भारतीय राजनीति को जाँर्ज ने 60 के दशक से प्रभावित करना शुरू किया और आज भारतीय राजनीति जिस मुकाम पर है, उसका श्रेय जाँर्ज को ही जाता है। उनको याद कर रहे हैं त्रिभुवन, राजीव नयन बहुगुणा और जयशंकर गुप्त...
त्रिभुवन
वह समय का सूरज था। तपता था तो धरती कांपती थी। वह वक्त का बाज था। उड़ता था तो सत्ता के घने छांवदार पेड़ों पर बैठे पक्षी डर जाते थे। पड़ोसी देश को खंड-खंड कर देने वाली महानायिका अगर कुछ लोगों से कांपती थी तो उनमें एक वह था। लेकिन समय का फेर देखिए, समय का वह सूरज काठ का हो गया और सत्ता की आंच में जलकर कोयले में बदल गया। उस भूसे भरे बाज से बीजूकों को भी शर्म आने लगी।
वह जन्मना विद्रोही था। पिता ने अदालत में वकील बनकर खड़े होने की कल्पना की तो पुत्र पादरी होने के लिए निकल गया। ईसाई धर्मगुरु बनकर महान धर्म की सेवा करने का समय आया तो देखा कि धर्म की यह नगरी पापों के मार्ग से घिरी हुई है। और वह अपने सपनों का विद्रोही हो गया। लगभग कम्युनिस्ट होकर समाजवाद को जीने लगा और एक ट्रेड यूनियनिस्ट हो गया। मेधा का ऐसा मालिक की जो भी जु़बान हिन्दुस्तान में बोली जाती, उसमें वह निष्णात था। ट्रेड यूनियनिस्ट बना तो वह सत्ता के समंदर में संघर्ष की लहरें पैदा करने लगा।
एक वह दौर भी आया जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठी राजनीति की महानायिका ने लोकतंत्र की गर्दन रेत दी और स्वतंत्र आवाज़ों को जेलों में डाल दिया। तब इस विद्रोही ने ऐसे तेवर दिखाए कि सत्ता लकवाग्रस्त होकर सुदूर तक कांपने लगी। इस विद्रोही की आग ने सत्ता के पानी से बनी सब दीवारें बहा दीं। सत्ता लकवाग्रस्त हो गई और उसकी कांपती रोशनी अंधेरे बिछाने लगी। बिंब प्रतिबिंब में बदलने लगे और कद्दावर देहें परछाईं में। सत्ता की पस्त और गतिहीन गलियां क्रूर हाेने लगीं और सरकारी इमारतों में झूठ, छल और अत्याचार अठखेलियां करने लगे। जैसे कि आज का समय उस दिन था या जैसे कि उस दिन का समय आज लौट आया। आपातकाल वह दौर था, जिसमें इस महान नेता जैसा दमखम बहुत कम दिखा पाए और आज के कई स्वयंभू देशभक्त शूरवीर या तो दुबक गए थे या फिर इंदिरा गांधी को पत्र लिख-लिखकर कह रहे थे कि जेल से छोड़ दो। अाचरण और व्यवहार को लेकर कोई शिकायत नहीं मिलेगी। यह वह दौर था, जब लोकतंत्र को बंधक बनाने के महापाप में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी इंदिरा गांधी की उंगलियां थाम कर चल रही थी।
राजनीति को कंपा देने वाले इस महान नेता के खिलाफ़ डरे हुए सत्ताधीशों और उनकी महानायिका ने बड़ोदा डायनामाइट केस बनाया और बिना किसी प्रामाणिक तथ्य के जेल में डाल दिया। कई नेता एक साथ जेल भेजे गए। यह काम भी सीबीआई ने किया। लेकिन शक्तिकेंद्रों के क्षणभंगुर सत्ताधीश उन घोंघों की तरह होते हैं, जिनका प्राणांत होता है तो समय के पुरोहित उनमें गाल फुलाकर फूंक मारते हैं आैर वे उन्हें पवित्र शंख का नाम देते हैं। समय के घोंघों के कंकाल से निकली आवाज़ों में एक शब्द मुझे सुनाई दे रहा है, स्नेहलता रेड्डी। जॉर्ज फर्नांडीज के साथ इस संघर्षशील कन्नड़ अभिनेत्री को भी बड़ोदा डायनामाइट केस में फंसाया गया था। उनका नाम तक चार्जशीट में नहीं था। लेकिन आपातकाल लगाने वाली सत्ता की विदूषिका ने इस नेत्री को भी जेल में यातनाएं दिलवाईं और उन्हें पैरोल दिया गया तो पांच दिन बाद ही यह आपातकाल की पहली शहीद बनीं। इनका नाम फाइनल चार्जशीट तक में नहीं था। इनकी प्रिजन डायरी रूह कंपा देती है। प्रखर समाजवादी नेता मधु दंडवते भी उन दिनों बैंगलोर जेल में थे और उन्होंने स्नेहलता रेड्डी की कराहों के बारे में जो लिखा था, वह आज इस बात का प्रमाण है कि इंदिरा गांधी और कांग्रेसी नेताओं ने किस तरह आपातकाल के माध्यम से सत्ता को एक कसाईघर में बदल दिया था।
हर राजनेता जब सत्ता से बाहर होता है तो वह लोकतंत्र के बारे में देवदूतों जैसी बातें करता है, लेकिन जैसे ही वह सत्ता में आता है तो उसकी भाषा काल के बहेलियों की सी हो जाता है। लेकिन जिस जॉर्ज ने इतना आपातकाल के दिनों में सत्ता और शक्ति के शिखर पर बैठे लोकतंत्र के खलनायकों से संघर्ष किया, उसी रक्त और पसीने की महक वे सत्ता की लिप्सा में भूल गए और जब अमेरिका और ब्राजील गए तो दो बार भारत का रक्षा मंत्री होने के बावजूद उन्हें अमेरिकी सुरक्षा दस्तों ने डुलेस एयरपाेर्ट पर स्ट्रिप सर्च किया। स्ट्रिप सर्च यानी शरीर के पूरे वस्त्र उतारकर यह जांच करना कि इस व्यक्ति के पास कोई नशीला द्रव्य या खतरनाक हथियार तो नहीं है। आपातकाल के इस महान योद्धा के लिए वह पतन का समय था। इस बहाने उन्होंने भारत नामक महान राष्ट्र की गरिमा को भी धूलधूसरित किया। अमेरिका के पूर्व रक्षा सचिव स्ट्रॉब टॉलबोट ने अपनी पुस्तक एंगेजिंग इंडिया : डिप्लोमेसी-डेमोक्रेसी एंड दॅ बॉम्ब में इस किस्से को बहुत चटखारे लेकर लिखा है। इसे पढ़कर लगता है कि जब टालबोट भारत आकर फर्नांडीज, यशवंत सिन्हा और ब्रजेश मिश्रा से मिला तो फर्नांडीज ने सबसे पहले अपनी स्ट्रिच सर्च वाली शिकायत ही की।
जॉर्ज फर्नांडीज इस बात का जीवंत उदाहरण है कि सत्ता से संघर्ष मनुष्य को किस ऊंचाई पर खड़ा करता है और सत्ता की लिप्सा मनुष्य को किस तरह नंगा करती है।
राजीव नयन बहुगुणा
जितना त्रासद, मार्मिक एवं दुखद जॉर्ज़ फर्नांडिज़ का जीवन के उत्तरार्ध में अवाक और अचेत हो जाना है, उतना ही उनके द्वारा संघियों से समझौता करना भी पीड़ादायक है. फौलाद से बना वह श्रमजीवी हाथ आडवाणी के रक्तरंजित हाथों से कैसे मिलता होगा, यह मेरे लिए रहस्य है.
इंदिरा गांधी जैसी लौह महिला को भी कंपकंपी छुड़ा देने वाले जॉर्ज़ में ही वह इच्छा और शक्ति थी कि इस कठिन समय मे वह उद्दण्ड हो चुके संघियों की ताड़ना कर सकते थे।
जब पहली बार, लगभग 25 साल पहले वह अपने मस्तिष्क का ऑपरेशन कराने लन्दन अथवा अमेरिका गए थे, उसी दौरान मेरे साथ देहरादून से लखनऊ तक की रेल यात्रा में रेलवे का एक जूनियर अफसर यात्रा कर रहा था. वह भी कभी रेल श्रमिक रह चुका था. उसने बताया- रेलवे की कांग्रेसी तथा संघी मज़दूर यूनियनों के गुंडों ने जॉर्ज़ के सर पर कई बार लोहे की छड़ों से प्रहार किया है. इन यूनियनों के गुंडे उन्हें मृत मान कर, पीटपाट कर भाग जाते थे. जॉर्ज़ को मस्तिष्क आघात इन्हीं चोटों के कारण हुआ है.
जॉर्ज़ को मैंने निकट से तब देखा, जब वह टिहरी बांध विरोधी आंदोलन में मेरे पिता को समर्थन देने ठेठ टिहरी आये थे. एक अम्बेसडर कार में लगभग 7 लोग ठुंसे थे, और एक के ऊपर एक बैठे थे. इनमें सभी संसद अथवा पूर्व सांसद थे. जॉर्ज़ का कुर्ता पसीने से तर था. उनकी तांबे जैसी देह से धान को पकाने वाली जून की गर्मी के जैसा भभका उठता था.
जॉर्ज़ टिहरी बांध विरोधी आंदोलन को समर्थन देने टिहरी आए तो हमारे टिन शेड के झोंपड़े में नींबू पानी पिया, और भोजन के लिए मना कर दिया. वापसी में चम्बा नामक एक कस्बे में उन्हें बांध समर्थक ठेकेदार के गुंडों ने घेर लिया. इन भाड़े के गुंडों की धमकी से डर कर विश्व हिंदु परिषद के नेता अशोक सिंघल ने अपना रास्ता बदल लिया था, और वे 100 किलोमीटर से अधिक का चक्कर लगा कर देवप्रयाग के रस्ते टिहरी पंहुचे.
इधर बांध समर्थक हिंसक गुंडों से घिरे जॉर्ज़ ने कहा- “तुम मेरे पुतले तो क्या, खुद मुझे ही जला लो, पर मैं टिहरी बांध जैसी मनुष्य एवं प्रकृति विरोधी परियोजनाओं का विरोध करता रहूंगा.”
जॉर्ज़ की पत्नी लैला कबीर का जिक्र यहां जरूरी है, जो उनका शंकर जैसा फटेहाल रूप देख वर्षों पहले उन्हें छोड़ कर विदेश चली गयी थी. वो वापस चार-पांच साल पहले ही लौटी हैं. जीवन भर अपना कुर्ता साबुन से खुद धोने वाले जॉर्ज़ के आखिरी चुनावी घोषणा के मुताबिक उनके एकाउंट में 17 करोड़ थे. यह संपत्ति कहां से आई, यह रोचक कथा आगे आएगी.
जॉर्ज़ के पिता उन्हें पादरी बनाना चाहते थे, पर होश संभालने के बाद जॉर्ज़ शायद एक ही बार चर्च गए. हुआ यूं कि कुछ वर्ष पहले उनकी पत्नी उन्हें ‘इलाज़’ के लिए रामदेव के ठिकाने यानी हरिद्वार ले आईं. जॉर्ज़ अपनी सुध-बुध में होते तो किसी की ऐसा करने की हिम्मत कभी न होती, पर नियति की मार.
इसी मौके पर वहां उत्तराखण्ड की तत्कालीन गवर्नर मार्गरेट अल्वा जा पंहुची. अल्वा ने अपने समधर्मी (ईसाई) जॉर्ज़ को सुझाव दिया- आपकी सेहत के लिए गॉड से प्रार्थना करने चर्च चलते हैं. बदहवास जॉर्ज़ ने मासूमियत से कहा- लेकिन यह मेरा पार्लियामेंट जाने का वक़्त है. तब उनके ड्राइवर ने उनकी संसद के कागजात वाला ब्रीफ केस ला कर उन्हें कार में बिठाया और एक चक्कर काटकर कार का दरवाज़ा खोलकर बोला- उतरिये, हम पार्लियामेंट से हो आये हैं. तब जॉर्ज़, अल्वा के साथ चुपचाप चर्च चले गए. यह सब देख मेरी आंखों मे आंसू आ गए.
पादरी अर्थात धर्मगुरु की ट्रेनिंग छोड़ जॉर्ज फर्नांडिज़ ने मुंबई में एक श्रमिक और फिर श्रमिक नेता के रूप में अपनी स्वतंत्र राह चुन ली. उनके असामान्य भाव को देख उनकी मां ने सोचा, मेरे अन्य पुत्र तो कहीं न कहीं मेहनत मजदूरी कर अपना पेट पाल रहे हैं, लेकिन इस बेटे (जॉर्ज़) ने नौकरी भी छोड़ दी है, और इसके शादी करने के भी आसार नहीं दिख रहे. इसका बुढ़ापे में फजीता न हो, यह सोच जॉर्ज़ की मां ने उनके लिए बंगलुरू में कुछ हज़ार रुपये की अपनी बचत से उनके नाम एक छोटा सा भूखण्ड खरीद लिया.
21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब बंगलुरू एक अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी शहर के रूप में विस्तार लेने लगा, तो सरकार ने बाजार भाव से कई गुना अधिक मूल्य देकर निजी भूमि की खरीद-फरोख्त शुरू की. काफी मशक्कत के बाद भी प्रशासनिक अमले को उक्त लघु भूखण्ड का कोई दावेदार नहीं मिल रहा था. तब दस्तावेज खंगाले गए. यह भूमि जॉर्ज फर्नांडिज़ के नाम निकली. उन्हें सूचित किया गया, और उनके खाते में इसका मूल्य 17 करोड़ रुपए जमा करा दिया गया. इसी संपत्ति का जिक्र ऊपर आया है.
अगले चुनावों में उनके दलगत साथियों, नीतीश और शरद यादव, ने जॉर्ज़ का टिकट काटा, तो वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में खम ठोंक गए. पर्चा भरते समय उन्होंने अपनी जमा सम्पति 17 करोड़ दर्शायी. सब ओर से उन पर बौछारें होने लगीं. लेकिन तब तक जॉर्ज़ आलोचनाओं का उत्तर देने लायक नहीं बचे थे
उपसंहार एक प्रकरण से करना चाहूंगा. नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में एसवी चव्हाण उनके गृहमंत्री थे. उनका बंगला दिल्ली में जॉर्ज के बंगले के ठीक सामने पड़ता था. जब भी गृहमंत्री आते जाते, तो उनके सुरक्षाकर्मी जॉर्ज के बंगले का गेट बाहर से बन्द कर जाते, क्योंकि जॉर्ज़ के घर कई तरह के कथित हाली-मवालियों का आना जाना था. इनमें कश्मीर, पंजाब और उत्तर पूर्व के ‘उग्रवादी’ भी होते थे, और नक्सली भी.
ये सब अपनी समस्याएं लेकर जॉर्ज़ के पास आते-जाते थे. गृहमंत्री की सुरक्षा की चौकसी से जॉर्ज और उनके साथियों को दिन में बार-बार अपने ही घर मे क़ैद कर दिया जाता था. इससे अघा कर एक दोपहरी में जॉर्ज ने गैंती, सबल और हथौड़ा मंगाया और अपना गेट उखाड़ फेंका. लोहा काटने में वह सिद्ध थे ही.
बंगले का गेट उखाड़ फेंकने के बाद वह सीधे संसद भवन गए. लोकसभा में उन्होंने कहा, “आखिर यह गृहमंत्री देश की आंतरिक सुरक्षा कैसे करेगा जो अपने पड़ोसी सांसद से इतना डरता है कि घर आते जाते उसे बाहर से कैद करवा देता है.”
(यह आलेख जून 18 में चर्चित पोर्टल न्यूज़ लॉड्री में छप चुका है , जब जॉर्ज विद्यमान थे । साभार।)
जयशंकर गुप्त
शत शत नमन उस समाजवादी योद्धा, जार्ज फर्नांडिस को जो सत्तर-अस्सी के दशक में हमारे जैसे लाखों छात्र युवाओं के हीरो, संघर्ष की प्रेरणा और आश्वासन थे। जहां अन्याय, शोषण और उत्पीड़न और कुव्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष था, वहां जार्ज थे। जार्ज साहेब के साथ समाजवादी युवजन सभा के एक छात्र युवा सिपाही से लेकर पत्रकार के रूप में भी हमारा गहरा जुड़ाव था। वह हमारे पिता समाजवादी नेता,स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व विधायक स्व. विष्णुदेव के मित्र, नेता होने के साथ ही हमारे हीरो भी थे लेकिन संबंध मित्रवत ही थे। हमने उनके निवास पर रहकर फीचर एजेंसी, लेबर प्रेस सर्विस का काम किया था। बिहार प्रवास के दौरान भी लगातार उनसे जुड़ाव रहा। उनके साथ कई कार यात्राएं की। बहुत सारी स्मृतियां हैं। संजोकर लिखने की कोशिश करूंगा। एक मुश्किल यह है कि जिनके बारे में आप बहुत कुछ जानते हैं, उनके बारे में कुछ लिखना उतना ही दुरुह होता है।
जिनकी दहाड़ से बड़े से बड़े सत्ता प्रतिष्ठान दहल जाते थे, जिनके भाषणों और लेखनी से संसद हिल जाती थी, जिनके एक इशारे पर बंबई का जनजीवन ठप हो जाता था, रेल का चक्का जाम हो जाता था, वह जार्ज फर्नांडिस चुपचाप इस दुनिया से चले गए। पिछले एक दशक से अलजाइमर की बीमारी के चलते रोग शैया पर पड़े न कुछ बोल समझ पाते थे और न ही किसी को पहिचान सकते थे। यह अलजाइमर भी उन्हें रक्षा मंत्री के रूप में हमारी सेना के जवानों की विकट जीवन दशा को जानने समझने के लिए बार बार उनकी सियाचिन ग्लेशियर यात्राओं की भी देन था। इस हिसाब से देखें तो उनका निधन हम सबके लिए दुखद होने के साथ ही पिछले एक दशक से मेडिकल साइंस की त्रासदी झेल रहे जार्ज साहेब की आत्मा की मुक्ति भी है लेकिन वह जिस हालत में भी थे, हम जैसे लोगों और दुनिया भर के, खासतौर से दक्षिण पूर्व एशिया के संघर्षशील लोगों के लिए संघर्ष की प्रेरणा और आश्वासन थे कि जार्ज अभी जिंदा है।
जार्ज साहेब से जुड़ी स्मृतियों को सलाम। विनम्र श्रद्धांजलि।