हमारा नेता तो मोदी है, तुम्हारा? भाजपाई इस सवाल को विपक्षी दलों पर यूं दागते हैं, मानो इसका कोई जवाब हो ही नहीं हो सकता; और न ही विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प है. ‘मुरीद’ पत्रकार भी यह सवाल कुछ इसी अंदाज में दोहराते रहते हैं. आज भास्कर में छपे शेखर गुप्ता के लेख का भी शीर्षक हो : बिना दूल्हे के शिवाजी की बारात है विपक्ष
अब जरा भारतीय राजनीति के हालिया इतिहास में इस सवाल को देखते हैं-
देश के (कांग्रेस के भी) पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जीते जी तो तत्कालीन विपक्ष के पास सचमुच कोई वैकल्पिक चेहरा नहीं था. पर याद कीजिये कि इंदिरा गांधी के मुकाबले '67 और '71 तो छोड़ये, 1977 में ही विपक्ष के पास कौन सा चेहरा था. हालांकि उस चेहराविहीन विपक्ष ने ही पहली बार केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को बाहर कर दिया था.
किसी को याद है कि '77 में ही हुए अनेक राज्यों में हुए विस चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष (जनता पार्टी) के चेहरे कौन थे?
कि '89 में राजीव गांधी के सामने विपक्ष का चेहरा कौन था? तब बेशक वीपी सिंह अघोषित रूप से विपक्ष का चेहरा थे, लेकिन उनका नाम इस रूप में घोषित नहीं हुआ था, बल्कि जब जनता दल के संसदीय दल का नेता चुनने का अवसर आया, तब वीपी सिंह की स्पष्ट स्वीकार्यता के बावजूद श्री चंद्रशेखर भी उम्मीदवार हो गये.
कि '90 में बिहार विस चुनाव में जनता दल का मुख्यमंत्री पद का चेहरा कौन था?
2004 और फिर 2009 में भी कांग्रेस का प्रधानमंत्री पद का कोई घोषित प्रत्याशी नहीं था.
हाल की बात करें, तो '17 के यूपी चुनाव में अखिलेश यादव के सामने भाजपा का चेहरा कौन था? क्या योगी आदित्यनाथ? नहीं.
महाराष्ट् में भाजपा- शिवसेना गठबंधन का चेहरा कौन था?
सच यही है कि जिस भी पार्टी के पास ऐसा निर्विवाद और प्रभावी ‘चेहरा’ होता है, वह उसे घोषित कर देती है. अन्यथा मुख्यमंत्री का चयन विधायकों का ‘अधिकार’ मान लिया जाता है. यह और बात है कि इन दिनों प्रमुख दलों के विधायक भी अपना नेता चुनने का अधिकार अपने ‘आलाकमान’ पर छोड़ देते हैं!
जाहिर है, जब अपने पास ऐसा ‘चेहरा’ उपलब्ध हो; और विपक्ष असमंजस में, तब यह सवाल और जोर से पूछा जाता है कि मेरा नेता/चेहरा तो यह है, तुम्हारा? और फिर तंज कसा जाता है कि इनके पास तो कोई सर्वमान्य नेता भी नहीं है!
चुनाव के पहले भावी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा तो प्रकारांतर से विधायकों ओर सांसदों के अपना नेता चुनने के अधिकार का हनन भी है! लेकिन अपने तात्कालिक स्वार्थ में और एक रणनीति के तहत यह बताते हुए कि ‘मेरा नेता तो यह है, तुम्हारा नेता कौन’ का सवाल अब कुछ ज्यादा ही मुखर हो रहा है.
यह सवाल ही सिरे से संसदीय पद्धति, परंपरा/ मूल्य के खिलाफ है. इस पद्धति में मतदाता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव नहीं, अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि- सांसद या विधायक- का चुनाव करता है. बाद में सांसद व विधायक अपने नेता का चुनाव करते हैं. बहुमत प्राप्त दल का नेता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनता है. भले ही 'चेहरा' पहले से तय और घोषित हो, चुनाव के बाद संसदीय दल को बाकायदा चयन की औपचारिकता पूरी करनी पड़ती है. कायदे से चुनाव के पहले प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा संविधानत: भी गलत है. इसलिए कि इससे चुनाव में विजयी होनेवाले सांसदों और विधायकों को अपने नेता के चयन का अवसर खत्म होता है. यानी सांसदों और विधायकों का काम 'आलाकमान' के फैसले पर मुहर लगाना भर रह जाता है.
वैसे भी, आम तौर पर बड़ी पार्टियां, खास कर कांग्रेस और भाजपा, सुविधानुसार ऐसे सवाल उछालती हैं. जब किसी राज्य में कोई सर्वमान्य 'चेहरा' नहीं होता, तो चुनाव बाद नेता चयन परंपरा की दुहाई देती हैं; और जब 'चेहरे' पर दल में कोई विवाद/मतभेद नहीं होता, तो विपक्ष से पूछती हैं कि आपका 'चेहरा' कौन है?