बेशक इनके और मुरली मनोहर जोशी आदि के साथ अच्छा नहीं हुआ, लेकिन आडवाणी जी ने देश के साथ जो किया है, उस लिहाज से तो यह कुछ भी नहीं है. और नरेंद्र मोदी भी तो इनकी ही पाठशाला से निकले हैं. कहले हैं, पता नहीं इसमें सच कितना है, कि गुजरात दंगों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी, मोदी से मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए कहना चाहते थे, लेकिन तब आडवाणी मोदी के बचाव में आ गए थे.
भाजपा-संघ के कतिपय आलोचकों में अचानक एलके आडवाणी के प्रति सहानुभूति छलक उठी है! पता नहीं, यह ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ की नीति के तहत है; या उनको सचमुच श्री आडवाणी में वे गुण नजर आने लगे, जो कल तक नहीं दीखते थे? आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मुझे आडवाणी जी से कोई सहानुभूति नहीं हो रही। उम्र के लिहाज से एक बुजुर्ग का कितना सम्मान किया जाना चाहिए, उतना उनका भी करता हूँ, बस। और निवेदन है कि उनके लिए आंसू बहाने से पहले उनके (कु) कृत्यों को भी याद कर लें।
वैसे आडवाणी के अचानक चर्चा में आने का कारण यह है कि भाजपा ने इस बार उनको प्रत्याशी नहीं बनाया; गांधीनगर (अहमदाबाद) संसदीय क्षेत्र, जहाँ से वे लगातार जीतते रहे हैं, से उनकी जगह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह खुद प्रत्याशी बन गये। वैसे तो यह एक पार्टी का आतंरिक मामला है, जिस पर टिप्पणी करना भी गैरजरूरी है, फिर भी चूंकि श्री आडवाणी एक बड़े नेता हैं, भाजपा के संस्थापकों में से एक हैं, उनके साथ मोदी-शाह की जोड़ी से ऐसे व्यवहार की उम्मीद शायद नहीं थी, इसलिए इस तरह की चर्चा अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन एक अन्य, शायद अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इसी बहाने विपक्षी दलों को भाजपा के मौजूदा नेतृत्व पर, उसकी अशालीन/निरंकुश कार्यप्रणाली पर तंज कसने का मौका मिल गया।
मगर इस पूरे प्रकरण में मुझे आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी आदि बुजुर्ग नेताओं का टिकट काटा जाना कहीं से अनुचित नहीं लगता। गड़बड़ी सिर्फ यह हुई कि 75 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति (महिला) को प्रत्याशी नहीं बनाया जायेगा, ऐसा कोई फैसला पार्टी के स्तर पर नहीं हुआ। हुआ होता, तो यह सार्वजनिक खबर होती। यानी मोदी और शाह ने तय कर लिया और मान लिया कि उनकी इच्छा सर्वोपरि है। भला कौन इसमें टालमटोल कर सकता है। मगर बीते पांच वर्षों से यह जोड़ी जिस तरह पार्टी को मनमर्जी से चला रही है, उसे देखते इस पर किसी को अचरज भी नहीं करना चाहिए।
पांच साल की चुप्पी तोड़ कर लिखा श्री आडवाणी का एक ब्लॉग भी चर्चा में हैं, जिसमें उन्होंने मोदी-शाह की असहिष्णु मानसिकता और निरंकुश कार्यशैली की ओर इशारा करते हुए लिखा है कि भाजपा ने (उनके समय की) कभी अपने आलोचकों को अपना या देश का दुश्मन नहीं माना। क्या सचमुच आडवाणी का अतीत इस बात की गवाही देता है? नहीं। कोई नब्बे के दशक के उन हंगामी दिनों को कैसे भूल सकता है भला, जब वे “मंदिर ‘वहीं’ बनायेंगे” की नफरती जिद के और अदालत को नकारने के खुले ऐलान के साथ (’90 में) ‘रथ यात्रा’ पर निकल पड़े थे। तब ये देश में धार्मिक असहिष्णुता और हिंसा के बीज बो रहे थे। खूनी लकीर खींच रहे थे। खुद तो गिरफ्तार हो गए, लेकिन उन्मादी ‘कारसेवकों’ ने बाबरी मस्जिद पर धावा बोल दिया। तब मुलायम सिंह की सरकार की सख्ती से मस्जिद बच गयी, लेकिन दो साल बाद छह दिसंबर ’92 को अंततः ये कामयाब हो गए। मगर आश्चर्य कि उस ध्वंस के योजनाकार, रणनीतिकार श्री आडवाणी ने कहा- मेरे लिए वह बहुत दुखद दिन था! यानी मसजिद टूटने पर वे दुखी थे! हद है पाखण्ड की!
ऐसा आदमी यदि कहे कि वह आलोचकों के प्रति उदारता का हामी है, तो कौन यकीन करेगा? और सामान्य व्यवहार में जो उदार होगा, क्या वह दो समुदायों के बीच घृणा बढाने, उस आधार पर सत्ता हासिल करने का भी प्रयास करेगा?
याद करें, 1980 में जब जनसंघ के नये अवतार के रूप में भाजपा ने जन्म लिया, तब उसने अपना राजनीतिक लक्ष्य ‘गांधीवादी समाजवाद’ घोषित किया था। ’ 84 में एक विपरीत हिन्दू उन्माद में जब भाजपा दो सीटों पर सिमट गयी, तब वह अपने ‘’मूल मुद्दे’ पर लौट गयी। नारा दिया- ‘जय श्रीराम’ और तब से उसकी दिशा वही है; और ’92 के अयोध्या हादसे ने भारतीय राजनीति की दिशा को भी हमेशा के लिए बदल दिया।
बेशक इनके और मुरली मनोहर जोशी आदि के साथ अच्छा नहीं हुआ, लेकिन आडवाणी जी ने देश के साथ जो किया है, उस लिहाज से तो यह कुछ भी नहीं है। और नरेंद्र मोदी भी तो इनकी ही पाठशाला से निकले हैं। कहले हैं, पता नहीं इसमें सच कितना है, कि गुजरात दंगों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी, मोदी से मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए कहना चाहते थे, लेकिन तब आडवाणी मोदी के बचाव में आ गए थे।
अंत में : एक मजाकिया कार्टून इन दिनों सोशल मीडिया पर घूम रहा है, जिसमें कहा गया है- पहले कांग्रेसियों को वाजपेयी बुरे लगते थे। फिर आडवाणी आये, तो वाजपेयी अच्छे लगने लगे। मोदी आये, तो आडवाणी अच्छे लगने लगे। योगी को ले आओ, तब मोदी तो देवता लगने लगेंगे।
यानी बस मात्रा भेद है।