उन दिनों मैं एमकॉम के पहले वर्ष में थी. चूंकि मैं संघर्ष वाहिनी में नयी थी. मुझे बहुत-सी जानकारी नहीं थी. पर मैं सभी कुछ जानना और सीखना चाहती थी. येरवदा जेल में जाने के कारण मुझे औरंगाबाद के सक्रिय सदस्यों की बैठक में शामिल किया गया. वहां भी मेरे लिए सभी कुछ नया था. बहुत से लोग बिहार, खास कर बोधगया से भी आये थे. क्योंकि उन दिनों मेरी हिंदी बहुत कमज़ोर थी, तो जो भी चर्चा हो रही थी, वो मेरी समझ से परे थी. इसी कारण रात की मीटिंग में मैं ज़्यादा देर बैठी भी नहीं.
आजाद भारत के एक अद्भुत और सफल शांतिमय भूमि आंदोलन हुआ था बिहार (अविभाजित) के गया जिले बोधगया के शंकराचार्य मठ की अवैध जमींदारी के खिलाफ. आंदोलन का नेतृत्व किया था जेपी की प्रेरणा से उनके द्वारा गठित छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी ने. वाहिनी के पुराने साथी कार्यकर्ता अभी उस आंदोलन को अपने ढंग से याद कर रहे हैं. ये संस्मरण अपने आप में एक इतिहास के जीवंत दस्तावेज हैं. हम उनमें कुछ को टुकड़ों में अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे. उसी.आंदोलन से आकर्षित होकर सुदूर मुंबई से वाहिनी की चेतना नाम की एक युवती बोधगया पहुंची थी. शुरुआत हम उनके संस्मरण से कर रहे हैं. बताते चलें कि चेतना गाला गुजराती (कच्छी) मूल की, अब मराठी एक सफल उद्यमी हैं.. भारत में पहला महिला बैंक शुरू किया, जो सफल है. बीबीसी पर रपट आयी. एनडीटीवी पर भी.
और चेतना खिंची चली आयी गया; उनकी नजरों से देखें बोधगया आंदोलन की एक झलक..
बोधगया आंदोलन की यादें-1
बोधगया आंदोलन के बारे में मुझे पहली बार येरवदा जेल में ज्ञात हुआ था. जब मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी को बाबा साहेब आंबेडकर का नाम देने के लिए आंदोलन हुआ था. इसमें संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ताओं ने भी भाग लिया था. इस आंदोलन में बिहार और महाराष्ट्र के लोग बड़ी तादात में शामिल हुए थे. छह दिसंबर को हम आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया और येरवदा जेल भेजा गया.
जहाँ तक मुझे याद है, येरवदा जेल में बिहार (तब संयुक्त) की मणिमाला जी भी थीं. जेल में संघर्ष वाहिनी की महिलाएं रोज सुबह नाश्ते के बाद वर्कशॉप और चर्चा के लिए इकठा होती थीं. हम अलग-अलग विषय पर चर्चा और विचार-विमर्श करते थे. उस दौरान मैंने मणि जी से बोधगया आंदोलन के बारे में सुना था और तभी 'बंधुआ-मज़दूर' शब्द पहली बार मेरे सामने आया. एक और नारा, जिससे मैं उस समय पहली बार रूबरू हुई, वो था - 'जो जमीन को जोते-बोये, उसका मालिक वो ही होये.' दोनों ही मेरे दिल को छू गये थे और ज़हन में बैठ से गये.
उन दिनों मैं एमकॉम के पहले वर्ष में थी. चूंकि मैं संघर्ष वाहिनी में नयी थी. मुझे बहुत-सी जानकारी नहीं थी. पर मैं सभी कुछ जानना और सीखना चाहती थी. येरवदा जेल में जाने के कारण मुझे औरंगाबाद के सक्रिय सदस्यों की बैठक में शामिल किया गया. वहां भी मेरे लिए सभी कुछ नया था. बहुत से लोग बिहार, खास कर बोधगया से भी आये थे. क्योंकि उन दिनों मेरी हिंदी बहुत कमज़ोर थी, तो जो भी चर्चा हो रही थी, वो मेरी समझ से परे थी. इसी कारण रात की मीटिंग में मैं ज़्यादा देर बैठी भी नहीं.
हालाँकि मेरी जानकारी और मेरा तजुर्बा संघर्ष वाहिनी से जुड़ने के बाद बढ़ता ही रहा. मुझे याद है कि सुशील जी (आरा) उन दिनों मुंबई आये थे. संघर्ष वाहिनी की टीम, जिसमें मेरे अलावा प्रदीप, श्रीकांत, और अलका ने छबीलदास कॉलेज (दादर) में अलग-अलग संस्थाओं को आमंत्रित कर सुशीलजी के साथ ग्रुप-डिस्कशन रखा था. तब सुशील जी ने हमें बोधगया आंदोलन के बारे में विस्तार से बताया.
सब कुछ जान कर मैं और अलका (इनका विवाह बाद में असम आंदोलन/आसू के एक कार्यकर्ता से, जिनकी बाद में हत्या हो गयी. ये संभवत अगप की विधायक और मंत्री भी बनीं) आंदोलन से काफी प्रभावित हुए. हम दोनों आपस में चर्चा करते थे और यह देख कर हैरान होते थे कि देश तो आजाद हो गया, फिर भी हमारे यहाँ 'बंधुआ-मज़दूर' हैं, जो काम तो करते हैं, पर बदले में उन्हें पैसा नहीं दिया जाता. हम दोनों इस समस्या को अपने अर्थशास्त्र की पढ़ाई से जोड़ कर समझने की कोशिश करते थे. उन्ही दिनों हम डॉ उषा मेहता से मिलने गये. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंडरग्राउंड रेडियो चलाया था. अगर तीन बजे के बाद संघर्ष वाहिनी का कोई सदस्य डॉ मेहता से मिलने जाता, तो वो जरूर मिलती थीं. उस वक्त डॉ उषा मेहता जी मणि-भवन गांधी संग्रहालय की प्रमुख थीं.
बोधगया जाने का संकल्प
जब मैं और अलका वहां पहुंचे तो वे और उनकी सहकर्मी आलू दस्तूर, जो उनके साथ स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थीं, मौजूद थीं. मैंने और अलका ने उषा मेहता से पूछा कि देश आज़ाद होने के बाद भी बंधुआ-मजदूर की प्रथा क्यों जिंदा है? कि ये तो गुलामी के समान है. मुझे अभी भी याद है कि किस तरह इतनी सम्माननीय स्वतंत्रता सेनानी होने के बाद भी उषा मेहता हम दोनों से प्रेमपूर्वक मिलीं और हमें समय दिया. हमारी बातें सुन कर उनकी बड़ी-बड़ी, खूबसूरत आँखों में पानी भर आया. ऐसा लगा, बस आंसू छलक जायेंगे. तभी उनकी सहकर्मी ने गंभीर वातावरण को हल्का करते हुए कहा- 'हम लोगों ने तो देश को आजादी दिला दी. अब संघर्ष वाहिनी के सदस्यों का काम है, देश की जनता को देश की समस्याओं से आज़ादी दिलाना. जयप्रकाश (नारायण) ने इसलिए तो आंदोलन चलाया है और आप लोगों को सामने खड़ा किया है.' वहां से लौटते वक़्त मैंने अलका से कहा कि मुझे बोधगया जाना है, पर न जाने कब मौका मिलेगा.
उसी दौरान राजेंद्रनगर, पटना में संघर्ष वाहिनी की एक मीटिंग होने वाली थी और मेरा नाम चुना गया. मैं बहुत खुश और उत्साहित थी. मैंने वीटी स्टेशन जाकर मुंबई से गया तक की टिकट खरीदी और जाने की तैयारी शुरू कर दी. तय किया कि इस पूरी मीटिंग और यात्रा के दौरान में सिर्फ खादी के वस्त्र पहनूंगी और उसी प्रकार मैंने खरीदारी भी की. याद है, मैंने गुजराती महिलाओं द्वारा हाथ से बनाये गये गुर्जरी कपड़े खरीदे थे.
(जारी)
लेखिका: चेतना