वर्ष का अंत आते आते अगले साल होनेवाले आम चुनाव को लेकर कयासों और नये समीकरणों की चर्चा तेज हो गयी है। सत्ता पक्ष हालिया नाकामियों के बाद नये सिरे से रणनीति बनाने में जुट गया है, उधर विपक्ष के जिस ‘महा गठबंधन’ की चर्चा हाल में चलती रही है, उसके आसार धूमिल पड़ने लगे हैं।
बीते दिनों देश के ह्रदय प्रदेश माने जाने वाले तीन राज्यों में लम्बे वनवास (छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15 वर्षों) के बाद सत्ता पर काबिज हुई कांग्रेस में बेशक नयी ऊर्जा का संचार हुआ है। राहुल गांधी को कुछ गंभीरता से लिया जाने लगा है। लेकिन कांग्रेस का कद बढ़ने से उसके संभावित सहयोगी दल भी बहुत खुश नजर नहीं आ रहे। ऐसा लगता है कि प्रकट में भाजपा विरोधी ये दल उसे मजबूत स्थिति में नहीं देखना चाहते। क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के कमजोर बने रहने से ही उनकी अहमियत बनी रहेगी। इसके अलावा शायद कांग्रेस की सर्वग्रासी और निरंकुश सत्ता का अतीत भी उन्हें डराता हो। कारण जो भी हो, ये दल फिलहाल तो ‘अपनी नाक भले कट जाये, तुम्हारा शगुन तो बिगड़ा’ की नीति पर चलते नजर आ रहे हैं। जाहिर है, ये एक दूसरे का शगुन बिगाड़ कर भाजपा की राह ही आसान करेंगे।
यूपी में सपा, बसपा और रालोद ने लोस चुनाव के लिए आपस में सीटों का बंटवारा कर लिया। कांग्रेस के लिए महज दो सीटें छोड़ दीं! क्या भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर कांग्रेस इसे आसानी से स्वीकार कर लेगी? संकेत तो यही है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेले चुनाव मैदान में उतरेगी। इससे उसे संभवत: दो की जगह कुछ अधिक सीटें मिल जायें, लेकिन वह इससे अधिक सीटों पर सपा-बसपा गंठजोड़ को नुकसान और भाजपा को लाभ भी पहुंचा देगी।
उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री श्री राव कांग्रेस और भाजपा से सामान दूरी रखने की कथित नीति पर चलते हुए ‘तीसरे मोर्चे’ की बात कर रहे हैं। बंगाल और ओडीसा के मुख्यमंत्री क्रमशः ममता बनर्जी और नवीन पटनायक इस मुहिम में उनके साथ हैं। श्री राव इसी क्रम में बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा के अखिलेश यादव से भी मिलने वाले हैं। राजीव गांधी के कैबिनेट में रह चुकी ममता बनर्जी की मुश्किल यह है कि वे राहुल गांधी को अपना नेता और प्रधानमन्त्री के रूप में नहीं देख सकतीं। अखिलेश यादव की शिकायत यह है (प्रकट में) कि मध्य प्रदेश में सपा के एकमात्र विधायक को वहां मंत्री नहीं बनाया गया। हाल में कोलेबीरा (झारखण्ड) में भी विपक्ष एक प्रत्याशी नहीं दे सका। वहां कांग्रेस की जीत को झामुमो कितना पचा पायेगा, यह देखना बाकी है। बिहार में भी राजद खुद को ‘बड़ा’ भाई माने जाने की बात कर रहा है, जबकि बिहार के कांग्रेसी नेता अपने राष्ट्रीय कद का हवाला दे रहे हैं। राहुल गांधी के सामने अन्य दलों से बेहतर रिश्ता और तालमेल बनाते हुए उनका विश्वास हासिल करने के साथ अपने क्षत्रपों को भी नियंत्रित करने की है। यह आसान नहीं है।
सारे अनुमान बता रहे हैं कि भाजपा का समर्थन आधार कम हो रहा है। ऐसे में उसके लिए बहुमत का आंकड़ा जुटाना कठिन होगा। लेकिन यदि विपक्ष पहले की तरह विभाजित रहा, तो उसकी मुश्कलें कम जरूर हो जायेंगी।
हालांकि हल में संपन्न पांच राज्यों के चुनावों में मिली पराजय से भाजपा में बेचैनी स्वाभाविक है। एनडीए के घटक दलों के नेता भी सकेतों में कथित मोदी मैजिक और भाजपा की शैली पर सवाल करने लगे है। उपेन्द्र कुशवाहा ने महागंठबधन का दामन थाम लिया है। महाराष्ट्र में अपनी दोयम स्थिति से परेशान और अपनी खोयी जमीन हासिल करने के लिए शिवसेना भी पर तोल रही है। यूपी में अपना दल भी आँखें दिखा रहा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे सभी एनडीए से अलग हो जानेवाले हैं। हां, भाजपा की कमजोर होती स्थिति से मोल तोल करने की उनकी क्षमता जरूर बढ़ गयी है।
जो भी हो, अभी आगामी संसदीय चुनाव को लेकर कुछ हिन् कहा जा सकता। पर इतना कहा जा सकता है कि विपक्ष इसी तरह बिखरा रहा, तो भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से रोकने का विपक्षी दलों का दावा धरा रह जायेगा; और शायद इनमे से अनेक दलों को इससे बहुत फर्क भी नहीं पड़ेगा। भाजपा विरोध की बात करते हुए भी ये प्रकारांतर से उसकी मदद ही करते नजर आ रहे हैं।