मुस्लिम विरोधी घृणा का एक संगठन तंत्र है और उससे हममें से ज़्यादा को कोई ऐतराज़ नहीं

:: अपूर्वानंद: साभार 'द वायर' ::

मुसलमान विरोधी घृणा से मुक्ति फ़ौरी राष्ट्रीय काम है. इसमें पहले ही 70 साल की देर हो चुकी है. अब और देर नहीं की जा सकती. अगस्त के महीने में यह नहीं हो सकता कि चीखें भारत के आसमान को ढंक लें: मुझे बचाओ और आप स्वाधीनता के बैंड बाजे के शोर से उन चीखों को दबा दें. स्वाधीनता का ऐसा पतन हमें क़बूल नहीं होना चाहिए.

आज का पाठ है- मृत्यु के साधारण तथ्य

अनेक हैं; मुख्य लिखो.

रघुवीर सहाय की कविता ने बहुत पहले कवि को उसका कर्तव्य बता दिया था. क्यों हर मृत्यु को एक नहीं मानना है, यह इसके बाद कविता स्पष्ट करती है…

वह सबको एक-सी नहीं आती

न सब मृत्यु के बाद एक हो जाते हैं

वैसे ही जैसे पहले नहीं थे.

इन तीनों वाक्यों को बहुत ध्यान से बार-बार पढ़ने की ज़रूरत है. तब हमें मालूम होता है मृत्यु के पहले आपकी जो हैसियत है, वह आपकी मौत का तरीका भी तय करती है.

इसलिए हर बार मनुष्य की या इंसान की मौत नहीं होती, जैसा कहने का रिवाज़ है. या जो कहकर हम एक मानवतावादी उदारता का सुख लेते हैं और उस मृत्यु को भूल जाते हैं. लेकिन कवि जो कि एक तरह के पत्रकार होते हैं, भूलने नहीं देते कि वह मौत और मौतों की तरह नहीं हुई थी.

मृत्यु के बाद बची रह जाती है लाश और उसमें ‘देह के अंदर की टूट’. वह टूट जितनी देह की नहीं, उतनी रूह की होती है. और लाश के साथ…

सिर्फ एक चीख बाहर आती है जो कि दरअसल

एक अंदरूनी मामला है और अभी शोध का विषय है.

हम चीख को भुला देना चाहते हैं और देह के अंदर आत्मा की टूट हमें नज़र नहीं आती. मौत के पहले या मौत के समय देह से निकली चीख के कारण पर बात करने की छूट नहीं, वह अंदरूनी मामला जो है.

जो मर गया वह जानता है कि कौन उसकी मौत के उस तथ्य को रिपोर्ट नहीं करने देना चाहता, जो उसे मृत्यु के साधारण तथ्यों से अलग कर देता है. कविता को आगे पढ़िए और सुनिए जो मारा गया है उसे:

मैं क्या कर रहा था जब मैं मरा

मुझसे ज्यादा तो तुम जानते लगते हो

तुमने लिखा मैंने कहा था- स्वाधीनता

शायद मैंने कहा- बचाओ

आगे कविता का लहजा सख्त हो जाता है:

जब एक महान संकट से गुजर रहे हों

पढ़े लिखे जीवित लोग

एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए

तब आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को

मसखरी कितनी पसंद है.

जो मारा गया उससे रहम की मांग की जाती है, मौत को सिर्फ मौत की तरह याद रखने और गिनने की, लेकिन वह जिसकी चीख उसकी मौत के साथ दबाने की साजिश की जा रही है, रियायत को तैयार नहीं:

…मैं पूछूंगा नहीं कि सौ मोटी गरदनें

झुकी हैं

बुद्धि के बोझ से

श्रद्धा से

कि लज्जा से

मैं सिर्फ उन सौ गंजी चांदों पर टकटकी बांधे रहूंगा-

अपनी मरी हुई मशीनगन की टकटकी.

मौतें कई वजहों से होती हैं. बीमारी से, बुढ़ापे से, भूख से और कुदरती हादसे से. वे मौत के साधारण तथ्य हैं. एक मौत होती है नफ़रत की वजह से. वह मुख्य तथ्य है. भूख, बीमारी, बुढ़ापा और प्राकृतिक कोप आपका नाम देख कर आपको नहीं घेरते, हालांकि यह भी आधा सच है. लेकिन नफ़रत के चलते होनेवाली मौत नाम देखकर ही आपको घेरती है.

कौन चिल्लाता है, ‘बचाओ’ जबकि उसे घोषणा करनी थी: ‘स्वाधीनता’? यह प्रश्न इस स्वाधीनता दिवस को, पिछले 7 स्वाधीनता दिवसों को अगर नहीं पूछा, कौन पूछेगा? किनके सर झुके हुए हैं इस तिरंगे के नीचे? किनकी छाती पर वह संगीन की तरह भोंक दिया गया है?

इस तिरंगे पर तीन रंगों के अलावा किनके खून के छींटे हैं? क्या वह खून हमें दीखता है भी कि नहीं? जब हम इस तिरंगे को सलामी दे रहे होंगे तो किनकी टकटकी हमारी झुकी हुई चांदों पर टकटकी बांधे होगी? क्या उनके नाम बतलाने की ज़रूरत भी है? या हम जानते हुए वे नाम लेना नहीं चाहते?

उन नामवालों की मौतें सिर्फ इस कारण हुईं कि हमारे बीच घृणा है. वह मुसलमान विरोधी घृणा है. उससे आंख मत फेरिए. उससे वह खत्म नहीं हो जाएगी. उसे देखिए, उस पर गौर कीजिए. घृणा की हर अभिव्यक्ति को देखिए. यह न कहिए कि यह तो वही है, जिसे हम जानते हैं.

नहीं! आप ठीक-ठीक सटीक इस घृणा को तब पहचानेंगे जब इसकी ‘विविधता’ को दर्ज करेंगे. जैसे बारिश के बहुत रूप हैं, वैसे ही मुसलमान विरोधी घृणा के भी. कभी वह तूफ़ान के साथ आती है, सब कुछ को उजाड़ती, डुबाती, बहाकर कर ले जाती.

और कभी वह बरसती रहती है, बिना रुके, आसमान बादलों से घिरा होता है और वह बुरी नहीं लगती. कभी वह एक बौछार की तरह आकर चली जाती है, मानो आई ही न थी. लेकिन ज़्यादातर वक्त वह उमस की तरह होती है, जिससे आप कसमसाते हैं लेकिन छुटकारे का कोई उपाय नहीं दीखता. या वह चिलचिलाती धूप की तरह जलाती है.

मैं लेकिन कुदरत के साथ नाइंसाफी कर रहा हूं. उसका मानवीकरण, जो उसके साथ सबसे बड़ा अन्याय है. प्रकृति की नाइंसाफियां मानवीय विकृतियों की तरह नहीं हैं.

प्रोफ़ेसर उपेंद्र बक्षी ने एक व्याख्यान में अन्याय के भूगोल के बारे में बात की थी. भूकंप, तूफ़ान, बाढ़, हमें इंसान के खिलाफ कुदरत की नाइंसाफी जान पड़ सकते हैं. प्रकृति का अविचारित अन्याय मनुष्य के विरुद्ध. लेकिन कुदरत से आप यह शिकायत नहीं कर सकते कि वह एक तरह के मनुष्यों पर ही कहर बरपा करती है.

2001 में गुजरात के भूकंप ने हिंदू, मुसलमान, ‘ऊंची’ जाति, ‘पिछड़ी’ जाति, दलित, जैन, ईसाई, सबके घर गिराए. वैसे ही ओडिशा के तूफानों ने या बंगाल के झंझावत या जम्मू कश्मीर की या केरल या असम या बिहार की बाढ़ ने.

अगर यह अन्याय है तो कुदरत ने सबको एक आंख से देखा. समदर्शी अन्याय. कोई भेदभाव नहीं. जैसे सूरज की धूप सबके लिए है, वैसे ही ये सब भी.

2001 के भूकंप के बाद 2002 में एक ‘तूफ़ान’ आया गुजरात में. लेकिन इस बार उस तूफ़ान का कहर बरपा सिर्फ एक आबादी पर. 2001 में विस्थापितों के शिविरों में सब किस्म के लोग थे. इस बार सिर्फ मुसलमान. इस बार मारे गए लोग मुसलमान थे.

जिनके साथ बलात्कार हुआ, वे मुसलमान औरतें थीं. जिनके घर जलाए गए, वे मुसलमान थे. जिनके धार्मिक स्थल तबाह किए गए, वे मुसलमान थे. 2013 में मुजफ्फरनगर में यही दुहराया गया. जैसे 2002 के पहले कई बार: नेल्ली और भागलपुर सिर्फ दो नाम हैं. बीसियों नामों में.

जैसे- जुनैद, एखलाक, पहलू खान, अलीमुद्दीन, सिर्फ चार नाम हैं उनमें बीसियों, सैंकड़ों से जिनकी मौत मुसलमान-विरोधी घृणा के कारण हुई.

वह जो चीख इनकी लाशों में दबी रह गयी और जिसे भद्रजन सुनना नहीं चाहते, क्योंकि उससे मानवता पर संदेह पैदा होता है उसने कहने की ज़रूरत है कि संकट मानवता का जितना नहीं उतना उनका है जो यह चीख सुनकर भी इसके मायने नहीं समझना चाहते.

यह चीख कानपुर की सड़कों पर लोगों ने सुनी अफ़सार की बेटी की. अफ़सार जिसे पीटते हुए जय श्रीराम बोलने की बार-बार कहा जा रहा है. अफ़सार पर हमला हो रहा था जबकि पुलिस उसके चारों तरफ थी.

पुलिस ने एक बार भी हमलावरों पर बल प्रयोग किया हो, यह दिखलाई नहीं दिया. भले लोग बच्ची की चीख से द्रवित हुए, उसके मन पर क्या असर पड़ेगा, इसका अफ़सोस किया लेकिन क्या अफ़सार पहला था? और क्या वह आख़िरी हो पाएगा?

कानपुर में अफ़सार पर हुए हमले का मुजफ्फरनगर में मुसलमान मेहंदी लगानेवालों के खिलाफ अभियान से क्या रिश्ता हो सकता है? या दिल्ली की द्वारका में हज हाउस के खिलाफ होनवाले अभियान से? या उत्तम नगर में मुसलमान फलवालों पर हमलों से?

जंतर मंतर पर मुसलमानों के कत्लेआम के नारे लगाती भीड़ से? असम में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि पर काबू पाने के मुख्यमंत्री के बयान से? इसका क्या रिश्ता हो सकता है असम में एनआरसी का हुक्म देनेवाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से? या बाबरी मस्जिद की ज़मीन विश्व हिंदू परिषद के लोगों के हवाले कर देने से? इन सबमें क्या है जो सामान्य है?

इन सबके पीछे मुसलमानों के खिलाफ नफरत है. भारत पर उनके अधिकार को बाकियों के मुकाबले कम मानने की मानसिकता है. उनके होने को लेकर ही ऐतराज है.

और यह स्वाभाविक नहीं है. यह संगठित है. इसे गढ़ा जाता है और इसकी बत्ती को लगातार तेल में भिगाए रखा जाता है और इसे मद्धम पड़ने पर उकसाया जाता है.

इस घृणा का एक संगठन तंत्र है. वह निरंतर सक्रिय है. और उससे हममें से ज्यादा को कोई ऐतराज नहीं है. बल्कि इस घृणा के संगठनकर्ताओं के साथ हम तस्वीरें खिंचवाते हैं, उनके साथ चाय पीने का मौक़ा मिलने पर कृतज्ञ होते हैं.

अफ़सार पर हमला करनेवाली भीड़ खुद-ब-खुद नहीं बन गई. जैसे जंतर मंतर पर लोग किसी आतंरिक प्रेरणा से नहीं इकट्ठा हुए. जैसे बाबरी मस्जिद गिराने भी लोग भक्तिवश नहीं, घृणावश आए थे.

हमें इस मुसलमान विरोधी घृणा के अस्तित्व को पहले स्वीकार करना होगा. दूसरे, उसे स्वाभाविक और प्राकृतिक मानने का लोभ और आलस छोड़ना होगा. उसके पीछे के संगठन को पहचानना होगा. उसके साथ अपने रिश्ते को तय करना होगा.

हमें कहना पड़ेगा कि इस घृणा का स्रोत मुसलमान नहीं हैं. इस घृणा का स्रोत हिंदुओं के मन में बैठे पूर्वाग्रह हैं. और उन्हें सहलाने, खादपानी देनेवाला संगठन या संगठनों का जाल है.

घृणा का कारण वहां है. अगर इसे खत्म होना है तो हिंदुओं को अपने भीतर सफाई शुरू करनी होगी. सवाल मुसलमानों के सुधरने का नहीं, हिंदुओं को अपने भीतर सुधार करने का है.

मुसलमान विरोधी घृणा से मुक्ति फौरी राष्ट्रीय काम है. इसमें पहले ही 70 साल की देर हो चुकी है. अब और देर नहीं की जा सकती. अगस्त के महीने में यह नहीं हो सकता कि चीखें भारत के आसमान को ढंक लें: मुझे बचाओ और आप स्वाधीनता के बैंड बाजे के शोर से उन चीखों को दबा दें. स्वाधीनता का ऐसा पतन हमें कबूल नहीं होना चाहिए.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं.)

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