मुजफ्फरपुर: बिहार में इस गरमी में भी संदिग्ध एईएस से बच्चों के असमय काल के गाल में समाने का सिलसिला जारी है। पिछले एक सप्ताह के अंदर संदिग्ध एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) और जापानी इंसेफलाइटिस (जेई) नामक बीमारी से 12 बच्चों की मौत हो गई है, जबकि अभी भी 15 बच्चों का इलाज यहां के दो अस्पतालों में चल रहा है।
मुजफ्फरपुर स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने शनिवार को बताया कि पिछले 24 घंटों में संदिग्ध एईएस और जेई की वजह से पांच बच्चों की मौत हो गई है, वहीं एक दर्जन नए मरीज भर्ती हुए हैं।
मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेमोरियल कॉलेज अस्पताल (एसकेएमसीएच) में संदिग्ध एईएस से पीड़ित 21 बच्चों को शुक्रवार को भर्ती किया गया था, जबकि केजरीवाल अस्पताल में 14 मरीज पहुंचे थे।
मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन एस़ पी़ सिंह ने शनिवार को बताया कि पिछले एक सप्ताह के अंदर जिले में 12 बच्चों की मौत हुई है। उन्होंने बताया कि अब तक दो बच्चों की मौत एईएस से होने की पुष्टि हुई है।
सिंह ने कहा कि अन्य बच्चों की मौत के कारणों का पता लगाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अधिकांश बच्चों में हाइपोग्लाइसीमिया यानी अचानक शुगर की कमी की पुष्टि हो रही है। उन्होंने भी माना कई बच्चों को तेज बुखार में लाया जा रहा है। उन्होंने इसे चमकी और तेज बुखार बताया।
सिविल सर्जन ने कहा, "चमकी बुखार के कहर को देखते हुए जिले के सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को हाई अलर्ट पर रखा गया है। चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों के इलाज के लिए समुचित व्यवस्था की गई है फिर भी लोगों को अपने बच्चों के प्रति खासा ख्याल रखने की जरूरत है।"
उन्होंने लोगों से बच्चों को गर्मी से बचाने के साथ ही समय-समय पर तरल पदार्थो का सेवन करवाते रहने की अपील की है।
एसकेएमसीएच के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ़ जी़ एस़ सहनी ने बताया कि अब तक बीमार बच्चों का उपचार बीमारी के लक्षण के आधार पर किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि एईएस से ग्रसित बच्चों को पहले तेज बुखार और शरीर में ऐंठन होता है और फिर वे बेहोश हो जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि पिछले दो दशकों से यह बीमारी मुजफ्फरपुर सहित राज्य के कई इलाकों में होती है, जिसके कारण अब तक कई बच्चे असमय काल के गाल में समा चुके हैं। परंतु अब तक सरकार इस बीमारी से लड़ने के कारगर उपाय नहीं ढूढ़ पाई है। कई चिकित्सक इस बीमारी को 'एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम' बताते हैं।
गौरतलब है कि इस बीमारी के शिकार आमतौर पर गरीब परिवारों के बच्चे होते हैं। 15 वर्ष तक की उम्र के बच्चे इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं, और मृतकों में अधिकांश की आयु एक से सात वर्ष के बीच है।
गौरतलब है कि पूर्व के वर्षो में दिल्ली के नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के विशेषज्ञों की टीम तथा पुणे के नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) की टीम भी यहां इस बीमारी का अध्ययन कर चुकी है।