तमिलनाडु सरकार ने उम्रकैद की सजा काट रहे राजीव गांधी के हत्यारों को रिहा करने की सिफारिश की है. यदि यह फैसला मानवीय आधार पर किया गया है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. पर अफसोस कि ऐसा है नहीं. कोई संदेह नहीं कि तमिलनाडु सरकार ने यह फैसला नस्लीय कारणों से लिया है. चूंकि कोर्ट से दोष सिद्ध और सजायाफ्ता हत्यारे तमिल मूल के हैं और उनके प्रति भारतीय तमिलों के बड़े हिस्से की भी सहानुभूति है, इसलिए एआईडीएमके की धुर विरोधी डीएमके ने भी, जो हमेशा से ‘लिट्टे’ का लगभग प्रत्यक्ष और मुखर समर्थन करती रही है, इस फैसले का समर्थन किया है. मगर इस प्रकरण में देश के अन्य प्रमुख राजनीतिक दलों की खामोशी आश्चर्यजनक, शर्मनाक और चिंताजनक भी है. कोई ‘तमिल भावना’ को ठेस पहुंचाने और राज्य के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों से रिश्ते बिगड़ने का जोखिम लेने को तैयार नहीं है!
गौरतलब है कि राजीव गांधी की हत्या आजाद भारत में राजनीतिक हत्या की. गांधी की हत्या के बाद, सबसे बड़ी घटना थी. इसके अलावा निर्विवाद रूप से एक आतंकवादी साजिश के तहत ‘लिट्टे’ ने उस घटना को अंजाम दिया था. ये बातें अदालत में प्रमाणित भी हो चुकी हैं. इस तरह राजीव गांधी के हत्यारों को माफी देना प्रकारांतर से आतंकवाद के प्रति हमारे कथित जीरो टालरेंस के संकल्प को कमजोर करता है. फिर भी यदि सरकार, सचनुच विशुद्ध मानवीय आधार पर ऐसा निर्णय लेती है, तो कोई हर्ज नहीं था/है.
कांग्रेस तो यह बहाना बना सकती है कि चूंकि दिवंगत राजीव गाँधी के परवर वे उनके हत्यारों को सार्वजनिक रूप से क्षमा कर दिया है, इसलिए वह उन्हें ‘मानवीय’ आधार पर रिहा करने के फैसले का विरोध क्यों और कैसे करेगी. लेकिन भाजपा? भाजपा (या उसके पूर्ववर्ती जनसंघ) के दो बड़े नेताओं- श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय- की मौत कथित तौर पर रहस्यमय स्थितियों में हुई थी. भाजपा के नेता इशारों में इसके लिए तत्कालीन सरकारों, यानी कांग्रेस को कठघरे में खड़े करने का प्रयास करते रहे हैं. कल्पना करें कि उनमे से किसी, खास कर दीनदयाल उपाध्याय के हत्यारे पकडे गए होते और आज उम्रकैद की सजा काट रहे होते. ऐसे में भाजपा विरोधी दल की कोई राज्य सरकार उन हत्यारों को रिहा करने की सिफारिश करती, तो भाजपा की क्या प्रतिक्रिया होती?
प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गाँधी द्वारा श्रीलंका के गृहयुद्ध में भारतीय सेना को भेजन गलत या सही था, इस पर मतभेद हो सकता है. लेकिन वह फैसला भारत सरकार का था. किसी भी सरकार के कुछ या अनेक फैसले गलत हो सकते हैं. लेकिन उस फैसले और भारतीय सेना के उस अभियान से ‘लिट्टे’ को जो नुक्सान हुआ, उसका बदला लेने के लिए उसने राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. शायद लिट्टे को यह ‘आशंका’ भी थी कि ’91 के आम चुनाव में कांग्रेस पुनः जीत सकती है, यानी राजीव गाँधी फिर से प्रधानमंत्री बन सकते हैं. इसलिए उसने अपने इस ‘दुश्मन’ को भारतीय भूमि पर ही मार डाला. लेकिन क्या उनकी हत्या भारतीय सुरक्ष तंत्र की विफलता भी नहीं थी? ऐसे में महज दलगत विरोध के कारण या एक समुदाय/नस्ल विशेष की भावनाओं को तुष्ट करने के लिए यदि भारत के राजनीतिक दल इस फैसले पर, राजनीतिक लाभ-हानि का आकलन करते हुए चुप रहते हैं, यानी उसका परोक्ष समर्थन करते हैं, तो यह भारतीय राजनीति के क्षरण का एक और प्रमाण है.
राज्य सरकार की उक्त सिफारिश पर अंतिम फैसला संभवतः राज्यपाल या राष्ट्रपति ही ले सकते हैं. यानी व्यवहार में फैसला केंद्र सरकार को लेना है. लेकिन लगता नहीं कि मौजूदा केंद्र सरकार, अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में इस विवादस्पद मामले में कोई निर्णय लेगी. लेकिन जिस प्रधानमत्री की छवि एक दृढ, साहसी और कठोर फैसला ले सकने वाले नेता की है या बनायी गयी है, उससे क्या ऐसे मामलों में दोटूक फैसले की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए?