघ ने तो भरसक प्रयास किया है कि सारे हिंदू सामाजिक भेदभाव के बावजूद एकजुट हो जाएँ. ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’, ‘जो हिंदू हित की बात करेगा, वह भारत पर राज करेगा’ और 'हिदी, हिंदू हिंदुस्तान' जैसे उसके नारों के पीछे यही उद्देश्य रहा है. लेकिन सच यही है कि जन्मना जातियों के बीच सामाजिक भेदभाव के कारण हिंदू समाज कभी एक समरस समाज बन ही नहीं पाया. और धार्मिक उन्माद और अल्पसंख्यकों के प्रति विद्वेष के खाद-पानी से हिंदू एकता की बात करनेवालों ने कभी उस सामाजिक भेदभाव को दूर करने का गंभीर प्रयास किया ही नहीं (शायद यह उनका मकसद भी नहीं है, इसलिए भी कि उनमें से अधिकतर खुद जातीय संकीर्णता और अहंकार से ग्रस्त हैं), जो इस एकता की राह में बाधक बना हुआ है.
ऐसे में देश और समाज के लिए जिस जातिवाद को हमेशा शर्मनाक, दुखद और कोढ़ मानता रहा हूँ, आज अचानक उसका एक सकारात्मक पक्ष नजर आने लगा है. इस तरह कि मौजूदा परिस्थिति में वह अचानक हिंदू धर्मान्धता की काट लगने लगा है. कल्पना करें कि मौजूदा माहौल में हिंदू एकता का राजनीतिक नतीजा क्या हो सकता है/था.
प्रसंगवश, बीते 13 मई को पश्चिम चंपारण के एक मित्र ने 12 को वहां हुई वोटिंग के बारे में बताया कि “अंततः हिंदू-मुस्लिम हो गया; या यों कहो कि जब मुस्लिम ‘उधर’ हो गये, तो हिंदू भी ‘इधर’ हो गये.” हालांकि उसने मुस्लिमों के साथ उन हिंदू जातियों का भी जिक्र किया, जो ‘उधर’ हो गये. निश्चय ही मित्र का कथन और आकलन गलत था. मैंने उसे बताया भी कि ऐसा तो हमेशा से होता रहा है, कि अपवादों को छोड़ कर मुस्लिम कभी भाजपा के पक्ष में मतदान नहीं करते हैं, फिर भी कोई गैर भाजपा दल यदि जीतता है तो इसलिए कि हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा ‘उधर’ हो जाता है.
इसी सन्दर्भ में कुछ दिन पहले एक मित्र (विजय प्रताप, दिल्ली) से जब फोन पर अपना यह आकलन बताते हुए कहा कि मैं ‘जातिवाद जिन्दावाद’ शीर्षक से एक लेख लिखना चाहता हूँ, तो उन्होंने ‘अभी मत लिखिए’ कहते हुए मना किया कि इसका अच्छा संदेश नहीं जायेगा. साथ ही बताया कि समाजवादी विचारक किशन पटनायक (दिवंगत) यही बात बहुत पहले लिख चुके हैं. थोड़े ऊहापोह के बाद साथियों की गाली खाने का जोखिम उठाते हुए लिखने का फैसला कर लिया. हालांकि शीर्षक बदल गया.
जो भी हो, भारतीय (फिलहाल हिन्दू ही समझें) मतदाता जागरूक और परिपक्व हो गये हैं, आज तक इस दावे से पूरी तरह सहमत नहीं हो सका हूं. दैनंदिन व्यवहार में हम (हिंदू) अपने जन्मगत जातीय संस्कार से संचालित तो होते ही हैं, चुनावों के समय तो अपवादों को छोड़ कर औसत भारतीय जाति/कुनबे के आधार पर ही मतदान करता है. ’77 या ’84 के चुनावों को अपवाद माना जा सकता है. बेशक इस मामले में हिन्दी पट्टी अधिक बदनाम है, लेकिन सच यही है कि अमूमन प्रत्येक राज्य का समाज (हिंदू) जन्मना ऊंच-नीच में विभाजित है और अपना प्रतिनिधि चुनते समय अपने जातीय समुदाय के कथित हित को सर्वोपरि मानता है. हां, इन जातियों के तालमेल और गंठजोड़ से अलग अलग दलों का वोट बैंक तैयार होता है, जिसमें एक ही खेमे में कथित अगड़े-पिछड़े और दलित जातियां भी शामिल रहती हैं.
कुछ राजनीतिक दल प्रछन्न रूप से जाति आधारित हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि अन्य दल प्रत्याशियों के चयन में सम्बद्ध चुनाव क्षेत्र की सामजिक संरचना और उनमें किस ‘जाति’ की कितनी आबादी है, इसका ख्याल नहीं रखते. अपवादों को छोड़ कर तमाम दलों के कार्यकर्त्ताओं और नेताओं की पहचान ख़ास जाति से ही होती है. प्रचार के लिए चुनाव क्षेत्र की सामाजिक बनावट के आधार पर ‘खास’ नेताओं को बुलाया जाता है. उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के गंठबंधन को यदि प्रभावी माना जा रहा है, तो क्या इस कारण नहीं कि दोनों दलों का समर्थन आधार ख़ास समुदायों में है और दोनों मिल कर एक बड़ा वोट बैंक बन जाते हैं? सारे चुनावी पंडित, अखबार और चैनल क्षेत्र में जातियों के प्रतिशत और किसे कितना हिस्सा मिलेगा, इसी आधार पर जीत-हार का अनुमान लगाते रहे हैं, लगा रहे हैं.
यह और बात है कि दूसरे को जातिवादी कहनेवाले को अपना या अपने समुदाय का जातिवाद नहीं दिखता है. अपने पसंदीदा दल के पक्ष में जातीय गोलबंदी में कुछ गलत नहीं दीखता. ऐसे में अगड़ों/सवर्णों को सिर्फ पिछड़ों और दलितों का किसी दल या नेता (राजद, सपा, बसपा आदि) के पक्ष में गोलबंद होना तो नाजायज लगता है; मगर जब सवर्ण भाजपा/मोदी के पक्ष में थोक मतदान करते हैं, तो उनके अनुसार वे ‘जाति से ऊपर’ उठ कर राष्ट्रहित में मतदान कर रहे होते हैं! जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ होते है, जैसा कि वर्ष 2005 से ’14 के संसदीय चुनाव के ठीक पहले तक थे, तब तक नीतीश जी की बिरादरी के वोटर जातिवादी नहीं थे; लेकिन ’15 के विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू के साथ हो जाने पर भाजपा के खिलाफ वोट दिया, तो वे संकीर्ण जातिवादी हो गये; और उसके कुछ माह बाद जब नीतीश जी दोबारा भाजपा के साथ हो गये, तो नीतीश जी और जदयू का समर्थक तबका फिर से संकीर्ण जातिवाद के आरोप से बरी हो गया! इसी को पलट कर इस तरह भी कह सकते हैं कि जब नीतीश कुमार सेकुलर खेमे में रहते हैं, तो उनके जातीय समर्थक भी सेकुलर मान लिये जाते है; और जब वे भाजपा के साथ होते हैं, तो कम्युनल हो जाते हैं!
रांची में कांग्रेस की जीत की उम्मीद इस उम्मीद पर भी टिकी है कि भाजपा के बागी रामटहल चौधरी कितने महतो वोट काट सकेंगे! पटना साहिब के बारे में एक चर्चा यह भी है (हो सकता है इसे एक पक्ष ने फैलाया हो) कि वहां के कायस्थ मतदाताओं के एक हिस्से को लगता है कि रविशंकर प्रसाद तो सांसद (राज्यसभा) हैं ही, शत्रुघ्न सिन्हा जीत गये तो अपनी बिरादरी का एक और सदस्य सांसद बन सकता है.
गौरतलब है कि विभिन्न जातियों को जोड़ कर चुनावी जीत सुनिश्चित करने को आजकल ‘सोशल इंजीनियरिंग’ या ‘समीकरण’ कहा जाता है; और इसमें किसी को कुछ गलत नहीं लगता. इसे शायद गलत कह भी नहीं सकते, लेकिन यह जातीय संकीर्णता का अपने पक्ष में इस्तेमाल करना ही तो है. यानी 'सिद्धांत' यह हुआ कि जातिवाद वही बुरा है, जो हमारे खिलाफ जाता है.
मूल बात है कि जन्मना जाति एक सच्चाई है. व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक अपनी जाति में उठता-बैठता और जीता है. उसकी यह पहचान मरने पर भी नहीं मिटती. हम तो गांधी, नेहरू, भगत सिंह जैसे चंद अपवादों को छोड़ कर अपने महापुरुषों और नायकों को भी उनकी जाति के आधार पर पहचानने लगे हैं. बिहार में तो सम्राट अशोक की जाति का भी पता लगा लिया गया. 'क्षत्रिय महासभा', ‘ब्रह्मर्षि समाज’, ‘चित्रगुप्त समाज’, ‘कुडमी विकास परिषद’, ‘निषाद सभा’ आदि में तो उन समाजों के शिक्षित और आधुनिक लोग भी शिरकत करते हैं. प्रत्येक दल में जातियों के प्रकोष्ठ बने हुए हैं, सभी दलों के नेता ‘अपनी’ जाति के सम्मलेन में शामिल होते हैं. जातियों के नाम पर स्कूल और छात्रावास बने हुए हैं. शिक्षक संघ, संस्थानों के अधिकारियों के संघ, यहाँ तक कि पत्रकार संघों के चुनाव में भी जातीय गोलबंदी होती है. तो सिर्फ चुनाव में यह उम्मीद कैसे करते हैं कि आदमी अपनी जाति भूल जाये. ऐसे में लोग अपनी ‘बिरादारी’ के प्रतिनिधि को चुनना चाहते हैं, तो इसमें हैरानी का क्या बात है.
जातिवाद की इस तात्कालिक ‘सकारात्मकता’ के बावजूद मेरा निश्चित मत है कि जाति की घेराबंदी टूटनी चाहिए. इस आशावाद के कारण कि जब कोई अपनी जन्मना जाति की संकीर्णता से ऊपर उठ जायेगा, तब वह धर्म की संकीर्णता से भी परे हो जायेगा. लेकिन फिलहाल यह उम्मीद बहुत दूर की कौड़ी लगती है. इसलिए अभी तो जाति की निंदनीय संकीर्णता का यह नतीजा (धर्मान्धता की काट के रूप में) अच्छा ही लगता है.
मुस्लिम समाज की संकीर्णता और चुनावों में उसकी मानसिकता पर फिर कभी.