खेत-खलिहान, गांव-समाज सबकुछ से हाथ धो चुकी है सुशीला व उसका परिवार
अपनी पीड़ा बताते हुए सुशीला न तो हिचकती है और न ही उदासी ही ओढ़ती है। उसकी आंखें दूर कोने में टिकी है, जो उसे हिम्मत दे रही है। बिना रूके, सबकुछ एक ही सांस में कह देने को आतुर। उसकी शिकायत बस अपने ही बिरादरी के लोगों से है, जो उत्पीड़क के लिए कुल्हाड़ी का बेंट बने हुए हैं। स्नातक तक पढ़ाई पूरी कर चुकी सुशीला कहती है कि हमारा तो सबकुछ छीन लिया गया। पेट भरने के काम आने वाला एकलौता खेत, अपना समाज, अपना निजी परिवार, अपना गांव, गांव की दुकान, सड़के और गलियां तक। नहीं छिन पाये तो सिर्फ प्रकृति का साथ, हवा-पानी और पेड़ के छांव।
गोबरदहा में गड़बड़झाला है, भाई! हर स्तर पर। जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो रही है। लाठी भी लुटी हुई और भैंस भी। लेकिन भरे-पूरे गांव में कोई ऐसा नहीं, जो न्याय की खातिर पीड़िता के पक्ष में बोल सके। उलटे सब के सब उसे ही समाज से निष्कासित कर श्ररण में आने को मजबूर करने में लगे हैं। पीड़िता तो आज भी अलगू चैधरी की खोज में है, जो बिगाड़ की परवाह किये बिना सच को सच कह दें। लेकिन आज प्रेमचन्द का जमाना नहीं कि न्याय के लिए अपने मित्र के विरोध में भी कोई खड़ा हो जाए। पीड़िता अपने बिरादरी से लेकर प्रशासन-पुलिस, कोर्ट-कचहरी के साथ ही हर एक उम्मीद के आंगन में अपनी फरियाद सुना रही है, इस उम्मीद में कि पुरखों का कहना है कि सच हारता नहीं, परेशान होता है।
अब तो समय ही बतायेगा कि पीड़िता सुशीला को न्याय मिलता है या नहीं। लेकिन इतना तय है कि अपनों के भी साथ नहीं देने के बाद भी, टूटी नहीं है और उम्मीद की लौ जलाये हुए संघर्ष के राह पर आगे बढ़ती जा रही है।
अपनी पीड़ा बताते हुए सुशीला न तो हिचकती है और न ही उदासी ही ओढ़ती है। उसकी आंखें दूर कोने में टिकी है, जो उसे हिम्मत दे रही है। बिना रूके, सबकुछ एक ही सांस में कह देने को आतुर। उसकी शिकायत बस अपने ही बिरादरी के लोगों से है, जो उत्पीड़क के लिए कुल्हाड़ी का बेंट बने हुए हैं। स्नातक तक पढ़ाई पूरी कर चुकी सुशीला कहती है कि हमारा तो सबकुछ छीन लिया गया। पेट भरने के काम आने वाला एकलौता खेत, अपना समाज, अपना निजी परिवार, अपना गांव, गांव की दुकान, सड़के और गलियां तक। नहीं छिन पाये तो सिर्फ प्रकृति का साथ, हवा-पानी और पेड़ के छांव।
सुशीला कहती है कि हम छः भाई-बहन हैं। पांच बहन और एक भाई, वह भी विकलांग। पिता जी नाम से तो रघुनाथ हैं, लेकिन वे न तो रघु हैं औ न ही नाथ ही। यदि ऐसा होता तो जो हमलोगों के साथ हो रहा है, नहीं होता। पुरखों ने जंगल काट-छांट कर खेती लायक बनाया था। परिवार के पास एक ही धान का खेत था, रकबा था, एक एकड़ बीस डिसमिल। कोरवा जनजाति के होने के कारण जमीन से बहुत लगाव नहीं रहा, इसलिए एक खेत से ही संतुष्ट थे, हमलोग। खाने भर उसी खेत से हो जाता था। जी-तोड़ मेहनत कर पिताजी हम सबकों खिला भी रहे थे और पढ़ा भी रहे थे। इस खेत का कागज भी 1980 में बन गया था। भूदान यज्ञ समिति से बंदोबस्ती का पर्चा आज भी बक्से में बंद है। 2013 तक रसीद भी कटा है। लेकिन नया सर्वे में इस जमीन को पैरवी व पैसा के बल पर गांव के ही दीपक साहू ने अपने रिश्तेदार अनितिया साहू के नाम पर करा लिया। हमसब तब छोटे थे, क्या जाने? पिछले साल तक उस खेत में धान उपजाये हैं, कभी कोई परेशानी नहीं हुई। जब जमीन आॅनलाईन हुआ तब जानकारी मिली। दीपक साहू जो इस गांव का राशन डिलर भी है, उसने फिर पैसा व पैरवी के बल पर उसी खेत में सरकारी योजना के तहत तलाब स्वीकृत करा लिया। वह भी पूरे 22 लाख का। 26 जनवरी, जो गणतंत्र होने का दिन है, उसी दिन हमारे खेत में जेसीबी चलना शुरू हुआ। तालाब खोदे जाते देख, हमसब आश्चर्य में पड़े, पूछने पर पता चला, यह खेत तो अनितिया साहू के नाम पर है। यह कैसे हो गया? हम थाना गये, एस।डी।ओ। के पास गये, एस।पी। साहब के पास गये, लेकिन कुछ परिणाम नहीं निकला। 144 लगा, और काम होता रहा। माड़-भात देने वाले एकलौते खेत को इस तरह लुटता देख हमसब बिचलित थे। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। न्याय हमलोगों से दूर भागता नजर आया। जहां भी गये, जिस दरवाजे को खटखटाया, सबने टालने का ही प्रयास किया। जितने बड़े लोग, उतनी ही बेरूखी। अब कोर्ट में सुनवाई होनी है, पता नहीं क्या होगा? वहां भी। पढ़ाई के दौरान पढ़ी थी कि संघर्ष बेकार नहीं जाता, लगातार परिश्रम का फल जरूर मिलता है। बस, इसे ही मंत्र मानकर आगे का संघर्ष जारी रखी हुई हूं। हर जगह पैरवी और पैसे का जोर दिखा। गांव से बाहर भी और गांव-समाज के अंदर भी। गांव में तो पैसे का जोर और अनाज का साथ दोनों चला। सबकोई उसके साथ हो गये। हमारा, अपना कोरवा समाज भी।
खेत की लूट व अन्याय के विरोध में उठी मेरी आवाज को बंद करने के लिए दीपक ने मेरे ही समाज की आगनबाड़ी कार्यकर्ता बिगनी देवी को अपने पाले में ले लिया। उसकी सहायता से समाज-गांव की बैठक बुलाई गई और फरमान सुनाया गया कि इसे समाज से निकाल दो। कोई सम्पर्क नहीं रखेगा, कोई नहीं बोलेगा, दुकानदार समान नहीं देंगे। जिंदा लाश बन गया है, हमारा परिवार। इतने बड़े गांव और अपने 300 कोरवा परिवार के बीच बिल्कुल अकेला। बावजूद हम लड़ेंगे, अंतिम दम तक। अन्याय के विरूद्ध लड़ने की सीख हमें विरासत में मिली है।
सुशीला के साथ उसकी छोटी बहन साये की तरह लगी दिखी। पिता जी चुप-चाप, हामी भरते दिखे। सबकुछ छीन जाने का मलाल चेहरे पर भी दिख रहा था और चाल पर भी। जब वे कलेजे के टुकड़े सदृश्य उस खेत को दिखाने के लिए उठे, जिस पर तालाब बन चुका है, तब भी उनकी चाल धीमी थी, और आवाज बेजान। लेकिन अचानक जब तालाब के मेड़ पर पहंुचे तो बोलने से नहीं हिचके कि आज भी कभी-कभी लगता है कि चाहे हम भले जिंदा न रहे लेकिन यह खेत रहता तो बाल-बच्चे को भीख मांगने की नौबत नहीं आती। सुशीला और उसकी छोटी बहन, तब भी तन कर खड़ी रही मिट्टी के ढेर से बने तालाब के उस मेड़ पर, जिसने उसके लिए सुखद साबित होने वाले हर रास्ते को रोक रखा था-