ऐसा लगता है कि गांधी को सही मानने और संघ की आलोचना करनेवाले हम सब विफल रहे हैं. क्या ऐसा नहीं लगता कि धर्मांधता और बहुसंख्यकवाद का विरोध और समरसता, समानता, बहुलतावाद पर हमारे तर्क आम आदमी के गले नहीं उतर रहे; या हम अपनी बात ढंग से नहीं रख पा रहे; या इन मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा कमजोर है, कि हमारी करनी और कथनी में फर्क है?
महात्मा गांधी के पुतले को किसी ने गोली मार दी, यह शर्मनाक और दुखद जितना भी हो, मूलतः यह समस्या या चिंता की बात नहीं है. यह कृत्य कानूनन अपराध है या नहीं और ऐसा करनेवालों के खिलाफ पुलिस क्या कार्रवाई कर रही है; या विभिन्न दलों के नेता-सांसद इस पर आदि क्या बोल रहे हैं, मेरी समझ से यह भी हमारे लिए कोई विशेष गंभीर और चर्चा का विषय नहीं होना चाहिए.
इस घटना का एक संकेत तो यह है कि (हिंदू) समाज में गांधी के प्रति घृणा बढ़ रही है, साथ ही गोडसेपंथियों की तादाद भी. और यही हमारे लिए चिंता और मंथन का विषय यह होना चाहिए. लेकिन क्या यह आचानक हुआ है? क्या संघ के प्रभाव में विस्तार और मोदी की बढ़ती लोकप्रियता का यह अपरिहार्य सच नहीं है?
गांधी सचमुच अप्रासंगिक हो चुके हैं, यह तो नहीं कहा जा सकता. न ही ऐसी घटनाओं से यह नतीजा निकालना उचित है. वैसे भी किसी व्यक्ति/महापुरुष का सही मूल्यांकन इतिहास अपने समय और तरीके से करता है.
सोवियत संघ के पतन के बाद हमने रूस में लेनिन की प्रतिमाओं को तोड़े जाने का दृश्य देखा. तो क्या लेनिन को खलनायक या अप्रासंगिक मान लिया गया? नहीं. पूरी दुनिया में लेनिन को गलत मानने वाले, उनसे नफरत करने वाले पहले भी थे, आज भी हैं. मगर लेनिन को नायक मानने और उनसे प्रेरणा लेने वाले आज भी दुनिया भर में हैं.
बापू और राष्ट्रपिता का दर्जा प्राप्त कर चुके, देश को गुलामी से मुक्त करने के लिए चले आन्दोलन के सर्वमान्य नेता गांधी की हत्या तो आजादी के तत्काल बाद, एक भारतीय. एक हिन्दू ने ही कर दी थी.
उसके पहले जब देश साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जल रहा था और गांधी उस आग को शांत करने के लिए दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूम रहे थे, तब भी उनको गालियाँ दी जा रही थीं. मुस्लिम बहुल नोआखोली में, जहां हिन्दू मारे जा रहे थे, वहां मुस्लिम अतिवादी/धर्मांध प्रारंभ में उनके खिलाफ थे. जब वे दिल्ली में हिंदू धर्मान्धता के खिलाफ और मुसलिम पीड़ितों के पक्ष में उपवास कर रहे थे, तब संकीर्ण हिंदूवादी और पाकिस्तान से जान बचा कर भागे हिंदू पीड़ित उनके खिलाफ नारे लगा रहे थे.
और अंततः ‘महामना’ हिंदू वीर गोडसे ने उनको गोली ही मार दी. पर दुनिया जानती है कि गांधी तब भी ज़िंदा रहा; और आज भी जीवित है. क्योंकि गांधी महज एक हाड़-मांस का पुतले का नाम नहीं है, वह एक विचार है. तभी तो उससे नफ़रत करने वाले आज भी गांधी के पुतले को गोली मार कर अपनी ‘वीरता’ दिखाते हैं.
जो भी हो, ऐसा लगता है कि गांधी को सही मानने और संघ की आलोचना करनेवाले हम सब विफल रहे हैं. क्या ऐसा नहीं लगता कि धर्मांधता और बहुसंख्यकवाद का विरोध और समरसता, समानता, बहुलतावाद पर हमारे तर्क आम आदमी के गले नहीं उतर रहे; या हम अपनी बात ढंग से नहीं रख पा रहे; या इन मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा कमजोर है, कि हमारी करनी और कथनी में फर्क है?
वैसे भी उप्र, जिसे ‘गुजरात’ के बाद आक्रामक हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला के रूप में ढाला जा रहा है, की इस घटना पर अचरज क्या करना? इसके दोषियों को क्या और कितनी सजा मिलती है, इससे आगे बढ़ कर देखने की जरूरत है. जो लोग नफरत के बजाय प्रेम की ताकत में भरोसा करते हैं, आपसी सौहाद्र को बढ़ावा देने की, देश की बहुलता को बचाने की जरूरत महसूस करते हैं, उन सबों को इसे एक चुनौती के रूप में लेने की जरूरत है.
गांधी को तो ये क्या मारेंगे. गांधी इतना कमजोर भी नहीं है. और कमजोर है, तो कोई उन्हें बचा भी नहीं सकेगा. यदि इस देश का बहुसंख्यक समुदाय इतना ही उन्मादग्रस्त हो जायेगा, तो इस देश को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनने से कौन रोक लेगा. लेकिन जिनको इस देश से लगाव है, उनको उन्माद और नफरत की ताकतों के खिलाफ एकजुट होना ही होगा. क्या हम-आप इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?