धारा 497 की समाप्ति उचित, मगर व्यभिचार को सदाचार तो मत कहें

Approved by Srinivas on Tue, 10/02/2018 - 08:54

बीते कुछ दिनों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये कुछ ‘ऐतिहासिक’ फैसलों से ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट अचानक ‘आधुनिक’ और परिपक्व (मैच्योर्ड) हो गया है। कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से अलग कर दिया था। अब ‘व्यभिचार’ को अपराध मानने वाली धारा 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। यानी अब विवाहेतर सम्बन्ध (एडल्टरी), यानी किसी पुरुष का किसी गैर औरत (विवाहित) से दैहिक सम्बन्ध बनाना अपराध नहीं माना जायेगा। फिर शबरीमला मंदिर में हर उम्र की महिला के प्रवेश पर लगी रोक को हटा दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के तीनों फैसले उचित हैं; और बदलते समय के अनुरूप भी। लेकिन क्या भारतीय समाज भी उस अनुरूप बदल गया है? मुझे संदेह है।

फिलहाल, धारा 497 पर अदालती फैसले और उसके निहितार्थ की चर्चा करते हैं।

इस कानून का जाना इसलिए उचित है कि यह पुरुष वर्चस्व के मूल्य पर आधारित था। यह पत्नी को पति की ‘संपत्ति’ मानता था। इस कारण यह भेदभावपूर्ण था। इस कानून में किसी गैर की पत्नी के साथ, पति की मर्जी/सहमति के बिना यौन सम्बन्ध बनाने वाले पुरुष को व्यभिचार का दोषी माना जा सकता था; और उसे पांच वर्ष तक कैद की सजा हो सकती थी। बशर्ते, उस महिला का पति उसके खिलाफ मामला दर्ज कराये। जाहिर है, इसके पीछे धारणा यह थी कि चूंकि उस पर-पुरुष ने उसकी ‘संपत्ति’ पर डाका डाला है, (यानी पत्नी के साथ संबंध बनाया है), इसलिए वह अपराधी और सजा का हकदार है। यह कानून नैतिकता के अधार पर भी खरा नहीं उतरता था, क्योंकि यह पति की सहमति से सम्बन्ध बनाने की अनुमति देता था। लेकिन उस विवाहेतर सम्बन्ध, यानी व्यभिचार में बराबर की भागीदार महिला के लिए किसी सजा का प्रावधान नहीं था। अगर आरोपी पुरुष विवाहित है, तो उसकी पत्नी को भी इस संबंध में शिकायत दर्ज करने का कोई अधिकार नहीं था। इसलिए कि कानून की नजर (कम से कम इस मामले में) में वह ‘मनुष्य’ नहीं थी।

फिर भी फैसला सुनाते हुए कुछ न्यायाधीशों की टिप्पणियां गैरजरूरी थीं। जैसे, यह कहना तो एकदम सही है कि स्त्री के शरीर पर सिर्फ उसका हक है। यह कहना भी सही है स्त्री पुरुष/पति की संपत्ति या जागीर नहीं है। लेकिन उसके साथ यह जोड़ देना कि ‘महिला बाहरी पुरुष से संबंध बनाती है, तो यह उसका अधिकार है’ कुछ ज्यादा हो गया लगता है। फिर विवाह का अर्थ क्या हुआ?

लेकिन फैसले में यहां तक कह दिया गया कि ‘शादी का मतलब यह नहीं कि महिला अपनी सेक्सुअल ऑटोनोमी (यौन स्वायत्तता) पुरुष को सौंप दे!’ यह थोड़ा और ज्यादा हो गया। फिर वही सवाल- तो फिर विवाह का मतलब क्या हुआ?   

फिर यह कहना कि विवाह करने से या विवाह के बाद स्त्री की यौन स्वायत्तता समाप्त नहीं हो जाती, प्रकारांतर से विवाहेतर संबंधों को प्रेरित और एक तरह से महिमामंडित करना है, जो विवाह नामक संस्था के औचित्य और उसकी गरिमा को ही प्रश्नांकित करता है।

सुप्रीम कोर्ट का यह कथन भी एक हद तक ही सही है कि एडल्टरी की वजह से शादी खरब नहीं होती, बल्कि खराब शादी की वजह से एडल्टरी होती है!

तो फिर अधिकतर समाजों में लम्बे समय ताज पुरुष को एक से अधिक महिला से विवाह को सामाजिक स्वीकृति क्यों रही? इसलाम में तो उसे धार्मिक मान्यता भी है। हिंदू कोडबिल बनने के पहले तक हिंदुओं में भी थी। अनेक जनजातीय समाजों में भी यह प्रथा प्रचलित है। इसलिए कि पुरुष की पहली शादी ‘ख़राब’ हो जाती थी/है? नहीं, ऐसी परंपरा और उसे सामजिक मान्यता पुरुष की बहुगामी प्रवृत्ति और समाज पर उसके प्रभुत्व के कारण थी और है। स्त्री में ऐसी इच्छा नहीं होती या हो सकती, यह मानने का कोई कारण नहीं है। लेकिन चूंकि सारे कानून/नियम पुरुष ने बनाये, इसलिए उसने सारे विशेषाधिकार अपने लिए और निषेध स्त्री के लिए तय कर दिए। फिर भी, यह मानने का कोई आधार नहीं है कि खराब शादी की वजह से ही एडल्टरी होती है।  

विवाह का अधार परस्पर विश्वास और मर्यादित आचरण होता है। यौन वफदारी  भी उसकी एक आवश्यक शर्त है। विवाह के मन्त्रों या कानूनी प्रावधानों में इसका उल्लेख हो या नहीं, लेकिन दो वयस्क जब सहजीवन की शुरुआत करते हैं, तब उनके बीच एक स्वाभाविक सहमति होती है कि वे एक दूसरे के प्रति एकनिष्ठ बने रहेंगे। मानव संबंधों में एकनिष्ठता या बहुगामिता कितना प्राकृतिक है या नहीं है, इस बहस में न भी पड़ें, तो एकनिष्ठता के बिना विवाह का कोई अर्थ नहीं है। इसके अपवाद हो सकते हैं। आखिर बहुपत्नी प्रथा में पति तो एकनिष्ठ नहीं ही रहता। इसके उलट कहीं कहीं बहु-पति प्रथा भी है। लेकिन विवाह के ‘बंधन’ में बंधते ही सम्बद्ध स्त्री और पुरुष कुछ ‘बंधनों’ को स्वीकार कर लेते हैं। किसी बाध्यता के कारण या मजबूरी में नहीं, बल्कि उस सम्बन्ध को सहज, स्थायी और प्रेमपूर्ण बनाये रखने के लिए। जिस दिन वह विश्वास टूटता है, कोई कानून या कोर्ट उस टूट को दुरुस्त नहीं कर सकता। जिस दिन उनमें से एक का अपने साथी के अलावा किसी और के प्रति आकर्षण बनता है, उसे यह आजादी होनी ही चाहिए कि वह (स्त्री या पुरुष) नए साथी के साथ नई जिन्दगी शुरू कर सके। लेकिन एक पति या पत्नी के रहते, चोरी छिपे किसी गैर से सम्बन्ध बनाना यदि कानून की नजर में ‘अपराध’ नहीं भी रहा, मगर वह अनैतिक तो रहेगा ही। और नैतिकता की कोई सर्वमान्य परिभाषा कोई अदालत तय नहीं कर सकती। इसका कोई सार्वभौम पैमाना भी नहीं हो सकता। यह समाज और समय के सापेक्ष बदलता रहता है, बदलता रहेगा।

इसी कानून को पहले भी चुनौती दी जाती रही है; और यही सुप्रीम कोर्ट उन चुनौतियों को ख़ारिज भी करता रहा है।      

विवाहेतर सम्बन्ध को अपराध न मानने और ऐसे सम्बन्ध को वैध’ करार देने में अंतर है। वैसे भी ‘व्यभिचार’ शब्द अपने आप में निगेटिव है। और इस अदालती फैसले से भी उसका अर्थ बदल नहीं जायेगा।

फैसले से असहमति तो बेतुकी है ही, लेकिन यह फैसला ‘महिलाओं की जीत’ कैसे है, यह भी समझ से परे है, जैसा इस फैसले पर व्यक्त कुछ प्रतिक्रियाओं में कहा गया है! भले ही कानून के पीछे की धारणा स्त्री विरोधी थी, मगर व्यवहार में तो यह विवाहेतर संबंध या ‘व्यभिचार’ में लिप्त महिला को सजा से मुक्त ही करता था। इस तरह इस मामले में कानून के भेदभाव का शिकार तो पुरुष था। अब वह (व्यभिचारी पुरुष) भी सजा से मुक्त हो गया। महिला तो पहले से मुक्त थी। तो जीत महिलाओं की कैसे हुई? हां, इस अर्थ में जरूर हुई कि अब कानूनन वह अपने पति की संपत्ति नहीं रही।

कुछ मामले समाज की परंपरा और नैतिकता से तय होते हैं। मगर ऐसी कोई परंपरा संविधान से टकराती है, व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन करती है, तो संविधान और कानून को ही सर्वोपरि मानना होगा। इस लिहाज से इस  फैसले का खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए।

मगर आश्चर्य कि केंद्र सरकार यथास्थिति बनाये रखने के पक्ष में थी। यानी स्त्री को पति की संपत्ति माने जाने के पक्ष में थी। संभव है, देश/समाज के बड़े हिस्से की भी ऐसी ही धरणा हो। लेकिन न्याय जनता के ‘बहुमत’ का मुंहताज नहीं है, न हो सकता है।

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