निःसंदेह ’67 और ’77 का गैरकांग्रेसवाद किसी सैद्धांतिक और वैचारिक सहमति पर नहीं खड़ा था। उसे एक तरह से सिद्धांतविहीन अवसरवादी गंठजोड़ भी कह सकते हैं। लेकिन तत्कालीन स्थितियों में वह अपरिहार्य रणनीति थी। हम सफल भी हुए। वह नकारात्मक वोटिंग ही थी, नगर सकारात्मक उद्देश्य के साथ।
चुनाव, यानी दो या दो से अधिक विकल्पों में से एक को चुनना। भले ही कोई विकल्प हमारे आदर्शों के अनुरूप न हो, पर चुनना पड़ता है। मगर बहुधा एक दुविधा जरूर होती है। जो किसी पार्टी के समर्थक या सदस्य हैं; या जात-धर्म के नाम पर मतदान करते हैं, उनको कोई दुविधा नहीं रहती। लेकिन हम जैसों को रहती है। कंडीडेट देखें या पार्टी को या उस नेता या समूह को, जिसकी धुरी पर चुनाव हो रहा है, जिसकी सरकार बनेगी।। प्रत्याशी का घोषित विचार देखें या उसका आचरण?
आदर्श स्थिति और मान्यता तो यही है कि हमें/ मतदाताओं को श्रेष्ठ या कम बुरे का चयन करना चाहिए। एक धारणा यह भी है कि प्रत्येक दल में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। ऐसे में यदि हम पार्टी को भूल कर सिर्फ अच्छा चुनें और सदन में अच्छे लोगों की बहुतायत हो जाये, वह एक बेहतर स्थिति होगी। लोकतंत्र सवस्थ और साफ-सुथरा होगा। लेकिन इसमें एक लोचा है। कोई दल और उसका नेतृत्व यदि नकारात्मक विचारों और चरित्र का है, तो मौजूदा हालात (दलों के अन्दर लोकतंत्र की बदहाल स्थिति) में उस दल में कथित ‘भला’ सांसद या विधायक होने से क्या फर्क पड़ेगा? अभी बहुतों को आडवाणी जी ‘बेचारे’ और भले दिखने लगे हैं। मान लें कि वे भले हैं, लेकिन उनके भाजपा के और मोदी-शाह और योगी जैसों के चाल-चरित्र पर क्या सकारात्मक असर पड़ गया? यही बात अन्य दलों (जो आपकी/हमारी नजर में गलत हैं) के बेचारे ‘भले’ लोगों के बारे में भी कही जा सकती है।
इसलिए सच यही है कि कई बार नकारात्मक वोटिंग भी एक जरूरी रणनीति होती है; और वह हमेशा ‘निगेटिव नहीं’ होती। ’77 में भी हमने यही किया था। उसके पहले ’67 और उसके बाद के कई चुनावों में कांग्रेस विरोधी दलों और उनके समर्थकों ने यही किया था। ’77 में देश के लोकशाही पसंद लोगों/ आंदोलनकारी जमात का परम लक्ष्य था कांग्रेस को सत्ता च्युत करना। यदि उस चुनाव से ऐन पहले जेपी की पहल पर जनता पार्टी का गठन नहीं हुआ होता; कांग्रेस प्रत्याशी के मुकाबले विपक्षी दलों के एक से अधिक प्रत्याशी मैदान में होते, तब भी हम जैसे लोग कांग्रेस प्रत्याशी के निकटतम प्रतिद्वंद्वी को ही वोट देते।
प्रसंगवश, ’77 में हमारे जिले (पश्चिम चंपारण, बिहार) की दोनों संसदीय सीटें जगजीवन बाबू (जो चुनाव की घोषणा के बाद इधर आ गये थे) की सीएफडी के कोटे में चली गयीं। आन्दोलनकारी साथियों में लगभग विद्रोह की स्थिति थी। यह सवाल आम था कि ‘जो लोग कल तक, पूरी इमरजेंसी कांग्रेस में रहे, उनका समर्थन हम कैसे कर सकते हैं?’ लेकिन हम लोगों ने जैसे तैसे सबों को मनाया।
निःसंदेह ’67 और ’77 का गैरकांग्रेसवाद किसी सैद्धांतिक और वैचारिक सहमति पर नहीं खड़ा था। उसे एक तरह से सिद्धांतविहीन अवसरवादी गंठजोड़ भी कह सकते हैं। लेकिन तत्कालीन स्थितियों में वह अपरिहार्य रणनीति थी। हम सफल भी हुए। वह नकारात्मक वोटिंग ही थी, नगर सकारात्मक उद्देश्य के साथ।
इसलिए जो लोग ‘आदर्श’ कंडीडेट चुनने के आदर्श पर चलना चाहते है, एक बार पुनः विचार कर लें। सामान्य स्थितियों के लिए यह आदर्श जरूर है, पर आज के हालात को सामान्य किस मान सकते हैं। भाजपा को मैं क्यों नापसंद करता हूँ और उसे सत्ता में आने से रोकना क्यों जरूरी मानता हूँ, इस बात को अभी रहने देते हैं। बहुत संक्षेप में इतना कि मेरी नजर में संघ जमात को भारत की बहुरंगी संस्कृति और इसकी बहुलता से कष्ट है, वह इसे बदल कर एकरंगा करना चाहती है। प्रयास तो यह बहुत समय से करती रही है। सत्ता से बाहर रहते हुए भी। बीते पांच वर्ष में ही केंद्र की सरकार चलाते हुए इसने झलक दिखा दी है कि यदि इसे अवसर और अपेक्षित ताकत मिले, तो यह भारत को किस दिशा में ले जा सकती है। और वह हमें स्वीकार्य नहीं है। बाकी अन्य नकारात्मक ताकतों से मुकाबला तो करना ही पड़ेगा, हमेशा करते रहना पड़ता है। लेकिन पहले इससे मुक्ति। जिनकी नजर में मोदी और भाजपा ही आदर्श हैं, उनसे अभी कुछ नहीं कह रहा। यह बात उनके लिए है, जो भाजपा को गलत मानते तो हैं, पर अब भी ‘किंतु-परंतु’ में पड़े हुए हैं।
एक विकल्प ‘नोटा’ भी है, लेकिन असामान्य स्थितियों में नोटा का प्रयोग वांछनीय नहीं है। और मेरे मन में कोई दुविधा नहीं है कि भाजपा, जो असल में संघ की राजनीतिक बांह है, को सत्ता से बाहर रखना देश के हर विवेकवान व्यक्ति का ध्येय होना चाहिए।