महिला को और मां की भूमिका तक सीमित रखने के लिए धर्म का सहारा लेना आम बात है; और सामान्य तौर पर महिलाएं भी इसे शाश्वत मूल्य मान लेती हैं. जायरा ने भी मान लिया तो कोई अचरज की बात नहीं. लेकिन इसके लिए ‘दीन’ की आड़ लेना गैरजरूरी था.
आमिर खान की चर्चित फिल्म ‘दंगल’ से अभिनय जीवन की शुरुआत करनेवाली कश्मीरी युवती जायरा वसीम इन दिनों चर्चा में है. इसलिए कि उसने अचानक अपने पांच साल के फ़िल्मी कैरियर को अलविदा कह दिया है. उसके इस फैसले पर कोई टिप्पणी करना गैरजरूरी है. किसी को भी कोई पेशा अपनाने का और उसे छोड़ने का अधिकार तो है ही. लेकिन अपने इस नितांत निजी फैसले के पक्ष में उसने जो दलील दी है, वह न सिर्फ गैरजरूरी थी, बल्कि कई मायनों में आपत्तिजनक भी है. उसने एक लम्बे बयान में कहा है कि फ़िल्मी दुनिया में मिल रही शोहरत और चकाचौंध उसे अल्लाह और ईमान से दूर कर रही थी.
यह उसकी निजी अनुभूति हो सकती है, मगर इसे सार्वजानिक कर उसने प्रकारांतर से फिल्म और कला के क्षेत्र में काम कर रही मुसलिम ही नहीं, अन्य सभी महिलाओं को कठघरे में खड़ा कर दिया. सुरैया, मीना कुमारी, नरगिस, मधुबाला और आदि बहुतेरी मुस्लिम नायिकाओं को भारत आदर से याद करता है. वहीदा रहमान और शबाना आजमी आज भी अभिनय के क्षेत्र में सक्रिय हैं? क्या जायरा के कहने के आधार पर हम मान लें कि फिल्म, थियेटर और संगीत की दुनिया में काम करती रहीं और कर रही मुसलिम महिलाएं अधार्मिक, पथभ्रष्ट और अनैतिक थीं और हैं? और महिला ही क्यों, यदि अभिनय या फिल्मों में कोई काम करना ‘दीन’ और ‘धर्म’ से दूर होना है, तब तो सभी गैर मुसलिम कलाकारों के बारे में भी यही मानना होगा!
एक सवाल यह भी है कि क्या फिल्म या कला का क्षेत्र सिर्फ मुस्लिम महिलाओं को दीन और ईमान से दूर ले जाता है, पुरुषों को नहीं? यदि हां, तो सवाल है कि अब तक और किसी ने इस कारण इस पेशे से तौबा क्यों नहीं की? क्या यह मान लें कि दिलीप कुमार (यूसुफ़ खान), नरगिस, मीना कुमारी, नौशाद आदि आदि को दीन और ईमान की परवाह नहीं थी?
यह सही है कि इस्लाम की एक व्याख्या संगीत और चित्रकारी को ‘हराम’ मानती है. लेकिन क्या विश्व का मुस्लिम समाज सचमुच संगीत और कला से दूर है? पकिस्तान और बांग्लादेश सहित अन्य मुसलिम देशों में अभिनय, संगीत और कला पर रोक है?
भारतीय फ़िल्म उद्योग के हर क्षेत्र- अभिनय, गीत-संगीत, गायन, निर्देशन आदि- में मुस्लिम कलाकारों का दबदबा रहा है. शास्त्रीय संगीत के भी बड़े गायकों, संगीतकारों और तबला, सारंगी, सितार, शहनाई आदि वाद्ययंत्र बजाने वालों में मुस्लिम नाम भरे पड़े हैं. क्या वे सभी इस्लाम और दीन के रास्ते से भटक गये थे या भटके हुए हैं?
जिसे जो अच्छा लगता है, वह करे. जायरा को भी उसका दीन और नया रास्ता मुबारक. लेकिन इसके लिए किसी प्रोफेशन को गलत और दूसरों को धर्म-च्युत या दीन से भटका हुआ बताने का अधिकार किसी को नहीं है. दायरा ने सीधे ऐसा कहा तो नहीं है, पर जो कुछ कहा है, उसका यह अर्थ तो निकलता ही है कि फ़िल्मी दुनिया बहुत ख़राब और गंदी है; और उसमें काम करते हुए किसी का दीन के रास्ते पर चलना संभव नहीं है. यदि यह आशय न निकाला जाये, तब तो यही मानना होगा कि अपनी कमजोरियों की वजह से जायरा को लगा कि वह बहक सकती है. यानी मूल वजह फ़िल्मी दुनिया नहीं थी. ऐसे में फ़िल्मी कैरियर का त्याग करने को इतना नाटकीय बनाना और उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए लंबा चौड़ा बयान जारी करना जरूरी था?
यह संदेह भी अकारण नहीं कि जायरा ने यह कदम कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकी संगठनों की धमकी के कारण उठाया हो. इसलिए कि पहले भी खेलों के दुनिया में सफल कश्मीर की अनेक मुस्लिम युवतियों द्वारा ऐसी ही धमकियों के बाद खेल छोड़ने की खबरें आती रही हैं.
वैसे इसके पीछे मूल वजह हर धर्म में यह प्रचलित मान्यता ही लगती है कि महिला को घर की चारदीवारी के अंदर ही रहना चाहिए. महिला को और मां की भूमिका तक सीमित रखने के लिए धर्म का सहारा लेना आम बात है; और सामान्य तौर पर महिलाएं भी इसे शाश्वत मूल्य मान लेती हैं. जायरा ने भी मान लिया तो कोई अचरज की बात नहीं. लेकिन इसके लिए ‘दीन’ की आड़ लेना गैरजरूरी था.
अंत में; फ़िल्मी दुनिया के लिबरल माने जानेवाले मुस्लिम कलाकारों की इस प्रसंग में चुप्पी थोड़ी आश्चर्यजनक और दुखद भी है!