याद करें कि पिछली बार संसद भवन में प्रवेश करते हुए श्री मोदी ने संसद की चौखट पर मत्था टेका था. इस बार भारतीय संविधान को पवित्र और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ बताया. क्या सचमुच वे ऐसा मानते हैं?
कायदे से यह समय दोबारा प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेंद्र मोदी को शुभकामनाएं देने, इस बार उनसे कुछ बेहतर करने की अपेक्षा का है. राजग के नवनिर्वाचित सांसदों के सामने बोलते हुए, या कहें, दोबारा सत्ता संभालने के ठीक पहले गत 25 मई को वे कुछ बदले अंदाज में भी दिखे. बहुतों को लगा कि उनका भाषण ‘अद्भुत’ था. कि यह विजय से उपजी विनम्रता का सकारात्मक संकेत है. वेदप्रताप वैदिक ने लिखा कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के भले की बात करके ‘सच्चे हिंदुत्व’ का परिचय दिया.
याद करें कि पिछली बार संसद भवन में प्रवेश करते हुए श्री मोदी ने संसद की चौखट पर मत्था टेका था. इस बार भारतीय संविधान को पवित्र और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ बताया. क्या सचमुच वे ऐसा मानते हैं? उनकी जमात ऐसा मानती है? पूरे पांच साल तक उनकी सरकार ने जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन किया है, उनके दल के लोग जिस तरह खुलेआम संविधान बदलने की बात करते रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि उनका संविधान को पवित्र बताना भी एक दिखावा है. जैसे सार्वजनिक रूप से डॉ आंबेडकर और गांधी के प्रति सम्मान दिखावा है.
बेशक श्री मोदी में ऐसा बदलाव आ जाये, तो स्वागतयोग्य है. लेकिन उनके अतीत के बोल व अंदाज और उसी भाषण में उनकी कुछ बातों से संदेह होता है.
मेरी समझ से तो श्री मोदी ने अपने संसदीय जीवन के दूसरे टर्म का प्रारंभ करने के ठीक पहले जो कुछ कहा, उसमें ‘अद्भुत’ जैसा कुछ नहीं था, बल्कि झूठ और पाखंड था. उन्होंने अल्पसंख्यकों के भले की बात तो की, पर कहा कि अल्पसंख्यकों को डरा कर रखा गया है. कहा कि उनका 'भी' विश्वास जीतने की जरूरत है. यदि वे अपनी जमात के नेताओं के अल्पसंख्यक विरोधी बयानों और उनकी हरकतों के लिए; और अपने कुछ बयानों के लिए क्षमा याचना करते और वायदा करते कि आगे ऐसा नहीं होगा, तो थोड़ी देर के लिए विश्वास किया जा सकता था.
लेकिन...
अभी संपन्न चुनाव के दौरान जब श्री मोदी ने आरोप लगाया कि राहुल गांधी वायनाड से इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं कि वहां मुसलमानों की आबादी अधिक है, तो वे सिर्फ राहुल पर तंज कर रहे थे? देश के मुसलमानों के प्रति अपना ख्याल नहीं व्यक्त कर रहे थे? पूरे चुनाव के दौरान आतंकवाद (पढ़ें-मुसलिम, क्योंकि उनके मुताबिक हिंदू तो आतंकवादी हो ही नहीं सकता), पुलवामा, पकिस्तान का जिस तरह बार बार जिक्र करते रहे, वह महज देशभक्ति जगाने का प्रयास था; या कि संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवाद की भावना का चुनावी दोहन करना भी था? और आतंकवाद की आरोपी एक कथित साध्वी को प्रत्याशी बना कर मोदी-शाह ने क्या संकेत दिया? यदि प्रज्ञा ठाकुर को, उनके अनुसार, झूठे आधारों पर फंसाया गया, तो क्या बहुतेरे मुस्लिम नौजवान भी- और यूपीए शासन काल में भी- आतंकवादी होने के झूठे मामलों में वर्षों तक जेलों में बंद नहीं रहे? इन लोगों ने ऐसे एक भी मामले का कभी जिक्र किया?
तो सवाल है कि अल्पसंख्यकों को डरा कर किसने रखा था/है? कथित लव जिहाद, धर्मांतरण और गाय-बीफ आदि मुद्दों पर उत्पात मचाते रहे, सरे आम मॉब लिंचिंग करते रहे लोग क्या कांग्रेसी और वामपंथी थे? ऐसे गुंडों और संदिग्ध हत्यारों का बचाव और अभिनंदन कौन लोग कर रहे थे?
बीते 20-30 वर्षों और उसके भी पहले भाजपा-जनसंघ के कृत्य याद कर लीजिये. उनके नारों और उनकी मांगों को याद कीजिये, पता चल जायेगा कि इनके दिल में अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलिमों के लिए कैसा प्यार उमड़ता रहा है.
'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान', 'जो हिंदू हित की बात करेगा, वो भारत पर राज करेगा', भारत में यदि रहना है तो, वंदेमातरम कहना होगा' जैसे नारे कौन लोग लगाते लगवाते रहे हैं? इन नारों से जाहिर क्या होता है?
पहले जनसंघ, फिर भाजपा के चंद प्रमुख मुद्दों/मांगों को देखें - धर्मांतरण पर रोक, धारा 370 की समाप्ति, अयोध्या में एक मसजिद की जगह मंदिर का निर्माण, बीफ पर प्रतिबंध, कॉमन सिविल कोड. इनमें एक भी ऐसा मुद्दा है, जिसके दूसरे सिरे पर मुसलिम समुदाय नहीं है; या जिससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आशंका नहीं बनती?
अभी अभी 'तीन तलाक' का मुद्दा बेहद जोर से और आक्रामक ढंग से उठाया गया. कानून भी बन गया. मोदी महान तीन तलाक की मारी 'मुसलिम बहनों की पीड़ा' से व्यथित हो गये. बेशक तीन तलाक एक बुरी प्रथा है, जिसका अंत होना चाहिए. मगर क्या इसके पीछे भाजपा और मोदी का मकसद सचमुच मुसलिम महिलाओं को राहत दिलाने का ही था? तो फिर 'जशोदा बेन' जैसी बिना विधिवत तलाक के छोड़ दी गयी महिलाओं और मथुरा-वृंदावन में भटक रही हिंदू विधवाओं के लिए भी वही व्यथा क्यों नहीं?
मोदी/भाजपा के आलोचकों को देश-हिंदू विरोधी बतना, भाजपा को वोट न देने वालों को पाकिस्तान भेजने की धमकी. ऊर्दू के शब्दों तक से चिढ़ का प्रदर्शन, मुसलिम शासन काल में बनी इमारतों व शहरों के नाम बदलने की जिद- फिर भी आप कहते हैं कि अल्पसंख्यकों को दूसरों ने डरा कर रखा है, तो कौन यकीन करेगा?
सच तो यह है कि संघ या भाजपा को जब कोई कम्युनल कहता है, तो उसके नेता नाराज होने का महज दिखाव करते हैं. इसलिए कि इससे इस जमात को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होता. उलटे उसके हिंदू हितैषी की छवि पुष्ट होती है, जो वोट की शक्ल में इनकी झोली भरती है. इसलिए वे भविष्य में भी दूसरों को छद्म सेकुलर कहते रहेंगे और ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा लगते रहेंगे. इस जमात का असली चेहरा तो गिरिराज किशोरों, प्रज्ञा ठाकुरों और साक्षी महाराजों आदि के विषैले बोलों से उजागर होता है, जिनके कथित ‘अपत्तिजनक’ बयानों को मोदी-शाह आदि उनके निजी मत कह कर किनारा कर लेंगे. दूसरी और उनको कुछ भी बोलने की, कथित गो-रक्षकों को कुछ भी करने की, गोद्सेवादियों को ही नहीं, भाजपा के नेताओं और समर्थकों को गांधी के खिलाफ कुछ भी बोलने लिखने की छूट जारी रहेगी.
मैं चाहता हूँ कि इस बार मेरी और मुझ जैसों की आशंका गलत सिद्ध हो. और ऐसा हुआ तो विरोध/आलोचना का आधार भी नहीं रहेगा. लेकिन भाजपा में ऐसा सकारात्मक बदलाव हो जाये, तब वह ‘भाजपा’ कैसे रहेगी; और तब वह ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कैसे रहेगी?
फिर भी उम्मीद और कामना की जानी चाहिए इस चमत्कारिक विजय से श्री मोदी में सचमुच विनम्रता और शालीनता आयेगी; और वे सचमुच सबको साथ लेकर चलने के अपने नारे पर चलने की शुरुआत करेंगे. बदलाव तो अवश्यम्भावी है. ये भी बदल ही सकते हैं.