भ्रष्टाचार से सम्बद्ध किसी विवादित मामले में यह संभवतः पहला मौका है, जब सुप्रीम की कथित क्लीन चिट के बाद मामला और उलझा हुआ और संदिग्ध नजर आने लगा है; और सरकार कुछ छुपाने का प्रयास करती नजर आने लगी है. विपक्ष के आरोपों को फिलहाल रहने देते हैं.
आज (15 दिसंबर) के एक अखबार में रफाल सौदे से जुड़ी खबर की हेडिंग है : रफाल डील पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला- कैग ने ऑडिट किया, पीएसी ने रिपोर्ट जांची; डील पर संदेह नहीं.
और आज की खबर है कि केंद्र सरकार ने इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट में, कल (14 दिसंबर) के उसके फैसले में ‘तथ्यात्मक सुधार’ के लिए एक याचिका दायर की है!
और पूरा देश जान चुका है कि फैसले में ‘तथ्यात्मक’ चूक क्या थी. कल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आक्रामक हो गये भाजपा अध्यक्ष सहित अन्य नेताओं द्वारा राहुल गांधी से अपने ‘झूठ’ के लिए देश की जनता से क्षमा मागने की मांग करने के बाद राहुल गांधी ने प्रेस कान्फरेंस में उतने ही आक्रामक अंदाज में इसी चूक की ओर इशारा किया था. दावा किया कि पीएसी (लोक लेखा समिति) के सामने कैग की वह रिपोर्ट आयी ही नहीं है. इसकी तसदीक प्रेस के सामने ही कांग्रेस सांसद मल्लिकार्जुन खड्गे ने की, जो पीएसी के अध्यक्ष भी हैं. फिर श्री गांधी ने सवाल किया था कि ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कैग की रिपोर्ट और पीएसी द्वारा उसकी जांच किये जाने का उल्लेख कैसे हो गया?
अब खुद सरकार द्वारा ‘तथ्यात्मक सुधार’ के लिए एक याचिका दायर किये जाने से स्पष्ट है कि इतने गंभीर मामले में देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले में इतनी गंभीर चूक दरअसल सरकार की ‘चूक’ के कारण हुई. तो क्या वह चूक ‘अनजाने’ में हो गयी? क्या सरकार की ओर से अदालत में पेश दस्तावेजों में ‘भूलवश’ यह लिख दिया गया कि रफाल सौदे पर कैग की रिपोर्ट आ चुकी है, जिसे लोक लेखा समिति की लोक लेखा समिति समिति भी देख चुकी है?
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की बुनियाद ही कैग की रिपोर्ट और पीएसी द्वारा उसकी जांच किये जाने पर टिकी है. इसके आलावा कोर्ट ने सामरिक और देश की सुरक्षा का मामला मानते हुए इस सौदे की जांच या अधिक कीमत ऐडा किये जाने के सम्बन्ध में अपनी सीमा मान कर इसकी समीक्षा करने से मन कर दिया. तो फिर इस फैसले को सौदे को ‘क्लीन चिट’ देना कहा जा सकता है?
खबर है कि उधर फ़्रांस में भी इस सौदे में हुई कथित गड़बड़ी पर सवाल उठ रहे हैं. सौदे पर संदेह करनेवाला एक गंभीर सवाल यह भी है की सौदे के बमुश्किल दस दिन पहले बनी अनिल अम्बानी की कंपनी, जिसे विमान निर्माण का कोई अनुभव या संसाधन नहीं है, पर फ़्रांस की कंपनी बिना किसी स्वार्थ या दबाव के कैसे और क्यों मेहरबान हो गयी? फिलहाल इन बातों को रहने भी दें, तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले में हुई वह चूक और उसमें सुधार के लिए सरकार की याचिका ही बताती है कि कुछ तो पर्दादारी है, जिसे छुपाने का प्रयास किया जा रहा है. देश की सुरक्षा का बहाना और गोपनीयता की आड़. यानी परदे में रहने दो! कहीं ऐसा न हो कि रफाल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर असल में सामरिक सौदों में भ्रष्टाचार पर अदालत की मुहर साबित हो जाये!
जो भी हो, रफाल की आग इतनी आसानी से नहीं बुझनेवाली, इतना तो तय है. सत्ता पक्ष के पास सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हथियार है, तो विपक्ष के पास भी उसी फैसले की उस ‘चूक’ का गोला-बारूद है.