झारखण्ड के आदिवासियों का समाजवादी जीवन-दर्शन

:: डॉ. रंजीत कुमार महली ::

सोवियत महल के विघटन के साथ ही समाजवाद का पतन शुरू हो गया और अब दुनिया के अधिकांश देशों से करीब-करीब विदा हो चुका है। संसदीय लोकतंत्र के आवरण में पूंजीवाद समस्त जगत में अपना पैंठ जमा चुका है। तथाकथित रूस और चीन जैसे साम्यवादी देशों से भी समाजवादी मूल्य गायब हो चुके हैं। मौजूदा समय में इन देशों में राज्य प्रायोजित पूंजीवादी व्यवस्था विद्यमान है। साम्यवाद के मुखौटे में ये दोनों देश भी पूंजीवादी ही हैं; मूल्य, विचार, दर्शन, उत्पादन-वितरण की प्रणाली का दूर-दूर तक समाजवाद-साम्यवाद से कोर्इ सरोकार नहीं है।

जानिये क्‍या है 'विशु सेन्दरा' और 'जनी शिकार'.. और भी बहुत कुछ आदिवासी परंपरा और संस्‍कृति पर एक सारगर्भित आलेख

समाजवादी-साम्यवादी दृष्टिकोण से हताशा व निराशा के वातावरण में भी झारखंड की जनजातियां अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं में समाजवादी मूल्य को सहेजे हुई हैं। इनकी संस्कृति और परंपराएं समाजवादी आदर्शों से अवलंबित हैं।

समाजवाद का अर्थ यदि सामूहिकता, त्याग, समानता, सार्वभौमिक स्वतंत्रता, व्यक्तिगत लोभ-लालच और स्वार्थ से दूर आनंदमयी जीवन की तलाश है, तो ये सारी खूबियां आदिवासियों के जीवन में रची-बसी हैं। उनके जीवन का नियामक प्रकृति है, बाजार नहीं। प्रकृति का आदेश इनका नियम-कानून है और संस्कृति-परंपराएं पूर्वजों के अनुभव की खीचीं लकीर। आपसी विश्‍वास व सद्भावना इनकी सामाजिकता का प्रमुख आधार है। इस समुदाय में पूंजी जीवन का साधन है, लाभ कमाने का जरिया नहीं। यही वजह है कि आदिवासी समुदाय में शोषण-उत्पीड़न जैसी चीजें देखने को नहीं मिलती है और न ही अमीरी-गरीबी का कोर्इ भेद। मालिक-दास, शासक-शासित का विचार या ख्याल दूर-दूर तक नहीं है; आपसी संबंध पूरी तरह समानता और मानवीय गरिमा के मूल्यों पर आधारित है। यह समुदाय स्त्री-पुरुष में कोर्इ भेद नहीं करता है। खुलापन इसका स्वभाव है। अर्जन की भावना से रहित यह समुदाय प्रकृति से ताल-मेल के लिए जाना जाता है। उनकी अधिकांश जरूरतें प्रकृति से पूरी होती हैं। खान-पान से लेकर दवा-दारू तक ये प्रकृति पर ही आश्रित हैं। अर्जनाभाव की कमी कोर्इ वर्ग पनपने नहीं देती; अत: यह एक वर्गहीन समाज है जिसकी कल्पना मार्क्स ने की थी। दूसरे शब्दों में, यही तो साम्यवाद है जिसमें न तो राज्य है और न ही कोर्इ वर्ग।

झारखंड के आदिवासी समुदायों के जीवन-विधान एवं संस्कृति में समाजवादी मूल्यों का गहरा बोध है। यह इनके धर्म, विभिन्न कर्मकांडों व सामाजिक-सांस्कृतिक क्रियाकलापों में दृश्यमान है। सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतिनिधि के रूप में पाहन/बैगा/माझी (अलग-अलग जनजातियों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है) अपने जिम्मेवारियों का निर्वहन पूरे गाँव के हितों को ध्यान में रखते हुए करते हैं, व्यक्तिगत या पारिवारिक नहीं। आदिवासी समाज में र्इश्‍वर से व्यक्तिगत मिन्नतें नहीं मांगी जाती जैसा कि दूसरे अन्य समाजों में होता है। व्यक्तिगत इबादत के बजाय ये अपने अराध्यदेव का आह्वान सम्पूर्ण ग्राम की कुशलता और सुरक्षा के लिए करते हैं। निजी सफलता, दौलत और वैभव की कामना इनकी प्रार्थनाओं में शामिल नहीं होती। वे र्इष्ट देव से अच्छी फसल, अच्छी बारिश, अच्छी सेहत, लोककल्याण और पूरे गाँव की खुशहाली की गुहार लगाते हैं। सरहुल, करमा, सोहरार्इ जैसे धार्मिक उत्सवों का संबंध सामूहिक-सामुदायिक भलार्इ और हित से है। 

अब जब कि पूरी दुनिया में निजी स्वार्थ कुलांचे मार रहा है; संपत्ति के लिए लोग एक-दूसरे को मारने-काटने को आतुर हैं; रिश्ते-नाते खत्म किए जा रहे हैं; भौतिकता को आदर्श मानते हुए एकाकी जीवन को नियति माना जा रहा है; सुख-सुविधा के नाम पर महंगे जीवन को अपनाया जा रहा है, ऐसे में आदिवासी समाज की परंपराएं जीवन में आशाएं और उम्मीदों की अलख जगाती प्रतीत होती हैं। ऐसी ही एक परंपरा है- विशु सेन्दरा। यह प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार होने वाली परंपरा है। यह मुख्यत: आखेट से जुड़ा हुआ है और इसमें पुरुष ही शामिल होते हैं, महिलाएं नहीं। इस दौरान गाँव के प्रत्येक घर से एक पुरुष सदस्य (अनिवार्यत:) सप्ताह भर के लिए सामूहिक रूप से जंगलों की ओर प्रस्थान करते हैं। जंगलों में रहने-खाने-सोने के लिए खाद्यान सहित बोरिया-विस्तर भी ले जाना पड़ता है। प्राय: लोग झुंड में समूह बनाकर रात गुजारते हैं और दिन होते ही शिकार के लिए निकल जाते हैं। दिन भर जो शिकार मिलता है उसका सामूहिक उपभोग किया जाता है। शिकार में, असफल समूह की भी हिस्सेदारी होती है। उपभोग से बचे शिकार को सुरक्षित रख दिया जाता है। यह गाँव लौटने पर काम आता है। इस अवधि में महिलाएं घर की रखवाली करतीं हैं और पुरुष सदस्य के सुरक्षित एवं सफल घर लौट आने की प्रार्थना अपने अराध्य देवता से करती हैं। इस दौरान महिलाओं को पवित्रता और शुद्धता का पूरा ख्याल रखना पड़ता है; इसमें कोताही या असावधानी अपशगुन माना जाता है जो शिकार में गए पुरुष के लिए घातक हो सकता है। आखेट में गए पुरुष के घर लौटने तक महिलाएं घर नहीं बुहारतीं, मवेशियों का गोबर बाहर नहीं निकालतीं, उसके नहाने-धोने की भी मनाही होती है, यहां तक कि तेल का इस्तेमाल भी वर्जित होता है। शिकार में गए लोगों की वापसी के दिन गाँव की सारी महिलाएं स्नान-ध्यान कर गाँव के सीमान में उनके स्वागत के लिए एकत्रित होतीं है। आगंतुकों का ढोल-नगाड़े से, फूल-अछत से स्वागत होता है; पैर धोया जाता है। तत्पश्‍चात्, उन्हें अखरा में ले जाया जाता है। वहां वे अराध्य देव सहित अपने पूर्वजों को याद करते हैं और सकुशल वापसी के लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं। जंगल से लाए शिकार को प्रत्येक घर प्रसाद के रूप में पहुंचाया जाता है। उस पर किसी व्यक्ति या समूह की निजी मिल्कियत नहीं होती।

शिकार की ही एक दूसरी परंपरा है जिसे ‘जनी शिकार’ के नाम से जाना जाता है। इस परंपरा का निर्वहन प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार किया जाता है। विशु सेन्दरा के विपरीत इसमें महिलाएं शिकारी की भूमिका में होतीं है। इस दिन महिलाएं पुरुषों का वेश धारण कर हाथ में भाला, बरछा, तीर, तलवार लेकर मर्दाना पोशाक में ढोल-बाजे के साथ घर से शिकार के लिए निकलतीं हैं। इसमें 14-15 वर्ष की तरुण युवतियों से लेकर 60-65 वर्ष तक की वृद्ध महिलाएं होती हैं। इसमें भी वही सब होता है जो विशु सेन्दरा में होता है। अपने तरह का अनोखा यह रिवाज आदिवासी महिलाओं की सबलता बयां करता है। लैंगिक समानता और महिला अधिकार मुख्यधारा के लिए नया और आधुनिक विचार है, लेकिन आदिवासी समाज में यह जन्मजात रहा है। इसके लिए आदिवासी महिलाओं को पुरुष समाज के विरुद्ध कोर्इ संर्घष या आंदोलन करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। लैंगिक असमानता और भेद-भाव (कालांतर में देखा-देखी ये दुर्गुण आदिवासी समाज में प्रवेश कर गया है।) जैसी कोर्इ बात इस समाज में नहीं है। विशु सेंदरा और जनी शिकार जैसी परंपराएं सामाजिक संसाधनों पर जनजातियों की सामूहिक हिस्सेदारी और सामूहिक उपभोग को दर्शाती है। इनका जीवन भौतिकता के पाश से मुक्त सादगी और सरलता की सीख देता है। यह मानव मूल्यों और गरिमा का प्रेरणास्रोत है जिसकी अपेक्षा समाजवादी समाज से की जाती रही है।

सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के अलावे आदिवासियों का आर्थिक जीवन भी आकर्षक और दिलचस्प रहा है। इनके विकास की परिभाषा और पैमाना ही अलग है। इनके लिए जीवन की मूलभूत जरूरतों का पूरा हो जाना ही विकास है। यह लालची और महत्वकांक्षी समाज नहीं है। ये प्रदर्शनात्मक उपभोक्तावादी संस्कृति के वाहक नहीं हैं। ये प्रकृति को लूटने में नहीं, उसके संरक्षण में विश्‍वास करते हैं। कृषि और वनोपज इनका मुख्य व्यवसाय है।  मवेशीपालन भी इनके आर्थिक जीवन का हिस्सा है। बैल का प्रयोग कृषि कार्य में किया जाता है। बकरा-सुअरमांस इनका मुख्य मांसाहार है। कुछ मात्रा में जंगली जानवर सहित जंगली पक्षी का प्रयोग मांस के रूप में किया जाता है। गौरतलब बात यह है कि इस समाज में व्यक्तिगत या पारिवारिक मांसभक्षण की परंपरा नहीं है। बड़ पहारी (चूल्हा पूजा) जैसी विभिन्न प्रथाओं के निर्वहन के दौरान  ही सामूहिक भोज के रूप में मांस सेवन किया जाता है। इस समाज का बलि प्रथा में गहरा विश्‍वास है। बिना बलि के कोर्इ भी अनुष्ठान संपन्न नहीं होता। अलग-अलग जानवरों की बलि का अलग-अलग प्रभाव रहता है, ऐसी आदिवासियों की मान्यता है। उदाहरण के तौर पर, मुर्गे का असर साल भर तक रहता है; सुअर का करीब-करीब तीन वर्षों तक और बूढ़ी बकरी का सबसे ज्यादा 12 से 15 वर्षों तक रहता है। यानी, बूढ़ी बकरी की बलि देकर कोर्इ परिवार 15 सालों तक इत्मिनान रह सकता है। इस बीच उन्हें अपने पूर्वज या र्इष्टदेव को कोर्इ बलि देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

प्रकृति ही आदिवासियों का जीवन है। यह कोर्इ अतिश्योक्ति नहीं है। प्रकृति पूरे साल और हर मौसम में इनपर मेहरबान रहती है। बरसात गिरते ही बांस करील, पूटो, खूखड़ी (मशरूम), मछरी साग, घोंघी, सितुआ, मछली, खखड़ा (केंकड़ा) इन्हें मुफ्त में मिल जाता है। जाड़े में दतुन-पतर्इ बेचने का काम करते हैं। पत्ते का इस्तेमाल दोना और पतरी (पत्तल)बनाने में होता है। भर गर्मी ये खजूर के पत्ते का पटिया (चटार्इ), कर्इ तरह की रस्स्यिां बनाने का काम करते हैं। दोना-पतरी और चटार्इ बिनने का काम महिलाएं करती हैं। पुरुष रस्सी हल-जुआट, सार्इंढ़ और पट्टा बनाते हैं। ये सारी चींजें इन्हे प्रकृति से उपहार स्वरूप प्राप्त होतीं हैं। इसके लिए इन्हें कोर्इ पूंजी लगानी नहीं पड़ती, बस थोड़ा श्रम करना पड़ता है। श्रम ही इनकी पूंजी है। इन चीजों का इस्तेमाल वे अपने दैनिक जीवन में करते हैं और जो बच जाता है उसे साप्ताहिक हाट में बेच कर कुछ कमार्इ कर ली जाती है। यह एक आत्मनिर्भर समाज है। अपनी अधिकांश जरूरतों को यह खुद ही पूरा करता है, बहुत कम चीजों के लिए ही इसे दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। इनकी आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं। कम से कम संसाधनों में जीने की इनकी आदत है।

‘वस्तु के बदले वस्तु’ का सिद्धांत इनकी विनिमय प्रणाली का आधार है। ये पैसे से लेन-देन नहीं करते। लोहार के लुहारी कार्य (फाल पिजाना, हसिया बनाना, दांती कातना, कोड़ी-कुदाल बनाना आदि) के लिए अनाज का ही एक हिस्सा उन्हें दिया जाता है। ये साल भर के लिए होता है। यानी, लोहार सालों भर काम करेगा तब अगहन मास (दिसम्बर-जनवरी) में अन्न (धान, मकका, दाल, गेहुँ) के रूप में उसे उसका मेहनाताना मिलेगा। ढोलपीटा (शादी-वियाह, मरनी-हेरनी और विभिन्न अवसरों पर ढोल बजाने वाले), तेल पेरने वाले का भी हिस्सा अलग कर दिया जाता है। दूसरी अन्य जरूरतें भी इसी सिद्धांत से पूरी होती हैं।

दूसरे अन्य काम, जैसे, घर बनाने-छाने में ‘काम के बदले काम’ की प्रणाली अपनार्इ जाती है। काम के एवज में कोर्इ कीमत नहीं चुकार्इ जाती। काम के अलावे, यह समाज मनोरंजन को भी महत्व देता है। ‘मदैती’ जैसी प्रथाएं इस समाज में आम हैं। प्राय: यह काम के आखिरी दिन आयोजित की जाती है। इस दिन काम में सहयोग करने वालों के साथ खान-पान के अलावे ढोल-नगाड़ों और गीत-गोविन्द से मनोरंजन किया जाता है। इसमें काम करने वाले पुरुष सदस्य के अतिरिक्त उनकी महिलाएं और बच्चे भी शामिल होते हैं। खान-पियान से पहले सामूहिक गीत-नृत्य होता है। खेती-किसानी में भी यही पद्धति अपनार्इ जाती है। इस दौरान मनाए जाने वाले उत्सव को ‘पचैटी’ कहा जाता है। इसमें भी महिलाएं-पुरुष संग बच्चे शामिल होते हैं।

समाजवाद के तमाम मूल्यों को अपने में समेटे आदिवासी समाज में सरकार और राज्य जैसे महंगे और बोझिल संगठनों की शायद ही कोर्इ आवश्यकता हो। प्रकृति की छांव व गोद ही उनका भरोसा है और विश्‍वास भी। यह उनके लिए रूसो का रोमांटिक जीवन की तरह है और मार्क्स का साम्यवाद भी, जहां प्रकृति के साथ आलिंगन है। समस्त चरा-चर उनके लिए किसी दिव्य शक्ति की नेयामतें और वरदान है। उनका जीवन पानी की उस लहर की तरह है जो उनके मार्ग में आने वाले चट्टानों से एक साथ टकराती है और एक साथ आगे बढ़ती है। समुदाय के लिए जीने और समुदाय के लिए ही मरने के जज्बे का नाम आदिवासी है। झारखंड का आदिवासी समाज सामुदायिक जीवन का ऐसा नमूना है जो बाजार के प्रभाव से कोसों दूर है। हालांकि, बाजार उन्‍हें प्रभावित करने का कोर्इ कसर नहीं छोड़ रहा है। वह उनके जीवन-मूल्य में घुसने के लिए हर तरह की कूटनीति-रणनीति का सहारा ले रहा है। इसमें उन्हें सरकार का सहयोग मिल रहा है। विकास के नाम पर नव-उदारवादी, पूंजीवादी नीतियां थोपी जा रही है। उन्हें सरकारी मदद के नाम पर पराश्रित किया जा रहा है। असल में सरकार और पूंजीपती की नजर आदिवासी इलाकों में वर्षों से सुरक्षित पड़े प्राकृतिक संसाधनों तथा खान-खदानों पर है। विकास तो सिर्फ एक बहाना है! सरकार और पूंजीपतियों की यह नीति आदिवासी जीवन से मेल नहीं खा रही है। विकास के नाम पर उन्हें उनके जल-जंगल-जमीन से तो बेदखल किया ही जा रहा है, साथ में उनके धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी नष्ट करने का खेल खेला जा रहा है। इन्हीं मुद्दों को लेकर सरकार के प्रति आदिवासियों के मन में संदेह व अविश्‍वास का भाव है जो कभी-कभी पत्थलगड़ी के बुलबुले के रूप में तो कभी सरकारी योजनाओं के विरोध के रूप में बाहर आ जाया करता है! सरकारों के लिए और मुख्य धारा के समाज के लिए इन्हें नक्सली या पिछड़ा, जंगली कहना तो आसान है; परंतु उनके जीवन-दर्शन को समझना उतना ही कठीन है। आज जब पूरी दुनिया पूंजीवाद के आगे नतमस्तक है; क्रूर, अत्याचारी-अन्यायकारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व निगमों के लूट, शोषण-उत्पीड़न के सामने घुटने टेक कर लाचार-विवश खड़ा है, झारखंड की जनजातियों का परंपरागत समाजवाद पूंजीवाद के विकल्प का रास्ता दिखा सकता है।

Dr Ranjeet Mahli

लेखक : डॉ. रंजीत कुमार महली,
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्‍वविद्यालय,
राँची के राजनीतिशास्त्र विभाग में अध्यापनरत हैं।
 
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