बेशक भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी कमजोर नहीं हैं कि मोदी की दोबारा ताजपोशी से लोकतंत्र नष्ट हो जायेगा, लेकिन यह सरकार प्रधानमंत्री की अगुवाई में जिस तरह धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देती रही है, सत्ता पक्ष से जुड़े महत्वपूर्ण नेता, सांसद, यहाँ तक कि अनेक मंत्री भी, खुलेआम ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर संकीर्ण और आक्रामक हिंदुत्व की वकालत कर रहे हैं. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट तक को परोक्ष रूप से धमकी दी जाती रही है, ‘आस्था’ को संविधान और कानून से ऊपर बताया जा रहा है, उससे यह आशंका प्रबल तो हुई ही है कि दोबारा मोदी के सत्तासीन होने पर ये मूलतः लोकतंत्रविरोधी प्रवृत्तियां विकराल और बेकाबू रूप ले सकती हैं.
चुनाव का बिगुल बज चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के किये-अनकिये का हिसाब करने का वक्त आ गया है. यानी संविधान से मिले मताधिकार का उपयोग करने का भी. आम तौर पर लोग सरकार के पांच साल के कामकाज के आधार पर उसे दोबारा चुनते हैं या नकारते हैं. यह और बात है कि भारतीय मतदाता अमूमन अन्य कारणों से ही किसी को चुनता और नकारता है. वैसे भी संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में जनता सीधे सरकार नहीं चुनती है, अपना क्षेत्रीय प्रतिनिधि (सासद या विधायक) चुनती है; और उनके बहुमत की सरकार बनती है.
जो भी हो, मेरी समझ से इस बार सरकार ने क्या किया या नहीं किया; उसने पिछले चुनाव के दौरान किये वायदों को पूरा किया या नहीं किया, इसके बजाय दूसरे मुद्दे कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं, जो विचारणीय हैं. मुद्दा यह है कि भारत का मौजूदा स्वरुप बना रह पायेगा या नहीं? कि लोकतान्त्रिक-संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता और गरिमा बनी रहनी चाहिए या नहीं और बनी रह पायेगी या नहीं. भारतीय संविधान के तहत आम नागरिक को हासिल धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार बरकरार रह पायेगा या नहीं. सरकार से असहमत होने, सरकार/प्रशासन का कोई फैसला यदि किसी को गलत लगता है, तो उसे उसका विरोध करने/आन्दोलन करने का अधिकार बरकरार रह पायेगा या नहीं. अब यह सवाल अहम हो गया है कि कोई क्या खाए, क्या पहने, किससे दोस्ती करे या विवाह करे, यह सम्बद्ध लोग तय करेंगे या किसी विचारधारा विशेष से जुड़े संगठनों के लोग (आक्रामक गुंडे) तय करेंगे? ये मुद्दे काल्पनिक नहीं हैं; या मोदी/भाजपा के अंध विरोध से उपजे हैं. बीते करीब पांच वर्षों के मोदी राज की घटनाओं, सत्ता पक्ष से जुड़े और सरकार संरक्षित संगठनों के व्यवहार से उपजे हैं.
बेशक भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी कमजोर नहीं हैं कि मोदी की दोबारा ताजपोशी से लोकतंत्र नष्ट हो जायेगा, लेकिन यह सरकार प्रधानमंत्री की अगुवाई में जिस तरह धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देती रही है, सत्ता पक्ष से जुड़े महत्वपूर्ण नेता, सांसद, यहाँ तक कि अनेक मंत्री भी, खुलेआम ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर संकीर्ण और आक्रामक हिंदुत्व की वकालत कर रहे हैं. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट तक को परोक्ष रूप से धमकी दी जाती रही है, ‘आस्था’ को संविधान और कानून से ऊपर बताया जा रहा है, उससे यह आशंका प्रबल तो हुई ही है कि दोबारा मोदी के सत्तासीन होने पर ये मूलतः लोकतंत्रविरोधी प्रवृत्तियां विकराल और बेकाबू रूप ले सकती हैं.
इसलिए बेशक इस सरकार के विकल्प के रूप में जो दल और चेहरे हमारे सामने हैं, उनसे कोई खास उम्मीद नहीं बनती. वे पहले भी आजमाये जा चुके हैं और अपने अतीत के कारण भी वे बेहतर विकल्प नहीं दीखते. ऐसे में कहा जा सकता है, जैसा कि अमूमन हर चुनाव के वक्त कहा जाता है- जनता के पास सांपनाथ या नागनाथ में से एक को चुनने का ही विकल्प है. तो क्या हम ‘कोई नृप होंहि हमहि का हानि’ की मुद्रा में चले जाएँ? नहीं. यह राजतन्त्र नहीं है, जहाँ. रजा कौन होगा, यह पहले से तय होता था. यह लोकतंत्र है; और यह हम पर, यानी मतदाताओं पर निर्भर है कि हमें कैसी सरकार मिलती है. अच्छा प्रतिनिधि और अच्छी सरकार चुनना हमारा दायित्व है और अधिकार भी. और भले ही उपलब्ध विकल्पों में से कोई हमारे सोच और आदर्श के अनुरूप नहीं हो, या कहें- एक सांपनाथ हो और दूसरा नागनाथ, तब भी हमें देखना होगा कि उनमें से कौन-सा सांप अधिक जहरीला है.
और आज बिना हिचक कहा जा सकता है कि भाजपा अभी अधिक जहरीला और नुकसानदेह है. कांग्रेस के दागदार अतीत के बावजूद. इसलिए अभी यह बहस और तुलना भी गैरजरूरी है कि कांग्रेस की सरकारें क्या क्या करती रही हैं और वर्तमान मोदी सरकार उसकी सरकारों की तुलना में कितना अच्छा काम कर रही है. इसका मतलब यह नहीं कि मैं इस मोदी सरकार के तमाम कामों की सराहना कर रहा हूँ या मान रहा हूँ कि श्री मोदी के विकास संबंधी दावे सही हैं. सच यह है कि मोदी की कथित लोकप्रियता का बड़ा कारण उनकी ‘हिंदू ह्रदय सम्राट’ की छवि ही है. साथ ही अकूत सरकारी गैरसरकारी स्रोतों से किया जा रहा अकूत खर्चीला प्रचार भी है, जिससे उन्हें महान ही नहीं, विकल्पहीन भी बताया जा रहा है. बीते कुछ दिनों से मोदी और कुल मिला कर भाजपा के चुनावी अभियान और अंदाज पर गौर करें, तो सोचना पड़ता है कि यदि ‘पुलवामा’ और फिर ‘बालाकोट’ नहीं हुआ होता, तो क्या बोल कर वोट मांग रहे होते! वैसे भी, सड़क, पुल, अस्पताल, कारखाना या बाँध आदि बनवाना सरकार का काम और दायित्व है, जनता पर एहसान नहीं. इसलिए सरकार अपनी पीठ लाख थपथपाती रहे, चुनाव के समय पूछा यह जाता है और जाना चाहिए कि पांच साल पहले आपने जो वायदे किये थे, उनमें ये ये पूरे क्यों नहीं हुए.
ऐसे में यदि इस सरकार ने कुछ पैमानों पर कुछ हद तक बेहतर किया भी हो, तब भी संघ संचालित और निर्देशित इस सरकार और सत्तारूढ़ जानत ने बीते पांच वर्षों में अपना जो रौद्र और खौफनाक रूप दिखाया है, जो आशंका जगायी है, उन्हें देखते हुए इसे दोबारा मौका देने के बारे में कोई विवेक खो चुका आदमी (या महिला) ही सोच सकता है. धर्मांध हो चुके व्यक्तियों की बात और है; वे अपना विवेक तो खो ही चुके होते हैं.
नरेंद्र मोदी के विकास संबंधी बड़बोले दावों पर अगली बार.