सक्रिय राजनीति में प्रियंका गांधी औपचारिक रूप से का आना, कांग्रेस में कोई पद पा जाना क्या इतनी बड़ी घटना है, जैसी मीडिया में इस बात को लेकर मची हलचल से लगता है? अंगरेजी की एक कहावत का हिन्दी अनुवाद है- चाय के प्याले में तूफ़ान. इस घटना को लेकर कुछ वैसा ही परिदृश्य है. कांग्रेस के करीबी संगठनों ने जहाँ इसका स्वागत किया, वहीं कांग्रेस विरोधी दलों को तंज कसने का मौका मिल गया. भाजपा के मुताबिक तो इससे साबित हो गया कि राहुल फेल हो गए और कांग्रेस परिवारवादी पार्टी है. मानो इसके पहले तक कांग्रेस वंशवादी नहीं थी!
सच तो यही है कि कांग्रेस में इंदिरा गांधी के उभार या कहें, कांग्रेस के उनके पूर्ण नियत्रण में आ जाने के बाद से यह पार्टी इस नेहरू-गांधी परिवार की निजी जागीर या प्राइवेट लिमिटेड कंपनी जैसी हो गयी है. आम कांग्रेसी तो इस परिवार के नवजात को भी अपना नेता मानने के लिए तैयार रहता है, देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा (कांग्रेस का परंपरागत समर्थक) भी इस परिवार के हर सदस्य के प्रति अपना समर्थन और आदर व्यक्त करता रहा है.
कोई संदेह नहीं कि इसी परिवार और कांग्रेस से भारतीय राजनीति में परिवारवाद की शुरुआत हुई. बेशक देश की इस सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी; गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद की पार्टी की यह स्थिति दुखद और शर्मनाक है. मगर आज इस वंशवाद का विस्तार वाम दलों को छोड़ कर सभी राजनीतिक दलों तक हो चुका है.
हम इसे जितना भी गलत कह लें, यह भारतीय, बल्कि एशियाई देशों/समाजों के चरित्र और परंपरा के अनुकूल ही है. इस्राइल की गोल्डा मायर को छोड़ कर किसी एशियाई मुल्क की किसी महिला नेता/राष्ट्राध्यक्ष को याद कर लीजिये- इंदिरा गांधी, श्रीलंका की श्रीमती भंडारनायके, पकिस्तान की बेनजीर भुट्टो, बांग्लादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया- सभी किसी राजनीतिक परिवार, अपने पति या पिता की विरासत से जुडी नजर आ जायेंगी. जनता के इसी समर्थन के कारण पार्टियाँ सांसद और विधायक के बेटे-बेटियों को प्रत्याशी बनाती हैं; या लोभ में पड़ जाती हैं. यदि उनके जीतने का भरोसा नहीं हो, तो यह सिलसिला तत्काल रुक जाये.
हद तो यह कि झारखंड में भाकपा (माले) तक ने अपने एक जुझारू और ईमानदार नेता महेंद्र सिंह की हत्या के बाद हुए उप चुनाव में उनके पुत्र को ही प्रत्याशी बनाया!
और एक बड़ा व शर्मनाक सच यह भी है कि इस आधार- वंशवाद- पर कांग्रेस की आलोचना करनेवाले तमाम दल भी आज कम या अधिक इस रोग के शिकार हैं. लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, बादल, ठाकरे, देवीलाल, चरण सिंह, पासवान, मुफ्ती, अब्दुल्ला आदि की पार्टियाँ तो जगजाहिर हैं. कुछ समय पहले तक इससे मुक्त रही भाजपा में भी उसके कितने नेताओं के बेटे-बेटियां आज सांसद, विधायक और मंत्री बने हुए हैं, इसकी सूची बनायें तो वह बहुत लम्बी हो जाएगी.
जो भी हो, इस सामान्य सी घटना पर मीडिया और विभिन्न राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया अपने आप में प्रियंका की अहमियत का प्रमाण है. लेकिन प्रियंका के आने से कांग्रेस को आगामी चुनावों में कितना लाभ होगा, अभी यह कहना कठिन है, हालाँकि इस व्यक्ति पूजक देश में, हमारी-आपकी नजर में जो अत्यंत साधारण व्यक्ति है, वह भी ‘चमत्कारिक’ असर डाल सकता है. प्रियंका गांधी विचार के स्तर पर बहुत सुलझी हुई हैं, ऐसा कोई प्रमाण अब तक तो नजर नहीं आया है. मगर जब किसी ख़ास परिवार का होना ही काफी हो, तब उसमें किसी और गुण का होना जरूरी ही कहाँ रह जाता है. और प्रियंका ‘सुदर्शन’ हैं, उनमें बहुतों को अपनी दादी इंदिरा गांधी की झलक दिखती है, फिलहाल तो आम कांग्रेसियों और इस पार्टी के परम्परागत वोटरों के लिए उनका यही ‘गुण’ पर्याप्त हो सकता है. यदि अपनी उपस्थिति से या कांग्रेस प्रत्याशी बन कर वे कार्यकर्ताओं में जोश और उत्साह भरने में सफल होती हैं, तो यूपी में खस्ताहाल कांग्रेस के लिए यही क्या कम होगा.
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में एक ओर बुआ-भतीजे की जोड़ी है, जिसने एक तरह से कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया है. दूसरी ओर मोदी-शाह-योगी की तिकड़ी है. इस दोतरफा चुनौती का सामना करते हुए यदि कांग्रेस, बकौल राहुल गांधी, कुछ चौंकानेवाला कमाल दिखाती भी है, तो वह किसकी कीमत पर होगा? पता नहीं. पर आशंका तो दोनों को होगी.
कांग्रेस अन्य कारणों से भी बेहतर कर सकती है या विफल हो सकती है. पर दोनों ही सूरत में इसका श्रेय प्रियंका के के माथे मढ़ने का प्रयास होगा, यह भी तय है. व्यक्ति केन्द्रित राजनीति सिर्फ दलों तक सीमित नहीं होती, पत्रकार और चुनावी पंडित भी भी उस प्रभाव से बच नहीं पते. मगर प्रियंका कोई चमत्कार कर देंगी, या एकदम बेअसर साबित होंगी, इस तरह का फैसला सुनाना अभी जल्दबाजी होगी.