हां, जॉर्ज भी कभी समाजवादी हुआ करते थे!

Approved by Srinivas on Wed, 01/30/2019 - 07:57

जैसे सावरकर भी एक समय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी युवा हुआ करते थे.
जैसे मोहम्मद अली जिन्ना लम्बे अरसे तक मॉडरेट, सेकुलर और देशभक्त हुआ करते थे.

और मैं इन सबका उस हद तक सम्मान करता हूँ, जिस हद तक इनमें नकारात्मक बदलाव नहीं आया था.

मगर अंग्रेजों से माफी मांग कर सेलुलर जेल से निकलने वाले; उसके बाद आजीवन ‘हिन्दू राष्ट्र’ की वकालत करते रहे; यहाँ तक कि गांधी की हत्या में कथित रूप से संदिग्ध भूमिका निभानेवाले विनायक दामोदर सावरकर के प्रति सम्मान का वही भाव नहीं है, न हो सकता है.

इसी तरह तीस के दशक के बाद मुस्लिम अतिवाद को हथियार बना कर देश के विभाजन में अहम भूमिका निभानेवाले जिन्ना के प्रति वैसा ही सम्मान नहीं है, जो उससे पहले के जिन्ना के प्रति है.

ठीक उसी तरह जुझारू ट्रेड यूनियन नेता, समाजवाद में असंदिग्ध निष्ठा रखनेवाले और देश के वंचित समुदायों और तबकों के हक़ के लिए आवाज उठाते रहे जॉर्ज फर्नांडीस के प्रति जो सम्मान था, वह आज भी है. मगर संघ की व्याघ्र मुद्रा और चरित्र को अच्छी तरह समझने और उसके खिलाफ मुखर रहे जॉर्ज संघ के शरणागत होकर एनडीए के संयोजक और वाजपेयी सरकार के संकट मोचक बन गये, इस बात को कोई कैसे भूल सकता है.

याद तहे, डांग (गुजरात) और कंधमाल (उड़ीसा) में जब संघ जमात ने उत्पात मचाया, ऑस्ट्रेलियाई पादरी स्टेंस को उनके दो पुत्रों सहित ज़िंदा जला दिया गया, तब भी जॉर्ज साहब ने उन घटनाओं की ‘जांच’ कर बजरंग दल और विहिप को क्लीन चिट दे दी थी!

हालांकि मंत्री और अन्य ऊंचे पदों पर रहते हुए भी उनके सहज आचरण, सादगी और आम लोगों/कार्यकर्ताओं से जुडाव में कोई फर्क नहीं पड़ा. उन पर भ्रष्टाचार का आरोप तो लगा, पर वे बेदाग़ साबित हुए. इस तरह उन्होंने सार्वजनिक जीवन में एक उच्च आदर्श का पालन किया. इन सब कारणों से भी आजाद भारत के इतिहास में उनका विशिष्ट स्थान रहेगा.

मगर इन विशेषताओं के बावजूद उनके राजनीतिक विचलन और क्षरण को भूल कर सिर्फ उनका या ऐसे किसी नेता का प्रशस्तिगान करना विचार के बजाय व्यक्ति—पूजा की भारतीय परंपरा का निर्वाह करना ही कहा जाएगा. परंपरा और मान्यता यह कि जिसका निधन हो गया हो, उसके बारे में सिर्फ अच्छी बातें कहनी चाहिए. वैसे इस परंपरा की दुहाई देने वाला हमारा (हिंदू) समाज रावण, महिषासुर और होलिका की मौत का सालाना भी जश्न मनाता है.

संघ/भाजपा से जॉर्ज फर्नांडीस के जुड़ने, फिर अनेक ‘समाजवादियों’ के उनकी राह पर चल पड़ने; और उनके द्वारा इसके लिए ’67 में डॉ लोहिया के ‘गैर कांग्रेसवाद’ के प्रयोग और जेपी के नेतृत्व में हुए ’74 आन्दोलन में जनसंघ/संघ की भागीदारी को ढाल बनाये जाने पर यह संदेह भी होता है कि कहीं यह भारत के ‘समाजवादियों’ की नियति तो नहीं है; कहीं सेकुलरिज्म के प्रति उनकी घोषित निष्ठा कमजोर तो नहीं है? यह इल्जाम नहीं है, बस एक संदेह है.

गांधी के शहादत दिवस की पूर्व संध्या के मौके पर गोडसेवादियों के साथ गलबहियां करनेवालों के प्रति क्षोभ थोडा और बढ़ जाना तो स्वाभाविक ही है. नहीं?

जॉर्ज फर्नांडीस के निधन पर आज सुबह मेरी पहली त्वरित प्रतिक्रिया थी- 1996 ले पहले के जॉर्ज फर्नांडीस को सलाम!
एक बार फिर उस पुराने जॉर्ज को सलाम!

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