(संदर्भ : फ्रांस का कार्टून विवाद) जैसे अपनी चंद पेंटिग्स के कारण प्रसिद्ध चित्रकार (अब दिवंगत) एमएफ हुसैन की जान के पीछे पड़ जाना कुत्सित धर्मोन्माद का नतीजा और निंदनीय था, उसी तरह फ्रांस में मजहबी जूनून के तहत की गयी हत्याएं गलत और निंदनीय हैं. जैसे कलिबुर्गी और गौरी लंकेश जैसों की उनके विचारों के कारण हुई हत्या निंदनीय थी, वैसे ही फ्रांस की ये घटनाएं निंदनीय हैं.
कतिपय मुसलिम देशों में फ्रांस के खिलाफ जारी आक्रोश प्रदर्शन निहायत अफसोजनक है. यह मुसलिम समुदाय पर जुनूनी/अतिवादी होने के पहले से लगते रहे आरोप को प्रकारांतर से पुष्ट करता है. गनीमत है कि भारतीय मुसलिम समाज के अनेक चर्चित नामचीन बुद्धिजीवियों ने इस उन्माद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है. मगर अफसोस कि वे समग्र मुसलिम समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते; जैसे कि (जन्मना) हिन्दू सेकुलर/वामपंथी समस्त हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते. और अफ़सोस की बात यह भी है कि कथित सेकुलर जमात का एक हिस्सा भी इस जुनूनी हिंसा की निंदा करते हुए भी ‘किन्तु- परन्तु’ लगा रहा है.
यह सही है कि भारत में हम धार्मिक उन्माद की इससे भी जघन्य व नृशंस घटनाएं देखते रहे हैं. सत्ता पक्ष के परिचित चेहरों द्वारा मॉब लिंचिंग के निर्लज्ज समर्थन और हत्यारों के अभिनन्दन के भी हम गवाह रहे हैं. और कमाल यह कि उस जमात के लोग भी फ्रांस में हुई हत्याओं की बढ़ चढ़ कर निंदा और अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत कर रहे हैं! जाहिर है कि ऐसे लोग जब धार्मिक अतिवाद की निंदा और अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत करते हैं, तो पाखंड ही करते हैं. लेकिन इस कारण मुसलिम अतिवाद भी जायज तो नहीं हो जाएगा?
जैसे एक पुस्तक में लिखी चंद कथित आपत्तिजनक बातों के कारण तसलीमा नसरीन और सलमान रुश्दी के खिलाफ मौत का फ़तवा गलत/निंदनीय था और है; उसी तरह फ्रांस में किसी कार्टून से नाराज/आहत होकर किसी का गला रेत देना भी गलत है. जैसे अपनी चंद पेंटिग्स के कारण प्रसिद्ध चित्रकार (अब दिवंगत) एमएफ हुसैन की जान के पीछे पड़ जाना कुत्सित धर्मोन्माद का नतीजा और निंदनीय था, उसी तरह फ्रांस में मजहबी जूनून के तहत की गयी हत्याएं गलत और निंदनीय हैं. जैसे कलिबुर्गी और गौरी लंकेश जैसों की उनके विचारों के कारण हुई हत्या निंदनीय थी, वैसे ही फ्रांस की ये घटनाएं निंदनीय हैं.
संभव है, कुछ लोगों की नजर में तसलीमा या हुसैन ने बड़ा ‘अपराध’ किया हो. निश्चय ही अभिव्यक्ति की आजादी की एक सीमा है. कोई जान बूझ कर दूसरे की आस्था का मजाक उड़ाये, तो इसे उस अधिकार का बेजा इस्तेमाल कहा जा सकता है. मगर कुछ लिखना या कोई चित्र या कार्टून बनाना इतना बड़ा अपराध नहीं हो सकता कि लिखने वाले या चित्र/कार्टून बनानेवाले की हत्या कर दी जाये.
कुछ लोग फ़्रांस की घटनाओं के पीछे किसी बड़ी साजिश की सम्भावना/आशंका देख रहे हैं. साजिश इस बात की कि किसी तरह मुसलिम समाज की छवि असहिष्णु, आतंकवाद के समर्थक/पोषक की बना दी जाये, ताकि बाद में उसके उत्पीड़न और दमन को सही ठहराया जा सके. इसी मंशा से ऐसे कार्टून बनाये और दिखाये जा रहे हैं, ताकि कुछ मुसलिम युवा जूनून में ऐसी हरकत कर गुजरें. पता नहीं इस आशंका का आधार क्या है और इसमें कितना दम है. लेकिन मान लें कि यह सही है, तो बांग्लादेश, पकिस्तान, तुर्की आदि मुसलिम बहुल देशों में फ्रांस के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोग, उनको उकसा रहे, उनका नेतृत्व कर रहे लोग भी उस साजिश में शामिल हैं? उन्हें इसका एहसास है कि ऐसे प्रदर्शनों से वे विश्व समुदाय को क्या संदेश दे रहे हैं? यही तो कि हम किसी अन्य धार्मिक आस्था के लोगों के साथ सहजता से नहीं रह सकते!
यदि एक कार्टून से इस हद तक अक्रोशित होना उचित हो सकता है, तब तो गो-हत्या के खिलाफ और बीफ के मुद्दे पर उत्पात और हिंसा को भी जायज मान लेना होगा.
वैसे भी यदि सचमुच कोई साजिश है, तो इसे समझ चुके मुसलिम समाज को क्या करना चाहिए था? कायदे से यदि मुसलिम समाज एक स्वर से कार्टून की निंदा करते हुए भी हत्या के खिलाफ बोलता हुआ दिखता तो क्या उस साजिश की हवा नहीं निकल जाती? पर हो क्या रहा है? जो हो रहा है, वह सिर्फ कथित अभद्र कार्टूनों के विरोध में नहीं हो रहा है, बल्कि प्रकारांतर से उन जुनूनी हत्याओं के समर्थन में भी हो रहा है. निश्चय ही यह असहिष्णुता और अभद्रता का प्रदर्शन है.
संकीर्णता और अतिवाद जहाँ और किस समुदाय की हो, निंदनीय है. मुसलिम अतिवाद भी एक हकीकत है और इसे स्वीकार करना चाहिए. इसकी निंदा हमें महज इसलिए नहीं करनी चाहिए कि हमें खुद को सेकुलर साबित करना है, बल्कि इसलिए करनी चाहिए कि यही मानवता और लोकतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है. और ऐसे मौकों पर इस आशंका से भी नहीं चुप नहीं रह जाना चाहिए कि इससे मुसलिम विरोधी तत्वों को लाभ मिल सकता है. ‘अल्पसंख्यक मानसिकता’, असुरक्षा की भावना’ आदि तर्कों की आड़ में भी उस अतिवाद को जस्टिफाई करने का प्रयास गलत होगा. इससे न सिर्फ सेकुलर धारा कमजोर होगी, बल्कि उस मुसलिम समुदाय का भी कोई भला नहीं होगा, जिसके वाजिब अधिकारों के हम पैरोकार रहे हैं.
मुसलिम समाज के रहनुमाओं का भी दायित्व है कि वे इस अतिवाद के विस्तार को रोकने का प्रयास करें. उस समाज के लिबरल और सेकुलर मिजाज के लोगों को भी भी ऐसे अवसरों पर मुखर होना चाहिए.
हम प्रथमतः मानव हैं. मानव-मानव की एकता में यकीन करते हैं. और किसी विचार या धर्म के नाम पर इस एकता को तोड़ने की किसी कोशिश का विरोध करना हर विवेकवान मनुष्य का दायित्व है.