एक सवाल है कि क्या संघ जमात ने जानबूझ कर उस शौर्य कर्म के लिए वह तारीख चुनी थी? या कि तब तक इनके लिए डॉ आंबेडकर का कोई महत्त्व ही नहीं था, जिस कारण इनके लिए छह दिसंबर भी एक आम दिन था. यह तो स्पष्ट ही है कि आज डॉ आंबेडकर के प्रति इनका जो प्रेम और सम्मान उमड़ने लगा है, उसके पीछे दलित वोट का लोभ ही मूल कारण है. वैसे यही बात अन्य दलों के सन्दर्भ में भी सच है.
०६ दिसंबर : आज का दिन भारत के आधुनिक इतिहास में दो कारणों से महत्वपूर्ण है. एक का उल्लेख माननीय प्रधानमंत्री श्री मोदी ने संविधान दिवस (26 दिसंबर) की पूर्व संध्या पर विगत 25 नवम्बर को अपने मासिक ‘मन की बात’ में किया था. भातीय संविधान के निर्माण में बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर सहित अन्य नेताओं की भूमिका का उल्लेख करते हुए याद दिलाया कि छह दिसंबर को डॉ आंबेडकर का महानिर्माण दिवस है. गौरतलब है कि उसी दिन (25 नवम्बर को) उनके संगी-साथी अयोध्या में ‘धर्म सभा’ का आयोजन कर रहे थे. पता नहीं घोषित उद्देश्य क्या था, पर उनका मूल मकसद क्या था, यह कोई रहस्य नहीं है,
आश्चर्य कि प्रधान जी यह बताना या याद करना भी भूल गये कि ठीक डॉ आंबेडकर की पुण्यतिथि के ही दिन छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में एक और बड़ी घटना हुई थी- बाबरी मसजिद (जिसे ये लोग ‘विवादस्पद ढांचा’ कहना पसंद करते हैं) ध्वंस की- जिसे इनके दल और सहमना संगठनों के ही लोगों ने अंजाम दिया था. संविधान की धज्जी उड़ाने और सर्वोच्च न्यायलय के आदेश की अवहेलना करते हुए अपने दल की राज्य सरकार के संरक्षण में किये गये उस ‘कारनामे’ को ये हर वर्ष ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाते हैं; और आज भी विहिप आदि संगठन इसका आयोजन कर रहे हैं. यह और बात है कि कथित कारसेवा के बहाने हुए उस ध्वंस पर उस आयोजन/अभियान के शीर्ष पुरुष एलके आडवाणी पर ‘दुःख’ ही व्यक्त किया था. अदालत के सामने किसी ने उसकी जवाबदेही लेने का साहस तो नहीं ही दिखाया.
बहरहाल, एक सवाल है कि क्या संघ जमात ने जानबूझ कर उस शौर्य कर्म के लिए वह तारीख चुनी थी? या कि तब तक इनके लिए डॉ आंबेडकर का कोई महत्त्व ही नहीं था, जिस कारण इनके लिए छह दिसंबर भी एक आम दिन था. यह तो स्पष्ट ही है कि आज डॉ आंबेडकर के प्रति इनका जो प्रेम और सम्मान उमड़ने लगा है, उसके पीछे दलित वोट का लोभ ही मूल कारण है. वैसे यही बात अन्य दलों के सन्दर्भ में भी सच है.
अब सवाल उठता है कि हम ‘छह दिसंबर’ को किस रूप में याद करें? कोई संदेह नहीं कि देश के बहुजनों, खास कर दलितों-वंचितों के लिए यह दिन बाबा साहेब की पुण्यतिथि एक ख़ास दिन है. लेकिन सच यह भी है कि छह दिसंबर ’92 का वह हादसा एक ऐसे काले दिन के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा, जिसने देश की राजनीतिक दिशा को हमेशा के लिए बदल दिया. साम्प्रदायिकता एक समस्या के रूप में हमेशा से रही है. लेकिन ‘छह दिसंबर’ ने उसे और गहरा कर दिया. फिल्म और अपराध जगत कभी हिंदू-मुस्लिम में इस कदर नहीं बंटा था, जैसा उस हादसे के बाद बंट गया. पकिस्तान और बांग्लादेश में इतने मंदिरों पर कभी हमले नहीं हुए थे, जितने उस घटना के बाद हुए.
हादसे के ठीक बाद दिसंबर ’92 से लेकर जनवरी ’93 तक मुंबई में हुए भीषण दंगे; और उसके बाद मार्च ’93 में सीरियल बम धमाकों का सीधा रिश्ता उस ‘अयोध्या काण्ड’ से जुड़ता है.
एक निर्वाचित्त राज्य सरकार और एक ‘जिम्मेदार’ राजनीतिक पार्टी कैसे तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ में सुप्रीम कोर्ट को दिए आश्वासन से मुकर सकती है, कैसे एक उन्मादी भीड़ को उपद्रव करने की छूट दे सकती है, कैसे उस उन्माद पर राजनीति की फसल काट सकती है, और कैसे अपने किये पर जरा भी पश्चाताप किये, उल्टे इस घटना को अन्य दलों और अदालतों द्वारा ‘बहुसंख्यकों की भावना और आस्था से किये जाते रहे खिलवाड़ का नतीजा बता सकती है, यह सब इतिहास में दर्ज है. इसलिए ‘छह दिसंबर’ को इस रूप में याद करना ‘गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं है, इतिहास से सबक लेना है. इसे याद करना गैरजरूरी हो सकता था, यदि उसमें शामिल लोग/संगठन ईमानदारी से मान लेते कि हाँ, हमसे गलती हो गयी थी. लेकिन हम पाते हैं की आज भी अयोध्या को’ और उसके बहाने देश के बहुसंख्यकों को उन्मादी-हिंसक भीड़ में बदलने का प्रयास जारी है. इस प्रयास का सफल होना निश्चय ही देश की एकता, लोकतंत्र, कानून के शासन के सिद्धांत, धर्मनिरपेक्षता आदि के लिए संकट का कारण बन सकता है. लेकिन शायद हमें इस आसन्न संकट का शिद्दत से एहसास भी नहीं है. यह चिंता का कारण है और होना चाहिए.