कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा हो गयी. एक बार फिर हमें यह कहने का मौका मिल गया कि हमारी न्याय व्यवस्था में ‘देर से ही सही, पर न्याय होता जरूर है. लेकिन पूरे 34 वर्ष बाद आया फैसला भी कोई न्याय है. अभी तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जायेगी, जहाँ पता नहीं अंतिम फैसला होने में कितना वक्त लगेगा. और अभी तो ऐसे सैकड़ों या शायद हजारों मामले अदालतों में लंबित हैं, कितने तो बंद भी कर दिये गये हैं. बहरहाल, यह फैसला स्वागतयोग्य तो है ही.
कोई संदेह नहीं कि 1984’ कांग्रेस पर लगा (अन्य व खास कर इमर्जेसी का अलावा) ऐसा दाग है, जिसे धोने का ईमानदार तरीका उन दंगों में अपनी (कांग्रसियों की) आपराधिक/निंदनीय भूमिका-लिप्तता को स्वीकार करना ही हो सकता है. ’84 का जिक्र आते ही, ‘गुजरात 2002’ का उल्लेख करने से उसका बचाव नहीं हो जाता. हालांकि 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह संसद में (कांग्रेस की तरफ से) उन दंगों के लिए खेद व्यक्त कर चुके हैं, फिर भी कांग्रेसियों के अंदाज से लगता तो यही है कि उनको अब भी खास पश्चाताप नहीं है. सज्जन कुमार को सजा मिलने के बाद भी कांग्रेस ने पार्टी से नहीं निकाला, उन्होंने खुद इस्तीफ़ा दिया!
यही बात भाजपा के लिए ‘गुजरात 2002’ के सन्दर्भ में कही जा सकती है. आप ‘2002’ की बात बोले नहीं कि वे ’84 का उदहारण देने लगते हैं. यह दावा भी करते हैं कि गुजरात दंगों में न तो राज्य सरकार, पुलिस प्रशासन की भूमिका गलत थी, न ही उनमें संघ/भाजपा के लोग शामिल थे! पर सच तो सच है. भाजपा नेताओं द्वारा दूसरों पर साम्प्रदायिकता और दंगा भडकाने का आरोप लगाना तो हास्यास्पद ही है.
उन दंगों की तुलना गैरजरूरी होते हुए भी तुलना होती रही है, होती रहेगी. इसलिए इस पर थोड़ी चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी. कांग्रेस और भाजपा के लिए तो मानो ये दंगे एक दूसरे की काट में हथियार बन गये हैं.
’84 दंगों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव का यह शर्मनाक और एक तरह से दंगों को सही ठहराने का प्रयास करनेवाला कथन तो खासा चर्चित हुआ कि ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है.’ भाजपा के लोग इस फैसले के बाद भी इस बयान की याद दिला रहे हैं. लेकिन गुजरात दंगों के दौरान उस समय मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को वे आसानी से भूल जाते हैं, जिसमें उन्होंने गति संबधी न्यूटन के तीसरे सिद्धांत- कि हरेक क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती ही है- का हवाला देकर, प्रकारांतर से दंगो को ‘स्वाभाविक’ बताने का प्रयास किया था. दोनों अवसरों पर पुलिस और प्रशासन की भूमिका पक्षपातपूर्ण थी. वैसे भी, जब तक राजनीतिक नेतृत्व सख्त और सजग न हो, सांप्रदायिक तनाव/दंगों के समय हमारी पुलिस ‘हिंदू पुलिस’ बन ही जाती है.
मेरी समझ से दोनों दंगों (और कोई शक नहीं कि ’84 कहीं भयावह था, क्योंकि वह तो एक समुदाय का लगभग एकतरफा संहार था) में अग्रणी भूमिका और उस समय सत्ता में भले ही दो भिन्न दल थे, दोनों ही दंगे मूल रूप से हिंदू धर्मोन्माद के ही उदहारण थे/हैं. निश्चित आंकड़ा और प्रमाण तो अभी नहीं दे सकता, लेकिन लगभग विश्वास है कि दोनों मौकों पर इन दोनों, बल्कि अपवादों को छोड़ कर सभी दलों के कार्यकर्त्ता और समर्थक हत्या-लूट आदि में शामिल रहे होंगे. हालांकि ऐसे दस्तावेज उपलब्ध हैं, जिनसे पता चलता है कि संघ के बुजुर्ग और सम्मानित नेता नानाजी देशमुख ने ’84 के दंगों को हिंदुओं के आक्रोश का स्वाभाविक प्रदर्शन बता कर उसका समर्थन किया था. संघ और भाजपा से सम्बद्ध पचास के करीब लोगों पर दंगों में लिप्तता के लिए प्राथमिकी तो दर्ज हुई ही थी. उनका क्या हुआ, पता नहीं.
सच यह भी है कि जार्ज फर्नांडीस और दिवंगत चंद्रशेखर विपक्ष के चंद अपवाद राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने ‘ब्ल्यू स्टार ऑपरेशन’ (माना जाता है कि जिसकी प्रतिक्रिया में इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी) की निंदा की थी. ’84 के दंगों के तत्काल बाद भी लगभग यही आलम था. हां, श्री वाजपेयी ने अवश्य उन पर चिंता व्यक्त की थी.
’84 में बहुसंख्यक धर्मान्धता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि उसके तुरत बाद हुए संसदीय चुनावों में कांग्रेस को रिकार्ड वोट और लोकसभा में चार सौ से अधिक सीटें मिल गयीं. नवगठित भाजपा न सिर्फ महज दो सीट जीत सकी, बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनाव हार गये.
कोई संदेह नहीं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या के बाद
कांग्रेसियों ने आम हिंदुओं को उकसाया, भड़काया, हमलावर भीड़ का नेतृत्व किया. ऐसे मौकों पर गुंडे-लुटेरे बहती गंगा में हाथ धोने में लग ही जाते हैं. दोनों मौकों पर ऐसा हुआ ही होगा. मगर ’80 के बाद पंजाब में जारी खालिस्तान आन्दोलन (जिसकी दिशा स्पष्टतः अलगाववादी और देश विरोधी थी) और उस दौरान सिख उग्रवादियों या आतंकवादियों द्वारा अपने विरोधियों; और खास कर निरपराध/अराजनीतिक आम हिन्दुओं की चुन चुन कर की जाती रही हत्याओं से देश, खास कर उत्तर भारत और उनमें भी हिन्दुओं में एक किस्म का गुस्सा फ़ैल रहा था. इंदिरा गांधी की हत्या से उस गुस्से का हिंसक विस्फोट हो गया, जिसमें डीजल और पेट्रोल डालने का काम कांग्रेसियों ने किया.
अनेक आम शहरी मध्यम वर्गीय हिंदुओं को मैंने खुद यह कहते हुए सुना था कि ‘इनको (सिखों को) कुछ सबक तो मिलना ही चाहिए था!’ हालाँकि वे सिख विरोधी हिंसा को उचित भी नहीं मानते थे. गलत या सही, आम धारणा थी कि सुदूर बिहार (तब अविभाजित) के सिख खालिस्तान आन्दोलन के लिए पैसे भेजते हैं.
गुजरात में भी दंगों की अगुआयी भले ही संघ, विहिप, बजरंग दल और भाजपा के नेता व कार्यकर्त्ता कर रहे थे. लेकिन दंगाइयों, हत्यारों की वह भीड़ असल में उन्मादी हिन्दुओं की भीड़ ही थी. निश्चय ही वहां ऐसा माहौल एक सतत प्रयास और योजना के तहत बनाया गया; और ‘गोधरा हादसे’ (जिसमें धर्मांध मुस्लिम गुंडों ने एक ट्रेन की दो बोगियों में आग लगा कर 46 हिंदुओं की हत्या कर दी थी) ने उनको एक बहाना दे दिया.
इस तरह, ये दोनों दंगे भारत के बहुसंख्यक समाज की उदार छवि को तार तार करनेवाले उदहारण ही हैं. देश के दामन पर लगे दाग तो हैं ही. आश्चर्य कि कांग्रेस और भाजपा के लोग इन दंगों के सन्दर्भ में एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहते हैं; और हम सभी इस सच की ओर से आँखें मूंदे रहते हैं.