आखिरकार ‘कीर्तिगान’ को किसी तरह पढ़ गया. ‘किसी तरह’ इसलिए नहीं कि ऊबाऊ है. इसलिए कि कई बार रुक गया, आगे पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई. अंत के करीब पहुंच कर दो दिन छोड़ दिया. और पूरा पढने पढ़ने के बाद मन विषाद से भर गया. देर तक उद्यिग्न रहा. जिसमें भी थोड़ी संवेदना बची होगी, उसकी हालत उपन्यास के एक प्रमुख पात्र एक पत्रकार सनोद, जो अपने चैनल के लिए हाल के बर्षों में हुई भीड़-हत्या (मॉबलिंचिंग) की घटनाओं का ब्यौरा जुटाने वाली टीम में शामिल है, जैसी हो सकती है.
चंदन पाण्डेय के इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करने से पहले ही मुझे इसके विमोचन समारोह में स्थानीय साहित्यकार पंकज मित्र ने श्रोताओं, संभावित पाठकों को जो तीन सावधानियां बरतने की सलाह दी थी, वह याद थी. उनमें पहली थी कि इसे रात में न पढ़ें, डर लग सकता है. मन घबरा सकता है. मैंने उनसे कहा था कि आपकी सलाह को नकार कर इसे रात में ही पढूंगा. लेकिन रात में या दिन में, कोई इसे जब भी पढ़े, इसके असर से बचना कठिन है.
पुस्तक : कीर्तिगान
लेखक : चंदन पाण्डेय
प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक
मूल्य : 200.00 रु
पृष्ठ : 190
पुस्तक रांची के बुक स्टोर्स पर भी उपलब्ध है।
पूरे उपन्यास में एक अव्यक्त प्रेम कथा भी चलती रहती है. सनोद और चैनल की उसी टीम में शामिल सुनंदा की. तभी तो यह उपन्यास है. अन्यथा रिपर्ताज बन कर रह जाता. पूरी कहानी बारी बारी से सनोद और सुनंदा की डायरी की शक्ल में आगे बढ़ती है. दोनों के बीच एक सहज आकर्षण भी है, जो कभी सघन होती है, फिर दूरी भी बनती है.
किताब में सितम्बर, 2015 से लेकर दिसंबर ’19 तक की घटनाओं की सूची दी गयी है. मृतक की जाति/ धर्म, हत्या का कारण सहित. हलांकि हर घटना का तफसील से विवरण नहीं है. इन भीड़ हत्याओं की कर्मभूमि झारखंड, यूपी, राजस्थान, गुजरात, कश्मीर, कर्णाटक, पश्चिम बंगाल और असम तक फ़ैली हुई है. कारण गाय/बीफ, लव जिहाद से लेकर कुछ ‘अकारण’ भी. मानो शौक के लिए हत्या कर दी हो. अधिकतर शिकार मुसलिम. कुछ दलित भी.
पुस्तक की शुरुआत सरायकेला (झारखंड) में तबरेज अंसारी की हत्या से होती है, जिसे मोटर साईकिल चोर बता कर मार डाला गया था. इसका ब्यौरा किसी को भी सिहरा देने के लिए काफी है. साथ ही तंत्र- पुलिस, डॉक्टर, प्राशासनिक अधिकारी आदि की इन हत्याओं के प्रति अगम्भीरता, बल्कि हत्यारों को बचाने के प्रयास को जान कर यह एहसास भी होता है कि यह देश किस दिशा में बढ़ रहा है और समाज में नफ़रत और उन्माद किस हद तक फैल चुका है.
नृशंस हत्याओं की उस रिपोर्टिंग के दौरान तलाकशुदा और दो बेटों का पिता सनोद मानसिक तनाव से गुजरता है. अकेले में या भीड़ में होते हुए भी मृतकों और उनके परिजनों की आकृति जीवंत होकर उसके सामने आ जाती है. फिर उसी बहाने अतीत की घटनाएं पीछा करती रहती हैं. उसका मानसिक संतुलन अस्थिर होता जाता है और अंततः ..
सुनंदा खुद अपने एक भाई को इसी तरह की भीड़ हिंसा में खो चुकी है, जब उसका परिवार नब्बे के दशक में बांग्लादेश में था. वह भी बार बार उस त्रासदी को भाई की हत्या के बाद पागलपन की कगार तक पहुँच गये अपने पिता की स्थिति को याद करती है. मगर वह सनोद की तुलना में मजबूत है. सनोद के इलाज में भी लगातार लगी रहती है.
इतने तनावपूर्ण त्रासद घटनाक्रम में चाटुकारिता में होड़ करते चैनलों के बीच ‘कीर्तिगान’ नमक मीडिया हाउस का भीड़-हत्या पर इतनी गंभीर रिपोर्टिंग करना हैरत में डालता है. लेकिन इस हैरानी का जवाब अंत में एक और हैरानी से मिलता है, जब ‘कीर्तिगान’ के इस प्रोजेक्ट को लीड करनेवाले राजबली जी के राज्यसभा जाने का जुगाड़ होने की जानकारी मिलती है. पाठक को यह जानकारी एक अस्पताल में इलाजरत सनोद को पागलखाना भेजने की तैयारी के बीच ही मिलती है.
तो उस मानवतावादी और तंत्र विरोधी अभियान का मकसद यही था? वैसे मीडिया और बहुतेरे ‘प्रसिद्ध’ पत्रकारों के चरित्र को देखते हुए अब यह कोई हैरानी की बात भी नहीं रही. हैरानी और अफसोस की बात वह है, जो ‘कीर्तिगान’ बहुत सरलता से बताती है कि कैसे उन हत्याओं को देश और समाज के बड़े हिस्से ने ‘सामान्य’ अपराध मान लिया, जो सत्ता प्रतिष्ठान और पूरा तंत्र स्थापित करना चाहता था/है. और जिन भी लोगों ने ऐसा मान लिया. कहीं न कहीं वे सभी प्रकारांतर से हत्यारों की उस भीड़ में शामिल नजर आने लगते हैं. इसलिए बहुत मुमकिन है कि इस उपन्यास के लेखक को ‘अर्बन नक्सल’ घोषित कर दिया जाये. मगर इससे वह सच कैसे बदल जायेगा, जो हमारे सामने है?
190 पेज की इस किताब में बिखरी हुई घटनाओं के बावजूद एक प्रवाह है. शैली नयी और आकर्षक है. लेखक पाठकों को बांधे रखने में सफल और दिमाग को झकझोरने में कामयाब रहे हैं.
|| 22 अगस्त, रांची ||