कोर्ट ने यह भी कहा कि 1949 में मूर्तियों को चुपके से मसजिद के अंदर रखना; फिर 1992 में मसजिद का ध्वंस गैरकानूनी था. क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि दोनों अवसरों पर वह मुसलिमों के अधिकार में एक धार्मिक इमारत, एक मसजिद थी? यानी 1528 ई से लेकर 1992 तक वह मसजिद थी.
कहा/माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ के सर्वसम्मत फैसले का एक आधार एएसआई की रिपोर्ट है, जो उसने विवादित स्थल की खुदाई के बाद पेश की थी. लेकिन फैसले की जितनी जानकारी सामने आयी है, और जो मैं समझ सका हूं, उसके मुताबिक कोर्ट ने इतना तो माना कि उस स्थान के नीचे किसी मंदिर के अवशेष मिले थे. यह भी कि बाबरी मसजिद का निर्माण किसी समतल जमीन पर नहीं हुआ था. मगर यह भी नहीं माना कि वह मसजिद किसी मंदिर को तोड़ कर बनायी गयी थी.
जमीन समतल नहीं होने का कारण वहां किसी पुरानी इमारत का खंडहर होना भी हो सकता है.
यह भी अजीब है कि कोर्ट ने इस बात को अहमियत नहीं दी कि मसजिद का निर्माण कब हुआ, किसने कराया! जबकि एक पक्ष लगातार यह कहता रहा है कि भारत के पहले मुगल शासक बाबर के कमांडर मीर बाकी ने मंदिर तोड़ कर उसे 1528 में बनवाया था.
कोर्ट ने 'रामलला' को एक कानूनी शख्सियत माना. इसी आधार पर उस जमीन का स्वामित्व भी 'रामलला' को दे दिया. लेकिन हिंदुओं के आराध्य श्रीराम का जन्म सचमुच उसी स्थान पर हुआ था, यह माना? इसके लिए कोई ठोस 'प्रमाण' कोर्ट में पेश किया गया? नहीं. फैसले में हिंदुओं की 'आस्था' और मान्यता को ही इसका आधार माना गया.
कोर्ट ने यह भी कहा कि 1949 में मूर्तियों को चुपके से मसजिद के अंदर रखना; फिर 1992 में मसजिद का ध्वंस गैरकानूनी था. क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि दोनों अवसरों पर वह मुसलिमों के अधिकार में एक धार्मिक इमारत, एक मसजिद थी? यानी 1528 ई से लेकर 1992 तक वह मसजिद थी. बेशक 22 दिसंबर '49 के बाद मसजिद के अंदर नमाज नहीं पढ़ी गयी. लेकिन इसलिए कि दूसरे पक्ष के लोगों ने एक तरह से उस पर कब्जा कर लिया और प्रशासन ने धारा 44 लगा कर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. यानी वहां नमाज न पढ़ना एक विवशता थी. क्या इसी आधार पर वह मसजिद नहीं रही? क्या उसके पहले तक उस स्थान और इमारत का मसजिद के रूप में उपयोग करते रहे लोग गलती या कोई अपराध कर रहे थे?
मेरे खयाल से संभवतः यह फैसला बहुसंखयकों की आस्था व भावनाओं, फैसले के 'संभावित' और निगेटिव प्रभाव; साथ ही देश के 'व्यापक' हित का खयाल रखते हुए दिया गया है. सत्तारूढ़ जमात के पक्ष में तो यह है ही. यह मांग तो हो ही रही थी कि सरकार कानून बना कर मंदिर निर्माण का काम प्रशस्त करे. अब उसकी जरूरत ही नहीं रही. होगा वही, मगर अदालती मुहर के साथ.
जाहिर है, कहा यही जायेगा, कहा जा रहा है कि यह एक न्यायिक फैसला है, धार्मिक नहीं. कि यह सबूतों के आधार पर दिया गया है. कि इसे किसी की जीत और किसी की हार के रूप में नहीं देखा या लिया जाना चाहिए. यह कहना बहुत आसान है, लेकिन आसानी से ऐसा होता नहीं है. थोड़ी देर के लिए कल्पना करें कि फैसला इसके उलट होता, यानी मुसलिम पक्ष का दावा मान कर जमीन की मिल्कियत उसे दे दी जाती; और राम मंदिर के लिए किसी अन्य स्थान पर जमीन देने की बात कही गयी होती. तब आज सद्भाव की बात और सुप्रीम कोर्ट की जयकार कर रहे लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती?
हालांकि मुझे लगता रहा है कि आजादी के बाद मुसलिम समाज ने उक्त स्थान पर से अपना दावा छोड़ देने की उदारता दिखायी होती, तो एक मिसाल कायम होती, आपसी रिश्ता मजबूत होता. आखिर उसे स्थानीय या शायद देश भर के हिंदू राम जन्मभूमि तो मानते ही रहे हैं. और यह विवाद/झगड़ा भी आज का नहीं है. बेशक ऐसी आस्थाओं के पीछे कोई तर्क नहीं होता, लेकिन तमाम समाज ऐसी आस्थाओं से संचालित होते ही हैं. लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ. आजादी के ठीक बाद सांप्रदायिक तनाव का माहौल था. '48 में गांधी जी की हत्या हो गयी. और '49 में मसजिद में चुपके से मूर्तियां रख दी गयीं. उसके बाद जो हुआ, हम जानते हैं. ऐसे माहौल में "मंदिर 'वहीं' बनायेंगे" का नारा लगाते हुए मुसलिमों से उदारता की अपेक्षा का अर्थ प्रकारांतर से उन्हें यह एहसास कराने जैसा ही है कि तुम्हारे पास और उपाय क्या है? और उधर भी ऐसे विवादों पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले संकीर्ण लोगों की कमी तो है नहीं.
बावजूद इस सब के, जो हुआ, सो हुआ. सर्वोच्च अदालत का फैसला, जैसा भी हो, अंतिम होता है. इसे स्वीकार भी करना चाहिए. मगर इससे असंतुष्टि जताने को न्यायपालिका के असम्मान के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए.
अब उम्मीद और कामना की जानी चाहिए कि इस विवाद का हमेशा के लिए निदान हो गया. लेकिन क्या सचमुच ऐसा होगा? कहते हैं, तीन हजार मंदिरों-दरगाहों की सूची तैयार है, जिन्हें 'मुक्त' कराना है.
कथित खुदा/ईश्वर उभय पक्ष ('विजयी' को अधिक) को सद्बुद्धि दे.