क्या यह सम्भव है कि हम अपने देश को प्यार करें और उनसे घृणा न करें जो हमारे देश पर शासन करते हैं या जिनका शासन हम नहीं चाहते? या कहें, जिनके शासन को हम हृदय से नापसंद करते हैं?
आज भारत में नई पीढ़ी को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है, जो गुलाम भारत के लिए सवाल था।
गुलामी के वक्त बहुत-से नौजवानों के हृदय में इसका उत्तर यह था कि अपने देश को प्यार करना और उस पर शासन करने वालों से घृणा न करना असम्भव है। कुछ ने खुलेआम अपने इस विचार को व्यक्त किया और किसी-किसी ने उसे कार्यरूप देकर भी दिखाया। लेकिन बहुत से लोग सिर्फ मन-ही-मन ऐसा विचार रखते थे और उनकी मनोरचना भीतर-ही-भीतर उससे प्रभावित होती रहती थी।
सौ साल पहले आजादी की लड़ाई के दौरान राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस पर बहुत मनन किया। गांधी ने सार्वजनिक जीवन में और सार्वजनिक सेवा में प्रवेश करने वाले लोगों के समक्ष इसे निम्नांकित ‘नैरेटिव’ के रूप में पेश किया। आज देश भर के ‘निष्पक्ष और न्यायप्रिय’ बौद्धिकों में ‘राष्ट्रीयता’ और देशभक्ति पर किसिम-किसिम के नैरेटिव्स पर विमर्श या वाद-विवाद चल रहा है। उससे जाहिर होता है कि गांधी के उस नैरेटिव की कोई ‘उपयोगिता’ नहीं रही, इसलिए वह ‘प्रासंगिक’ या ‘उल्लेखनीय’ भी नहीं है। जो गांधी को ‘पूजते’ हैं उनके लिए भी और जो गांधी को ‘पीटते’ हैं उनके लिए भी। राष्ट्रीयता और देशभक्ति पर जिन लोगों का नैरेटिव गांधी की हत्या के ‘दर्शन’ से शुरू होता है और भूत गांधी को गोली मारने के ‘प्रदर्शन’ से सम्पन्न होता है, उनके लिए यह स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन उनके लिए जो सामाजिक-सांस्कृतिक राजनीति की अलग-अलग धाराओं में बहते-तैरते अस्त-व्यस्त हैं? उनमें से कुछ लोगों के लिए गांधी बरसों पहले बेमानी हो गये, और कुछ ने गांधी को बहुत पहले रिजेक्ट कर दिया, लेकिन वे भी आज, न चाहते हुए भी, देश-विदेश में, बात-बात पर और बेबात पर भी, अक्सर गांधी को याद करते हैं और जब-तब गांधी की मूरत या समाधि पर श्रद्धा-सुमन चढ़ाते हैं! कभी अपने ‘सिद्धांत’ के अनुरूप अपनी ‘स्ट्रैटजी’ को सफल साबित करने के लिए वे ‘विरोधी’ गांधी को ‘पूजने’ की औपचारिकता निभाते हैं और कभी अपनी किसी ‘स्ट्रैटजी’ की सफलता को अपने ‘सिद्धांत’ की जीत साबित करने के लिए। बहरहाल, यहाँ गांधी नैरेटिव इस उम्मीद से प्रस्तुत किया जा रहा है कि इसे गांधी नाम से रिजेक्ट करने के पूर्व एक बार पढ़ लेने का बौद्धिक कष्ट किया जाएगा।
गांधी नैरेटिव : “किसी का देश-प्रेम अर्थात् राष्ट्रीयता उन लोगों के प्रति प्रेमभाव रखने से सर्वथा असंगत है, जिनके शासन, जिनकी अधीनता, जिनके तरीकों को हम पसंद नहीं करते। सही शब्दों में कहें, तो सरकार से निबटने में, इस सवाल से सीधा साबिका पड़ता है। देश के लोगों में से अधिकांश को सरकार की निर्योग्यताएं घोर निर्योग्यताएं मालूम होती हैं, जिन्हें देश के आम जन झेलते हैं। वे अन्याय का बोलबाला देखते हैं। दुनिया में अपनी प्रभुता का परचम लहराने को बेताब सरकार ने रंग, नस्ल, धर्म आदि के आधार पर ‘असमानता’ की नीति को मान्य किया हुआ है। सरकार की निर्योग्यताएं इतनी काफी हैं कि अकसर लोगों को इन दो भावनाओं अर्थात् देश-प्रेम और जिन्हें आप खूंखार शेर समझ सकते हैं, उनके प्रति प्रेम के बीच मेल बैठा पाना कठिन लगता है।
सार्वजनिक सेवा में उतरे व्यक्ति का विवेक स्थिर न रहे तो वह अपने साथी मनुष्यों से घृणा करने लगे। वे जो सोचते हैं, वह न्यायोचित और सही है अथवा गलत है, यह अलग बात है, लेकिन उनके मन पर यही छाप पड़ती है कि वे भयंकर किस्म का अत्याचार सहन कर रहे हैं, घोर अन्याय के शिकार हो रहे हैं। तो फिर खूंखार शेरों को प्यार कैसे कर सकते हैं?
लेकिन सवाल यह नहीं है कि आप शेर से प्यार करें ही, बल्कि यह है कि क्या खूंखार शेर से घृणा करना जरूरी है? इससे दीगर सवाल यह है कि क्या देश-प्रेम के लिए दूसरों से घृणा करना जरूरी है? आप दूसरों से प्यार भले ही न करें, किंतु क्या जरूरी है कि आप उनसे घृणा करें ही?
बहुत-से लोगों के मन में इसका जवाब यही है कि हां, आपको घृणा करनी ही चाहिए। कुछ लोग तो खूंखार शेर से घृणा करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वे अपनी मान्यता के प्रमाणस्वरूप कई उदाहरण पेश करते हैं; वे यूरोप के विनाशकारी महायुद्ध का उदाहरण देते हैं; वे उन युद्धों की मिसाल देते हैं जिनके बारे में उन्होंने इतिहास में पढ़ा है ; वे कानून का भी उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि जो लोग हत्या करने के अपराधी होते हैं, उन्हें समाज फांसी के तख्ते पर चढ़ा देता है।
इन उदाहरणों को देख कर नौजवान लोग तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि जो लोग राष्ट्रीयता के लिए दूसरों से घृणा करना जरूरी नहीं मानते, वे गलती पर हैं। लेकिन अगर किसी का पिता या ऐसा ही कोई अन्य अतिप्रिय व्यक्ति फांसी पर चढ़ा दिये जाने लायक काम करे, तो क्या वह उससे प्यार करना छोड़ देगा? वह यह कामना अवश्य करेगा कि उसमें सुधार हो, लेकिन उसको दंड मिलने की कामना नहीं करेगा।
फिर भी इस कथन में काफी औचित्य है कि लोगों को सही मार्ग पर चलाने के लिए जो व्यवस्था है, उसमें से अगर दंड का विधान हटा लिया जाये, उसे स्थगित अथवा समाप्त कर दिया जाये तो समाज छिन्न-भिन्न हो जायेगा। लेकिन, दूसरी तरफ यह परिदृश्य भी स्पष्ट नजर आता है कि संसार घृणा से ऊब गया है। हम देख रहे हैं कि अब पश्चिमी राष्ट्रों पर एक थकान हावी होती जा रही है। हम देख रहे हैं कि घृणा का राग अलापने से मानवता की कोई भलाई नहीं हुई है।
तब? क्या यह उचित नहीं होगा कि देश के करोड़ों लोग इस सवाल पर विचार करें कि क्या उनके लिए अन्यायी और शोषक शासकों से घृणा करना जरूरी है? इसका मतलब यह नहीं कि भारत में शासक जो अत्याचार करते दिख रहे हैं, उनकी ओर से आप आंखें बंद कर लें। क्या यह सम्भव नहीं की आप-हम बुराई से घृणा करें, लेकिन बुराई करने वाले से नहीं?
हम खुद भी, हममें से एक-एक व्यक्ति बुराई से भरा हुआ है। लेकिन, हम अपने लिए क्या चाहते हैं? यही न कि संसार हमारे साथ धैर्य से काम ले, हमें क्षमा करता रहे, हमारे साथ नम्रता बरते। तो क्या यह सोचना सर्वथा गलत होगा कि हम बुराई करनेवाले शासकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करें? उनकी बुराई से घृणा करते हुए भी उनके प्रति घृणा न बरतें?
भारत में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं, जो शासकों के कुकृत्यों और जिस प्रणाली से हम शासित होते हैं, उस प्रणाली की बुराई के बारे में न जानता हो। सार्वजनिक सेवा में सक्रिय लोग उसके विरोध में बोलते हैं। उनमें से कुछ अधिक तीव्रता और निर्भीकता से बोलते हैं। किंतु वे क्या इस कारण से कि उनमें से ही जो लोग घृणा से मुक्त हैं उनको अपना दुश्मन मानें? सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों और समूहों में उलट सवाल यह भी है कि जो लोग बुराई करनेवालों की बुराई का विरोध करते हुए भी उन बुरे लोगों के प्रति ‘प्रेम’ रखते हैं, वे उनके प्रति कैसा बर्ताव रखें जो उनको ‘दुश्मन’ मानते हैं? माना कि खुद को घृणा से मुक्त मानने वाले उन लोगों को भी अपना दुश्मन नहीं मानते, जो उन्हें दुश्मन मानते हैं, लेकिन क्या वे उनकी गलतियों की ओर से अपनी आंखें बंद कर लें?
जो अपने विरोधी या किसी असहयोगी से भी प्रेम बरतते हैं, उनकी मानें, तो प्रेम के पात्र में सचमुच विद्यमान अथवा कल्पित किसी गुण के ही कारण जो प्रेम दिया जाता है वह प्रेम, प्रेम नहीं है। वे कहते हैं – “अगर मैं अपने प्रति ईमानदार हूं, अगर मैं मानव-समाज के प्रति ईमानदार हूं, तो मुझे उन तमाम दोषों को समझना चाहिए जो किसी मानव देहधारी में होते ही हैं। मुझे अपने विरोधियों की कमजोरियां समझनी चाहिए, उनकी बुराइयां समझनी चाहिए, और फिर भी इन दोषों के बावजूद उनसे घृणा नहीं करनी चाहिए, वरन् बने तो उनसे प्रेम भी करना चाहिए। यह अपने-आपमें एक बड़ी शक्ति है। पशुबल तो हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलता आया है। हमने इसका प्रयोग करके देख लिया कि इससे संसार का कितना नुकसान हुआ।
‘आधुनिक सभ्यता’ की चमक-दमक हमें चमत्कृत नहीं करती। ऊपरी चमकदार परत हटाकर देखें तो आप पायेंगे कि अंदर ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पसंद किया जा सके। लेकिन, एक क्षण को भी आप ऐसा न मानें कि मैं आधुनिक सभ्यता की सभी चीजों का निंदक हूं। हालांकि आधुनिक सभ्यता की प्रमुख विशेषता विश्व में बलवान जातियों द्वारा कमजोर जातियों का शोषण है। उसकी प्रमुख विशेषता ‘भौतिक समृद्धि’ को भगवान मानना है। जिस शासन प्रणाली के अंतर्गत हम कष्ट झेल रहे हैं, उसे मैं ‘शैतानी’ शासन कहने में संकोच नहीं करता। लेकिन तो क्या मैं बुराई करने वालों को सजा देने का उपाय ढूंढऩे लगूं? मुझे तो लगता है कि मेरा काम उनसे प्यार करना और धैर्य तथा नम्रता के साथ उन्हें समझाकर सही रास्ते पर ले आना ही हो सकता है। क्योंकि उनके खिलाफ मेरा प्रतिरोध या विरोध का कार्य ‘घृणा का गीत’ नहीं है।
वैसे, कभी-कभी बुराई करने वाले में भेद करना कठिन हो जाता है। लेकिन सवाल यह है कि बुराई करने वाले से नहीं, बुराई का प्रतिकार करें कैसे? इस पर इतना ही कहा जा सकता है कि बुराई से घृणा करके भी बुराई करने वाले से घृणा न करने के बीच जो सुंदर संगति है, उसे समझ जायें, तो आसानी से सही हल मिल जायेगा। हमें आज जरूरत सिर्फ इतना करने की है कि पारिवारिक संबंधों में हम जो नियम लागू करते हैं उसे राजनीतिक क्षेत्र में भी लागू करें और इसलिए उसे शासकों और शासितों के बीच के संबंधों पर भी लागू करें। जिस पुत्र में बुरे काम करने और बिगड़ने की प्रवृत्ति होती है, उसके साथ पिता कैसा व्यवहार करता है? वह न उसे सजा देता है, न बढ़ावा, बल्कि उसे सुधारने की कोशिश करता है।
एक बहुत बड़े लेखक ने कहा है कि अगर दुनिया बुराई को बढ़ावा देना बंद कर दे तो बुराई अपने लिये आवश्यक पोषण के अभाव में अपने-आप मर जाये। अगर हम यह देखने की कोशिश करें कि आज समाज में जो बुराई है, उसके लिए खुद हम कितने जिम्मेदार हैं, तो हम देखेंगे कि समाज से बुराई कितनी जल्दी दूर हो जाती है। लेकिन हम प्रेम की एक झूठी भावना में पड़कर इसे सहन करते हैं। मैं उस प्रेम की बात नहीं करता जिसे पिता अपने गलत रास्ते पर चल रहे पुत्र पर मोहांध होकर बरसाता चला जाता है, उसकी पीठ थपथपाता है ; और न मैं उस पुत्र की बात कर रहा हूं जो झूठी पितृ-भक्ति के कारण अपने पिता के दोषों को सहन करता है। मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जो विवेकयुक्त है और जो बुद्धियुक्त है और जो एक भी गलती की ओर से आंख नहीं बंद करता। यह सुधारने वाला प्रेम है और ज्यों ही हम इस रहस्य को समझ जायेंगे, त्यों ही बुराई दूर होगी।
विभिन्न जातियों के संबंधों की चर्चा में आप उन अनेक बुराइयों का विचार कीजिए, जो आज हिंदू, मुसलमानों, पारसियों, ईसाइयों, सब धर्मों के लोगों में समाई हुई हैं। हम उन बुराइयों से कैसे निबटें, जिन्हें लोग ‘धर्म’ का अंग मानते हैं और उनके पक्ष-समर्थन में अपने-अपने शास्त्रों के प्रमाण देते हैं? उनसे हम घृणा करें या कि निरंतर योग्य आचरण करके हम इन बुराइयों को दूर करें?
तब तो सार्वजनिक सेवा के लिए संघर्ष या रचना के किसी भी क्षेत्र में सक्रिय लोगों के लिए कष्टसहन, बुराई करने वालों को कष्ट देना नहीं, बल्कि सभी कष्टों का भार स्वयं अपने सिर लेने के सिवा कोई विकल्प नहीं। इस विकल्प में ही ‘राष्ट्रीयता’ से जुडी तमाम गुत्थियों के समाधान का रहस्य है। यानी ’घृणा’ राष्ट्रीयता के लिए जरूरी नहीं है। जातीय घृणा सच्ची राष्ट्रीय भावना को मार देगी।
हमें तो पुनः-पुनः इसकी समझ विकसित करनी चाहिए कि राष्ट्रीयता क्या चीज है? हम अपने देश को यानी पूरे देश को शोषण-अन्याय से मुक्त करना चाहते हैं। हम दूसरे देशों के लिए कष्ट नहीं चाहते ; हम दूसरे देशों का शोषण नहीं चाहते; हम दूसरे देशों का अपकर्ष नहीं चाहते। आज ‘देशभक्ति’ का यह तकाजा है कि व्यक्ति को परिवार के लिए मरना चाहिए, परिवार को गांव के लिए, गांव को जिले के लिए, जिले को प्रांत के लिए, प्रांत को देश के लिए। उसी प्रकार अपने देश की शक्ति और साधनों का उपयोग ‘मानवता’ के लाभ के लिए हो। यानी राष्ट्र-प्रेम यह है कि हमारा देश ‘मुक्त’ हो और वह भी इसलिए कि जरूरत पड़े तो मानव जाति की रक्षा के लिए सारा देश मर मिटे। इसमें किसी से घृणा करने की गुंजाइश नहीं है।
लेकिन यहीं एक और सवाल। अगर हमारे देश में सत्ता-राजनीति की लड़ाई में पक्ष और विपक्ष के ‘प्रभु’ जनता की सेवा के नाम एक दूसरे को यह कहें कि “आप शासन चलाने योग्य नहीं हैं, इसलिए आपको विषमता के खिलाफ आवाज उठाने और समता-समानता पर जोर देने का अधिकार नहीं है”, तो क्या यह घृणा को बढ़ावा नहीं देता?
अगर प्रतिद्वंद्वी प्रभु एक दूसरे को यह कहते हैं कि ये लोग शासन चलाने के योग्य नहीं हैं, तो इसका मायने यह है कि वे अपने पूर्वग्रह का परिचय देते हैं। उस पूर्वग्रह के भीतर उच्चता की भावना और यह अहंकार छिपा हुआ है कि सिर्फ वे ही शासन करने के लिये जनमे हैं। इस भावना के विरुद्ध हमें हर स्तर पर लड़ना ही होगा - जब तक राजनीतिक प्रभु इस स्थिति से च्युत नहीं कर दिये जाते, तब तक हमारे देश में शांति नहीं हो सकती और न ही दुनिया की दूसरी कमजोर जातियों को ही शांति मिल सकती है।”