हो सकता है कि मोदी/भाजपा को इस ‘विकल्पहीन मोदी’ के प्रचार और व्यक्तियों के बीच मुकाबले की स्थिति का कुछ लाभ मिल जाये. लेकिन क्या सचमुच पूरे देश में, हर राज्य में लोग इसी मुकाबले या मोदी की विकल्पहीनता के आधार पर मतदान करेंगे? शायद नहीं.
पांच चरणों के मतदान के बाद भी कोई स्वतंत्र/तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक यह कहने की स्थिति में नहीं है कि 23 मई को क्या होगा. दोनों परस्पर विरोधी खेमें अवश्य अपनी जीत और दूसरे की करारी हार के दावे कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी प्रकट में आत्मविश्वास से भरे और आक्रामक नजर आ रहे हैं. लेकिन उनके भाषणों में तल्खी जिस कदर बढ़ती जा रही है, विपक्ष के नेताओं के प्रति वे जिस तरह हल्की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, उससे यह संदेह जरूर होता है कि कहीं यह पराजय के एहसास से उपजी झुंझलाहट का नतीजा तो नहीं है.
वैसे यह अनुमान कोई तुक्का नहीं है कि ’14 के चुनाव में उत्तर और पश्चिम के जिन राज्यों में भाजपा को अधिकतर सीटें मिली थीं, वहां वह अपने उस प्रदर्शन को शायद ही दुहरा पाए. बावजूद इसके कि विपक्षी दलों में अपेक्षित तालमेल नहीं हो सका, जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलना है. उडीसा, बंगाल और पूर्वोत्तर में अवश्य उसे लाभ मिलेगा, लेकिन क्या उससे उप्र, मप्र, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार जैसे राज्यों में होनेवाले नुकसान की भरपाई हो जायेगी? लगता तो नहीं है.
इन कयासों से अलग, सरकार की उपलब्धियों के दावों में यदि एक चौथाई सच्चाई भी हो, तो मोदी की वापसी को तय माना जाना चाहिए. इसी तरह विपक्षी दल/नेता इस सरकार की नाकामियों के जो आंकड़े पेश कर रहे हैं, उनमें भी यदि आधे सच हों, तो मोदी की पराजय सुनिश्चित है. बशर्ते कि मतदाता सचमुच कथित विकास और सरकार द्वारा किये गये कार्यों या उसके निकम्मेपन के आधार पर मतदान करते हों या करें. मेरा अनुमान है कि ऐसे मतदाता होते जरूर हैं, मगर उनका प्रतिशत इतना कम होता है कि चुनाव के नतीजों पर उनके मत से शायद ही बहुत फर्क पड़ता हो.
भाजपा/एनडीए ने भरसक प्रयास किया है कि इस चुनाव को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का रूप दे दिया जाये, जहां दो व्यक्तियों के बीच सीधा मुकाबला होता है. वह कुछ हद तक सफल भी होती दिख रही है. तभी तो उसके नेता-प्रवक्ता तंज के रूप में ललकारते हुए पूछते हैं- हमारा नेता तो मोदी हैं, आपका? एक हमलावर प्रचार यह भी है कि विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं है, वे तो सिर्फ मोदी को हराना चाहते हैं. कमाल है कि ठीक यही तर्क इंदिरा गांधी भी देती थीं. और तब ‘इंदिरा हटाओ’ के एकसूत्री लक्ष्य में भाजपा (जनसंघ) के लोग भी शामिल थे.
हो सकता है कि मोदी/भाजपा को इस ‘विकल्पहीन मोदी’ के प्रचार और व्यक्तियों के बीच मुकाबले की स्थिति का कुछ लाभ मिल जाये. लेकिन क्या सचमुच पूरे देश में, हर राज्य में लोग इसी मुकाबले या मोदी की विकल्पहीनता के आधार पर मतदान करेंगे? शायद नहीं. यह सही है कि देश का इतना ध्रुवीकृत राजनीतिक माहौल पहले शायद कभी नहीं था. कह सकते हैं कि ’77 में था, जब दो ही मुद्दे थे- इंदिरा हटाओ या इंदिरा जिताओ. लेकिन हम उत्तर भारत या हिन्दी पट्टी के लोग अमूमन दक्षिण भारत की स्थिति से अनभिज्ञ रहते हैं; या फिर इस क्षेत्र को ही भारत मान लेते हैं. लेकिन ’77 में भी ऐसा नहीं था. उस चुनाव के नतीजे भी उत्तर और दक्षिण में बंटे हुए थे. इसलिए यह दावा ही अपने आप में सही नहीं है कि देश में सिर्फ मोदी ही मुद्दा हैं. जैसे यह कहना भी सही नहीं है कि 2014 में श्री मोदी या भाजपा को मिली जीत ‘ऐतिहासिक’ थी. उसे ‘ऐतिहासिक’ सिर्फ इस अर्थ में कहा जा सकता है कि पहली बार भाजपा; या कहें कांग्रेस के आलावा किसी दल को अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल हुआ था. लेकिन वह ‘प्रचंड’ जनादेश तो कतई नहीं था, जैसा कि बीते पांच वर्षों से कहा जाता रहा है. सभी जानते हैं कि उसे मात्र 31 फीसदी वोट मिले थे. और सच यह भी है कि इतने कम फीसदी वोट पाकर इससे पहले किसी दल को बहुमत नहीं मिला था. इससे अधिक वोट (37 प्रतिशत) तो ’67 में कांग्रेस को मिला था; और तब कहा गया था कि कांग्रेस को ‘बमुश्किल’ बहुमत मिल पाया.
जो भी हो, आज की तारिख में श्री मोदी लोकप्रियता के लिहाज से राहुल गांधी सहित किसी भी नेता से मीलों आगे हैं, लेकिन यह लोकप्रियता देश के हर हिस्से में एक समान नहीं है. न ही खुद मोदी और भाजपा को भरोसा है कि मोदी की यह लोकप्रियता सत्ता में वापसी के लिए पर्याप्त है. तभी तो भाजपा ने हर छोटे-बड़े दलों से गंठजोड़ किया है. तभी तो उसने अपने अनेक सांसदों को प्रत्याशी नहीं बनाया. यदि सिर्फ मोदी के चेहरे पर ही वोट मिलने की गारंटी होती, यदि सरकार के कामकाज से जनता उतना प्रसन्न होती, जितना दावा किया जा रहा है, तो इतने पापड़ क्यों बेलने पड़ते?
जो भी हो, इस बार भी अलग अलग क्षेत्रों और राज्यों में लोग अलग अलग आधारों पर अपने प्रतिनिधि; और इस तरह अगली सरकार चुनेंगे. हाँ, यह चुनाव इस मायने में अलग और ख़ास जरूर होगा कि इसके नतीजों से भारत के आगे का रास्ता तय होगा. तय होगा भारत का मौजूदा बहुलतावादी स्वरुप/चरित्र बचा रहेगा कि वह ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनने की रह पर बढ़ जायेगा?
भाजपा केंद्र में ‘मजबूत’ सरकार की वकालत करती रही है, लेकिन मजबूत सरकार के निरंकुश होने की आशंका भी रहती है. सामान्य बहुमत और महज 31 फीसदी मत पाकर बनी इस सरकार ने अपने कार्यकाल में जो जलवे दिखाये हैं, उससे यह आशंका और गहरी हुई है कि यदि मोदी सचमुच दोबारा, और प्रचंड बहुमत से सत्तासीन होते हैं, तो वह सरकार संवैधानिक संस्थाओं के लिए, संविधान और जिन बुनियादी सिद्धांतों पर उसका निर्माण हुआ है, के लिए बुलडोजर साबित हो सकती है. लेकिन यदि अब तक के अनुमान सही हैं, तो इस बार सरकार किसी की बने, वह ‘कमजोर’ (मायावती के शब्दों में ‘मजबूर’) सरकार होगी, जिसके सामने एक मजबूत विपक्ष होगा.
जैसे मनुष्य तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक अपने अमर होने की दावा नहीं खोज पाया है, उसी तरह कोई दल और नेता अगले चुनाव में निश्चित जीत का फार्मूला तलाश नहीं कर पाया है. अमरता का स्वप्न अधूरा रह जाना मानवता और प्रकृति के लिए; और चुनावी जीत के फार्मूले का इजाद न हो पाना लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा है.