नई दिल्ली: कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अध्यक्ष मायावती के साथ गठबंधन कर उत्तर प्रदेश का चुनावी गणित दुरुस्त कर दी है, मगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठबंधन से बाहर रहने से ऐसा लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी के लिए अभी भी संभावना बची हुई है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर मीमांसा अगर मौजूदा हालात में करें तो सपा-बसपा-कांग्रेस के एक साथ मोर्चा खोलने पर भाजपा उत्तर प्रदेश की 80 में से जहां 71 सीटों पर कब्जा जमाई थी, उससे 20 सीट कम पर सिमट सकती है। भाजपा उत्तर प्रदेश में पहले ही फूलपुर और गोरखपुर सीटें उपचुनावों में गंवा चुकी है।
अगर सपा-बसपा से अलग हटकर कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरती है और मुकाबला त्रिकोणीय होता है तो भाजपा को 38 सीटें मिल सकती हैं और उसे 33 सीटों का नुकसान हो सकता है।
भाजपा की जिन सीटों पर मजबूत पकड़ है, उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी समेत कैराना, मुजफ्फरनगर, मथुरा, आगरा, लखनऊ, कानपुर, बरेली और देवरिया हैं, जहां विपक्ष के किसी भी प्रकार के गठबंधन के बावजूद भाजपा दोबारा जीत सकती है।
सपा और बसपा के बीच गठबंधन के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की प्रभारी के रूप में प्रियंका गांधी का राजनीति में आगमन होने से भाजपा की सिरदर्द बढ़ गया है।
कांग्रेस की ट्रंप कार्ड के रूप में प्रस्तुत प्रियंका गांधी खुद को परिवार के चुनावी क्षेत्र अमेठी और रायबरेली तक सीमित नहीं रखेंगी, बल्कि वह पूरे पूर्वाचल के 24 जिलों में चुनावी अभियान का नेतृत्व करेंगी।
कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी शिकस्त देने के मकसद से ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है, जिन्होंने हाल ही में मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत में अहम भूमिका निभाई थी।
उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, लेकिन इसके बावजूद दोनों दलों को बड़ी हार मिली थी।
मौजूदा हालात में प्रियंका गांधी के आगमन से एक बार फिर देश की सबसे बड़ी आबादी वाले प्रदेश में चुनावी गणित बदल सकता है। मालूम हो कि देश में सबसे ज्यादा सांसद इसी प्रदेश से चुनकर लोकसभा पहुंचते हैं। -गौतम दत्त
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